डॉ. येल्लाप्रगदा सुब्बाराव (१८९५-१९४८)

स्वयं के लिए प्रयत्नशील रहना यह हर प्राणि का स्थायीभाव है। परंतु कुछ उदारमतवादी मानव हमें समाजकल्याण के लिए अथक परिश्रम करने में ही अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। कोई भी रोग यह मानव का शत्रु ही है और उसका पूर्ण रूप से नामोनिशान मिटा देने के लिए संशोधक उपाय ढूँढ़कर निकालते ही हैं। इसी उपाय के कारण ही आज तक मानवीय जीवन सुसहनीय  बन गया  है। मानवतावादी दृष्टिकोण और संशोधन की सातत्यता इन दोनों का समन्वय करनेवाले ऋषितुल्य व्यक्तिमत्व हैं डॉ. येल्लाप्रगदा सुब्बाराव। भारत में जन्में सुब्बाराव की कर्मभूमि अमेरिका रही। किंतु संशोधन करते समय ‘मेरी जन्मभूमि को मेरे इस संशोधन का लाभ होगा क्या’ यही विचार वे हमेशा करते रहते थे।

Yellapragada_subbarao - डॉ. सुब्बाराव

डॉ. सुब्बाराव का जन्म सन् १८९५ में दक्षिण भारत के एक गरीब परिवार में हुआ। सुब्बाराव के भाई ‘स्प्रू’ (tropical sprue) नाम के रोग से बीमार थे। असहायता और बिना इलाज के कारण उन्हें मृत्यु के स्वाधीन होते हुए देखने के अलावा सुब्बाराव के गरीब परिवार के लोग कुछ नहीं कर सकते थे। भाई की मृत्यु ने सुब्बाराव के मन पर गहरा प्रभाव डाला। इसी मृत्यु ने उनके जीवन को ध्येय और प्रेरणा दी।

‘स्प्रू’ इस रोग से मानव जाति को बचाने की तड़प उनकी शिक्षा और संशोधन की नींव बन गयी। सुब्बाराव ने आर्थिक सहायता लेकर वैद्यकीय अध्ययन पूरा किया। डॉ. स्ट्रँग की मुलाकात से सुब्बाराव की जिज्ञासा को बढ़ावा मिला। डॉ. स्ट्रँग का उष्णकटिबंधीय प्रदेशों के रोगों का अध्ययन चल रहा था। सुब्बाराव की लगन देखकर डॉ. स्ट्रँग ने उन्हें अमेरिका में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आने का निमंत्रण दिया।

डॉ. सुब्बाराव जब अमेरिका गए, तब उनके पास स़िर्फ २५ डॉलर्स की ही पूँजी थी। किंतु आर्थिक समस्या होते हुए भी वे बिलकुल भी नहीं डगमगाये और उन्होंने हॉवर्ड विद्यापीठ में अ‍ॅडमिशन लिया। हॉवर्ड में पढ़ने के लिए लगनेवाले पैसों के लिए उन्होंने बेकरी साफ करने का, संदेश पहुँचाने का, अस्पताल में सेवा करने का और वैद्यकीय संशोधन के लिए लगनेवाले प्राणियोंको गाँव से इकठ्ठा करके लाकर देने का काम भी किया। एक वर्ष के अंदर ही उन्होंने हावर्ड संशोधन फेलोशिप, रॉकफेलर फाऊंडेशन की दूसरी फेलोशिप प्राप्त की, जिससे उनके लिए आगे का संशोधन करना आसान हो गया।

रोगनिदान, चिकित्सा इन ज्ञान की अपेक्षा रोगों के उपचार के लिए जीव-रसायन शास्त्र (बायोकेमेस्ट्री) का अभ्यास करना आवश्यक था। उनके पास इस विषय की पदवी न होने कारण शुरुआत में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। उन्होंने बहुत कम समय में ही सारी मुसीबतों को मात देकर ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसॉफिस्ट इन बायोकेमेस्ट्री’ यह पदवी हासिल की। सन् १९२७ वर्ष में स्नायुओं के आकुंचन के बारे में उनके दो निबन्धों को वरिष्ठों के द्वारा मान्यता प्रदान की गयी। इसी के परिणामस्वरूप उन्होंने फॉस्फोक्रेटिन द्रव्य का शोध किया। १९३५-३८ इन वर्षों में डॉ.सुब्बाराव और उनके सहयोगियोंने मिलकर कुल ग्यारह निबंध प्रसिद्ध किए। निकोटिनिक अम्ल पर किया गया उनका संशोधन मौलिक था। ‘पेलाग्रा’  नामक रोग पर इस औषध का उपयोग किया गया।

