परमहंस- ४

खुदिराम एवं चंद्रमणीदेवी को हुए उन दिव्य दृष्टांतों के बाद वे दोनों भी आगे घटित होनेवाली ‘उस’ दिव्य घटना की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे। उससे पहले के – रामकुमार, रामेश्वर एवं कात्यायनी इन तीन सन्तानों के बाद अब इस ईश्वरीय सन्तान का आगमन होनेवाला था।

इस प्रतीक्षा के दौर में, आम तौर पर ‘शुभशकुन’ मानी जानेवालीं कई घटनाएँ या दृष्टांत उन दोनों के भी जीवन में घटित हो रहे थे। ख़ास कर चंद्रमणीदेवी के चेहरे पर का तेज दिनबदिन वृद्धिंगत ही हुआ जा रहा था।

दिव्य घटना

पहले से ही मन से कोमल रहनेवालीं चंद्रमणीदेवी गाँव के अन्य गाँववालों की ओर मातृहृदय से ही देखती थीं। अतः घर के सभी सदस्यों द्वारा खाना खाये जाने से पहले वे खाना नहीं खाती थी। इतना ही नहीं, बल्कि खाना खाने से पहले वे आसपास के घरों में जाकर भी वे देखती थीं और यदि उन्हें कोई भूखा इन्सान मिला, तो उसे प्रेमपूर्वक घर बुलाकर, अपने हिस्से का खाना वे उसे दे देती थीं।

अब तो इस बार के मातृत्व के समय, उनमें रहनेवाली मातृभावना शिखर पर पहुँची थी। वे केवल गाँव के अन्य गाँववालों को ही नहीं, बल्कि देवताओं को भी मातृहृदय से ही देखती थी।

उस दौरान उन्हें कई देव-देवताओं के दर्शन-दृष्टान्त हुए होने की कथाएँ बतायीं जाती हैं।

ऐसे ही एक दिन वे दोपहर को अपने घर के बरामदे में बैठी हुई थीं, तब उन्हें एक दृष्टान्त हुआ। वे दिन कड़ी धूप के थे औैर धूर की लहरें बदन को जला रही थीं। चंद्रमणीदेवी को ऐसा दिखायी दिया कि उनके आँगन में एक बहुत ही शानदार हंस पर विराजमान होकर कोई देवता अवतरित हुए हैं। अर्थात् वे देवता यानी ब्रह्मदेव थे, लेकिन चंद्रमणीदेवी ने कुछ ख़ास धार्मिक पठन वगैरा न किया होने के कारण वे उन्हें पहचान न सकीं। लेकिन उन्होंने देखा की उन देवता का चेहरा बहुत ही लाल हो चुका था। चंद्रमणीदेवी को लगा कि कड़ी धूप के कारण उन देवता का चेहरा लाल लाल हो चुका है और उनके मातृहृदय में करुणा उत्पन्न हुई। उन्होंने उन देवता को घर में पधारने के लिए कहते हुए, उन्हें शीतलता महसूस हों इसलिए घर में उस समय रहनेवाला ठण्ड़ा दहीचावल खाकर, थोड़ासा विश्राम करने के बाद ही आगे निकलने के लिए कहा।

ब्रह्मदेव ने उनकी बात सुनी और उन्होंने मुस्कुराते हुए, उन्हें अनेकोत्तम आशीर्वाद देते हुए वे अदृश्य हो गये।

इस प्रकार के कई शुभ दृष्टान्त उन्हें होने लगे थे।

इसी में सन १८३५ ख़त्म होकर सन १८३६ शुरू हो गया। सन १८३६ की वसंत ऋतु शुरू हुई। सृष्टि नया रूप धारण करने लगी। धरतीमाँ ने हरा वस्त्र धारण किया। फूलों पर बहार विली, आम के पेड़ों पर मौर छा गया। चारों ओर से कोयल की कूक सुनायी देने लगी।

यह सारी सृष्टि ही मानो ‘उस’के स्वागत के लिए सिद्ध हुई है, ऐसा खुदिराम एवं चंद्रमणीदेवी को प्रतीत होने लगा।

बुधवार १६ फ़रवरी १८३६….
आज दिनभर चंद्रमणीदेवी को विशेष आनंद महसूस कर रही थीं….
मुख्य तौर पर, ‘उस’का आगमन अब किसी भी पल हो सकता है, ऐसा उन्हें लगने लगा था….
और हुआ भी वैसा ही….

रात को उनके पेट में दर्द होने लगा। पड़ोस की धनी लुहारन हररोज़ की तरह उनका साथ करते हुए सोयी थी। वह दाई के काम में भी माहिर थी, अत एव वह ही उनकी प्रसूति करनेवाली थी। उसकी अनुभवी नज़र ने ‘ये प्रसववेदना ही हैं’ यह झट से पहचान लिया।

उनकी झोपड़ी में चन्द तीन ही कमरे थे। उनमें से एक ‘रघुबीर’ की अर्थात् पूजापाठ का कमरा और बाक़ी दो कमरों में घर के लोग सोते थे। इसलिए उनकी प्रसूति आँगन में रहनेवाले, चावल झाड़ने के शेड़ में की जानेवाली थी। उसके अनुसार उन्हें वहाँ पर ले जाया गया।

कुछ समय बाद, यानी १७ फ़रवरी १८३६ के ब्राह्ममुहुर्त के समय उस तेजस्वी बालक ने जन्म लिया!

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