परमहंस-२

दौर लगभग उन्नीसवीं सदी के पूर्वाध का….

स्थल कामारपुकूर….कोलकाता की वायव्य दिशा में लगभग साठ किलोमीटर की दूरी पर, शहर की भीड़ का संसर्ग न रहनेवाला, हुगळी ज़िले में बसा एक छोटासा गाँव….छोटा यानी इतना छोटा कि मानो गाँव के एक कोने में कोई फुसफुसाया, तो गाँव के दूसरे कोने में सुनायी दें!

कामारपुकूर

चावल की खेती से, नारियल-सुपारी के पेड़ों से एवं हरीभरी झाड़ी से, साथ ही मवेशियों के गोठों से सजे हुए, नारियल के पेड़ के पत्तों से बनाये गये छत होनेवाले घर रहनेवाले, छोटे-मोटे तालाब रहनेवाले इस गाँव का जनजीवन बिलकुल शान्त – साधारण….कुछ ख़ास झगड़े न होनेवाला….विभिन्न जातिधर्मों के, विभिन्न प्रकार के व्यवसाय होनेवाले गाँववालें एकसाथ भाईचारे से रह रहा ऐसा वह गाँव।

ऐसा यह गाँव किसी को मालूम हों ऐसा कुछ ख़ास इस गाँव में नहीं था; और तबतक वह किसी को मालूम भी नहीं था….कम से कम ‘उस समय तक’ तो!

इसी गाँव में अन्य आम निवासियों की तरह ही ‘खुदिराम’ रहते थे – ‘खुदिराम चट्टोपाध्याय’, जिनके घर आगे चलकर ‘उस’ लोकोत्तर रत्न का जन्म होनेवाला था।

बिलकुल साधारण-सी परिस्थिति में रहनेवाले खुदिरामजी ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे थे। दरअसल खुदिराम कामारपुकूर से लगभग दो मील की दूरी पर रहनेवाले डेरे नामक गाँव के मूल निवासी थे। वहाँ तक़रीबन डेढ़सौ बिघा खेतज़मीन की व्यवस्था देखने का काम उनके पास था। खानेपीने की कोई चिन्ता नहीं थी। वहाँ पर पुरखों का बड़ा घर रहनेवाले खुदिरामजी, वैसे देखा जाये, तो गाँव के बड़े लोगों में थे, मग़र फिर भी प्रवृत्ति से बहुत ही धार्मिक एवं सत्त्वगुणी ही थे। रघुबीर और सीतलामाता ये उनके आराध्य थे और वे अपने रोज़मर्रा के दैनंदिन काम करते समय भी उनके अनुसंधान में निमग्न रहते थे। इतने कि कई बार उन्हें सीतलामाता प्रत्यक्ष सगुणरूप में उनके साथ विचरण करती नज़र आती थी, ऐसा कहा जाता है। भगवान के पूजन के लिए बग़ीचे से फूल लाते समय उन्हें सीतलामाता किसी नन्ही बच्ची के रूप में दिखायी देती थी, जो फुल चुनने में उनकी मदद करती थी। उनकी पत्नी – चंद्रमणीदेवी को भी इस प्रकार देवताओं के सगुणरूपों के कई बार दर्शन हुए होने के उल्लेख मिलते हैं। ऐसे उनके दिन अच्छी तरह गुज़र रहे थे, लेकिन….

….लेकिन सारे दिन ऐक जैसे नहीं होते!

एक बार उनके उस ज़मीनमालिक ने उन्हें स्थानीय कोर्ट में चल रहे एक विवाद में अपने पक्ष में झूठी गवाही देने के लिए कहा। लेकिन ‘ईश्वर को सत्य ही भाता है’ यह भली-भाँति ज्ञात रहनेवाले खुदिरामजी को झूठ बोलने की कल्पना भी कैसे सहन हों! उन्होंने झूठी गवाही देने से इन्कार कर दिया। ख़ौल उठे मालिक ने उन्हें – ‘तुम्हें नौकरी से निकालकर सड़क पर फेंक दूँगा’ ऐसी धमकी दी, मग़र फिर भी खुदिरामजी के निर्णय में कुछ भी फ़र्क़ नहीं हुआ। इसलिए ग़ुस्सा होकर मालिक ने खुदिरामजी पर झूठा मुक़दमा दायर कर, उनकी सारी ज़मीन, मक़ान, बग़ीचा आदि सारी जायदाद अपने कब्ज़े में कर ली और उन्हें नौकरी से निकाल दिया। केवल पहने हुए कपड़ें और कुछ गिनीचुनी जीवनावश्यक वस्तुएँ लेकर उन्हें गाँव से निकलना पड़ा। मग़र फिर भी उन्हें उसका ज़रासा भी ग़म नहीं था। ‘मेरे ईश्वर मेरा कदापि त्याग नहीं करेंगे’ इस बात पर उन्हें अटल भरोसा था।

….और हुआ भी वैसा ही! उनका ‘सुखलाल गोस्वामी’ नामक एक मित्र उनके गाँव से नज़दीक ही रहनेवाले ‘कामारपुकूर’ नामक एक गाँव में रहता था। उसे खुदिरामजी की यह हक़ीक़त ज्ञात हो गयी। तब अपने ‘मित्रता’धर्म का पालन कर वह खुदिरामजी को अपने गाँव ले आया और उन्हें रहने के लिए झोपड़ी, चरितार्थ के लिए एक बिघा ख़ेतीज़मीन आदि उपलब्ध करा दी। इसलिए खुदिरामजी के चरितार्थ का, जैसेतैसे ही सही, लेकिन प्रबन्ध हो गया। लेकिन खुदिरामजी शान्त ही थे और अपने पारिवारिक कर्तव्यों से दूर न भागते हुए भी ईश्वर के अनुसंधान में निमग्न रहते थे।

लेकिन परिस्थिति से साधारण रहनेवाले खुदिरामजी प्रवृत्ति से ‘ग़रीब’ नहीं थे। निरंतर ईश्वर के स्मरण में-नामस्मरण में दंग रहनेवाले खुदिरामजी ईश्वरकृपा की ‘अमिरी’ में नहा रहे थे। उनकी पत्नी चंद्रमणीदेवी भी उन्हीं के जैसी प्रवृत्ति से बहुत ही धार्मिक एवं सत्त्वगुणी थी।

निरंतर जारी रहनेवाले ईश्वर के अनुसंधान के कारण इस दंपति के मन की स्थितप्रज्ञता बढ़ रही थी। आज पैसे हैं, खाना मिला – अच्छा है; आज पैसे नहीं हैं, खाना नहीं मिला – कोई हर्ज़ नहीं, शायद आज मेरे रघुबीर अनशन करना चाहते होंगे!

ऐसी ‘ईश्वराधीन’ प्रवृत्ति के कारण इस दंपति को गाँव से बड़ा सम्मान प्राप्त हो रहा था।

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