हॉवर्ड विद्यापीठ में वे सन् १९४० में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हुए डॉ. सुब्बाराव ने अपना मान-सम्मान बाजु में रखकर लेडर्ले प्रयोगशाला में संधोधन का कार्य स्वीकार किया। शरीर के लाल रक्त कणों की क्रिया धीमी हो जाने पर मनुष्य की आरोग्य संपन्नता कम हो जाती है। उस पर का उपाय रहनेवाले फॉलिक अ‍ॅसिड इस औषधि की उपयोगिता उन्हें मालूम थी किंतु भारत जैसे विकसनशील देश में उस समय की पद्धति के अनुसार फॉलिक एसिड तैयार करना बिलकुल भी मुमकीन नहीं था। डॉ. सुब्बाराव ने यही फॉलिक एसिड कृत्रिम पद्धति से बनाने की शुरुआत की। इस अलौकिक खोज के कारण वैद्यकीय क्षेत्र में विलक्षण क्रांति हुई।

प्रशांत महासागर में लड़नेवाले सैनिकों को मलेरिया, फिलॅरिअ‍ॅसिस जैसे रोगों का सामना करना पड़ता था। डॉ.सुब्बाराव ने उस पर हेट्राझन नामक औषधि विकसित करने में सफलता हासिल की।

फ्लेमिंग द्वारा खोज़ की गई ‘पेनिसिलीन’ और वॉक्समन के खोज़ किए ‘स्ट्रेप्टोमायसिन’ जैसे औषधि की उपयोगिता मर्यादित थी। इसी कारण एक ही समय में अनेक रोगों के लिए उपयुक्त औषधि द्रव्य की खोज़ करना आवश्यक था। डॉ. सुब्बाराव ने इस आव्हान का स्वीकार किया और गुणकारी प्रभावी जंतुनाशक ‘ओरिओमायसिन’ का निर्माण किया। डॉ. सुब्बाराव के कोष में ‘असंभव’ यह शब्द लिखा ही नहीं था। कभी ‘अ‍ॅपलपाय’ बनाने से लेकर हवाई जहाज चलाना, बागकाम में ध्यान देकर ‘ऑर्किड’ फूल को उगाने का भी प्रयत्न किया। किसी भी चुनौती का स्वीकार करके अपनी कृती से अपना कार्य पूरा करके डॉ. सुब्बाराव उसमें यशस्वी होते ही थे।

बिना किसी स्वार्थ के मानव-कल्याण के कार्य में मग्न रहते हुए ५३   वर्ष की उम्र में ९ अगस्त सन् १९४८  को दिमाग की रक्तवाहिनी के हुए अवरोध के कारण अचानक उनकी मृत्यु हो गई।

अमेरिकन प्रसारमाध्यम ने ‘शतक के अनोखे एवं अलौकिक वैद्यकीय व्यक्तित्व’ इन इन शब्दों के इस महान संशोधक को श्रद्धांजलि दी। आज अमेरिका में संगणक और वैद्यकीय संशोधन के क्षेत्र में लाखों भारतीय अपना नाम उज़ागर किया है, इन संशोधकों को अमेरिका के साथ-साथ भारत में भी प्रसिद्धि और मान-सम्मान मिला है। अमेरिका ने भी अपनी प्रगति में भारत का बहुत बड़ा योगदान है, ऐसा मान्य किया है। किंतु इस योगदान की शुरुआत लगभग सात-आठ दशक पहले ही डॉ. सुब्बाराव इनके जैसे महान व्यक्तिमत्व ने की थी। यह हम भूल नहीं सकते। भारतीयों को पश्चिमी देशों में मिलनेवाले मान-सम्मान में बहुत बड़ा हाथ डॉ. सुब्बाराव जैसे विविध क्षेत्रों में नाम बढ़ानेवाले महानुभवों के कारण ही है। इसीलिए इनका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण हम सभी को करना ही चाहिए।

 

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