परमहंस- ११

गदाधर का अध्यात्म की ओर, गूढता की ओर रूझान बढ़ता ही चला जा रहा था और वह अधिक से अधिक अंतर्मुख होने लगा था। उसका दिन का अधिकांश समय घर में ही या फिर गाँव के उसे प्रिय रहनेवाले स्थानों में व्यतीत होने लगा था। जब घर में रहता था, तब माँ का घर के कामों में हाथ बटाना या फिर घर के मंदिर के देवताओं का पूजन करना यही उसके प्रमुख काम रहते थे।

विशालाक्षीदेवी का मंदिर

‘देहभान भूलकर टकटकी लगाना’ यह अब कई बार घटित होनेवाली बात हुई थी। टकटकी लगने के, इससे पहले वर्णित प्रसंगों के साथ ही, रामकृष्णजी के बचपन के और भी कुछ उल्लेखनीय प्रसंग बयान किये जाते हैं।

कामारपुकूर से २ मील की दूरी पर रहनेवाले अनूर गाँव में विशालाक्षीदेवी का मंदिर होकर, वह आसपास के गाँवों के भाविकों का श्रद्धास्थान बन गया था। वहाँ पर दूर दूर से भक्तगण दर्शन के लिए, पूजन-अर्चन-नैवेद्य अर्पण करने के लिए आते थे। कामारपुकूर में रहनेवाले श्रद्धालु भी समय समय पर जाकर उस मंदिर में पूजन-अर्चन करते थे।

एक बार गाँव की कुछ महिलाएँ विशालाक्षीदेवी का पूजन-अर्चन करने, नैवेद्य अर्पण करने चलते चलते ही मंदिर की ओर निकलीं। उनके साथ गदाधर भी था। गदाधर को कई भक्तिगीत कंठस्थ थे और उसकी आवाज़ भी मधुर थी। इसलिए एक के बाद एक भक्तिगीत गाते हुए वह उनके साथ जा रहा था।

बीच रास्ते में उसे क्या हुआ क्या मालूम, वह जगह पर ही रूक गया और ज़मीन पर बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। जब उन महिलाओं की यह ध्यान में आया, तब उन्होने विभिन्न प्रकार से उसे जगाने की कोशिशें कीं। उसे पुकारते हुए, थप्पड़ें मारते हुए, उसके माथे पर पानी डालकर भी कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ा। वह एक ही जगह सुन होकर बैठ गया था, उसका बदन भी कड़क हो चुका था। उसे संसार का कोई भान है ऐसा नहीं लग रहा था, लेकिन केवल उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।

उतने में उस समूह में रहनेवाली, गाँव के ज़मीनदार धरमदास लाहाबाबू की लड़की प्रसन्नमयी आगे आयी और उसने ‘शायद माँ विशालाक्षी ने गदाधर के बदन में प्रवेश किया है’ यह संभावना जतायी।

गदाधर के प्रति प्रसन्नमयी को अत्यधिक प्रेम एवं सम्मान की भावना थी; नहीं, बल्कि वह उसे मानो भगवान ही मान रही थी। मासूम गदाधर यह आध्यात्मिक दृष्टि से कोई तो बहुत ही श्रेष्ठ असामी है, ऐसी उसकी गदाधर के प्रति रहनेवाली धारणा थी।

केवल मन से शुद्ध एवं मासूम रहनेवालों के बदन में ही देवता प्रवेश करते हैं, ऐसा उसने किसी से तो सुना था। इस कारण, यह माँ विशालाक्षी ने ही गदाई के शरीर में प्रवेश किया होगा, इसपर उसका और बाक़ी की महिलाओं का एकमत हुआ और आगे मंदिर में जाने के बजाय वहीं पर – गदाधर को ही ‘माँ विशालाक्षी’ मानकर – उसका पूजन शुरू किया।

लेकिन थोड़े ही समय में गदाधर पुनः होश में आया और मानो कुछ हुआ ही नहीं, इस प्रकार से वह आगे मार्गक्रमणा करने लगा।

उसकी माँ चंद्रमणिदेवी तक जब यह हकीक़त पहुँची, तब वह पुनः चिन्ता में पड़ गयी। ‘गदाई की ‘बीमारी’ अच्छी नहीं हुई है’ ऐसा ही वह समझ बैठी और उसने तिलमिलाकर उसके आराध्य देवता रहनेवाले रघुबिर की प्रार्थना की।

लेकिन गदाई ने घर पहुँचने पर हमेशा की तरह ही –

‘मुझे कुछ भी हुआ नहीं था, मैं सोया भी नहीं था, मेरी सबकुछ समझ में आ रहा था। गानें गाते गाते माँ विशालाक्षी के विचारों से मेरा मन भर गया था। ये विचार धीरे धीरे बढ़ते गये और एक पल यह ऐसा हो गया’

– ऐसा उसे समझाकर बताया।

ऐसे वाक़ये धीरे धीरे बढ़ते ही जा रहे थे।

One Response to "परमहंस- ११"

  1. Naresh Khandale   April 11, 2017 at 1:42 pm

    Thanks for sharing such great information about Shri Ramakrishna Paramahansji. Its really wonderful and provide positive vibes while reading about him. Its very nicely narrated, hold our breath and creat curiosity to know more & more. Looking forward to see परमहंस- १2 in upcoming week.

    Naresh Khandale, Abu Dhabi.

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