परमहंस-१३

अब गदाधर ने उम्र के आठ वर्ष पूरे कर नौंवे वर्ष में पदार्पण किया था। पिताजी की मृत्यु के बाद ‘परिवारप्रमुख’पद की ज़िम्मेदारी उठाये हुए उसके सबसे बड़े भाई ने – रामकुमार ने अब उसकी उपनयनविधि की तैय्यारियाँ शुरू कीं।
गदाधर पूरे गाँव का ही दुलारा होने के कारण, इस समारोह की तैय्यारी में पूरा गाँव ही किसी न किसी तरह अपना हाथ बटा रहा था।

गदाधरतय कियेनुसार उपनयनविधि संपन्न हुई। यज्ञोपवीत धारण किये सुकुमार गदाई को निहारते हुए उसकी माँ की आँखें थक नहीं रही थीं। तत्कालीन सामाजिक प्रथा के अनुसार अब वह बाक़ायदा शिक्षा अर्जित कर सकता था और पूजन-अर्चन भी कर सकता था, इस कल्पना से उसकी माँ को – ‘अब तो यह ‘सुधरेगा’ और अच्छी शिक्षा अर्जित करेगा’ यह सु़कून मिल रहा था।

उसीके साथ, प्रथा के अनुसार, उपनयन होने के बाद वह यज्ञोपवीतधारी बटु, परिवार की किसी स्त्री के हाथों भिक्षा का स्वीकार कर अपनी छात्रदशा का आरंभ करें, ऐसी रीत थी। उसके अनुसार परिवार की एक स्त्री गदाई को भिक्षा प्रदान करने के लिए आगे आने ही वाली थी कि तभी….

….तभी एक समस्या खड़ी हुई….
….गदाई ने – ‘मैं पहली भिक्षा का स्वीकार धनी लुहारन के हाथों ही करूँगा’ ऐसी घोषणा की;
….और विवाद का आरंभ हुआ!

उसके जन्म के समय दाई का काम की हुई और जन्म के बाद अब तक की उसकी परवरिश में उसकी माँ के साथ अहम भूमिका निभायी हुई धनी लुहारन गदाधर के लिए माता के समान ही थी;

और पिछले साल जब घर में उसका उपनयन करने के बारे में चर्चा शुरू हुई थी और ‘उसे पहली भिक्षा कौन प्रदान करेगी’ यह मुद्दा उपस्थित हुआ था, उसी समय उसने – ‘मैं धनी से ही भिक्षा का स्वीकार करूँगा’ ऐसा घोषित किया था, लेकिन उस समय किसी ने उसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया था।

उसके परिवारवाले हालाँकि जातिपाती का कुछ ख़ास पालन नहीं करते थे, मग़र फिर भी उस ज़माने की, जातिपाती का कर्मठतापूर्वक पालन करनेवाली सामाजिक संरचना के अनुसार, गदाई को उसके परिवार की ही किसी स्त्री के हाथों भिक्षा का स्वीकार करना क्रमप्राप्त था।

इसलिए गदाई की इस घोषणा के बाद वहाँ पर बहुत ही शोरगुल शुरू हुआ। उस ज़माने में ऐसी कई प्रथाएँ, रूढ़ियाँ समाजमन पर कुछ इस तरह हावी थीं कि उन्हें तोड़ने का मतलब मानो प्रलय को ही निमंत्रित करना, ऐसी लोगों की प्रतिक्रिया होती थी। इस कारण इकट्ठा हुए लोग गदाधर को, उसके इस विपरित प्रतीत होनेवाले निर्णय से परावृत्त करने की जानतोड़ कोशिश करने लगे, लेकिन व्यर्थ….

गदाधर को यह जातिभेद करनेवाली समाजव्यवस्था उसी समय से मान्य नहीं थी, यह इससे स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। ‘ईश्वर ने ही यदि मानव का निर्माण किया है, तो फिर उनमें ‘उच्च-नीच’ इस तरह का भेदभाव कैसे कर सकते हैं’ यह जो तत्त्वज्ञान रामकृष्णजी ने आगे चलकर प्रतिपादित किया, उसकी नींव उनके बचपन में ही मज़बूती से तैय्यार हो चुकी थी।
लोग गदाई का मतपरिवर्तन करने की कोशिश करते थक गये, लेकिन गदाई के निर्णय में रत्तीभर भी बदलाव नहीं हुआ।

‘मैंने धनी को वचन दिया है और मैं मेरा वचन तोड़ूँ, यह संभव नहीं है’ यही बात वह उत्तर के तौर पर बोले जा रहा था।
‘पूर्वापार प्रचलित रूढ़ियों को तोड़ा कैसे जा सकता है’, ‘परंपरा, प्रथा तोड़नेवाले ऐसे वचन का भला कोई अर्थ है’, ‘रूढ़ी तोड़ने से पाप लगेगा’ ऐसे अनगिनत युक्तिवादों का गदाई पर कोई असर नहीं हो रहा था।

….आख़िरकार लोगों को गदाधर के वज्रनिश्‍चय के सामने गर्दन झुकानी ही पड़ी….
….उसे पहली भिक्षा धनी प्रदान करेगी, इसकी अनुमति लोगों को देनी ही पड़ी!
….धनी से पहली भिक्षा का स्वीकार करते समय गदाधर के मुख में उसके लिए ‘माँ’ यह संबोधन था….
….और धनी की आँखों में गदाई के लिए खुशी के आँसू!

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