विख्यात भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य (१११४ – ११८५)

ज्योतिष विद्या का गहराई तक ज्ञान एवं गणित पर होनेवाला अधिकार इन दोनों का साथ होने के बावजूद भी वे अपनी बेटी के अकाल वैधव्य को रोक नहीं पाये। अपने मायके वापस लौट आनेवाली उनकी बेटी अपने दु:ख को कैसे भूल पायेगी, उसके दुख को भुलाने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए, इसी बात का विचार लगातार उनके मन में चलता रहता था।

Bhaskaracharyaअपने पास होनेवाले ज्ञान का उपयोग करके वे उसका दु:ख कम कर सकेंगे, यही सोचकर उन्होंने अपने बेटी को गणित पढ़ाना शुरु कर दिया। बेटी को गणित सीखने में आसानी हो इसीलिए उन्होंने विविध प्रकार की रचनाओं का आधार लिया। आगे चलकर इन्हीं रचनाओं का रूपांतर गणित के एक महान ग्रंथ के रूप में हुआ। अपनी बेटी को गणित सिखानेवाले ये विद्वान ही अद्वितीय भारतीय गणितज्ञ ‘भास्कराचार्य’ थे। अपनी बेटी को गणित सिखाते समय की गई रचनाओं से आगे चलकर सिद्ध होनेवाला ग्रंथ अर्थात् भारतीय गणित का मूलमंत्र माना जानेवाला ‘लीलावती’। अपनी बेटी को अर्पण किये गये ग्रंथ को भास्कराचार्य ने नाम भी अपनी बेटी का ही दिया था।

श्रेष्ठ भारतीय गणितज्ञ एवं ज्योतिर्विद के रूप में जाने पहचाने जानेवाले भास्कराचार्य का जन्म कर्नाटक के विज्जलविड नामक गाँव में हुआ था। भास्कराचार्य की प्राथमिक शिक्षा उनके पिता महेश्‍वर के मार्गदर्शन के अन्तर्गत हुई थी। उस समय भारत के गणितीय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र माने जानेवाले उज्जैन के खगोलशास्त्रीय मानमंदिर स्कूल के प्रमुख पद पर उनकी नियुक्ती हुई।

उम्र के छत्तीसवे वर्ष ही भास्कराचार्य ने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ नामक ग्रंथ की रचना की। सिद्धांतशिरोमणि नामक इस ग्रंथ का लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणिताध्याय एवं गोलाध्याय ये चार खंड हैं। उनमें से लीलावती एवं बीजगणित नामक ये दोनों ही प्रथम खंडों को स्वतंत्र ग्रंथ समान ही माना जाता है। लीलावती में महत्त्वमापन (क्षेत्रफल, घनफल) एवं अंकगणित पर २७८  श्‍लोकों के साथ उनका स्पष्टीकरण गद्य में किया गया है। संख्याओं की संज्ञा, व्याज, गणितीय श्रेणी, प्रतलीय एवं घनभूमिति कुट्टकगणित और इसके परिणामस्वरूप इससे संबंधित कोष्टक दिए गए हैं। साधारण तौर पर तेरह प्रकरणों में इस ग्रंथ को विभाजित किया गया है। अबुल फैजी ने १५८७ में इस ग्रंथ का फ्रेंच (फ़्रांसीसी) भाषा में अनुवाद किया। अनेक शताब्दियों से इस ग्रंथ का उपयोग पाठ्यपुस्तक के रूप में किया गया। बीजगणित नामक इस ग्रंथ में २१३  श्‍लोकों के साथ-साथ इसमें आधुनिक बीजगणित के ही समान अज्ञात संख्या दर्शाने के लिए अक्षरों का उपयोग किया गया था। इसमें धन एवं ऋण संख्याओं का गणित, एकवर्ण एवं अनेकवर्ण का विधान एवं विवेचन हैं। इसमें प्रस्तुत किए गए अनिश्‍चित विधानों (समीकरण) को हल करने की पद्धति आज भी पाश्‍चात्य गणितज्ञों की अपेक्षा सरस होने का दावा किया जाता है।

गणित के अनंत इस संकल्पना का सबसे पहला संदर्भ ‘बीजगणित’ इस खंड में दिखायी पड़ता है। शून्य लगाकर किसी संख्या को भाग किया जाए तो उत्तर अनंत आता है, इस विषय का अहसास भास्कराचार्य को था, ऐसा जान पड़ता है। क्योंकि ३ को ० से भागा जाए तो इसका मूल्य अनंत राशि है। इस बात का स्पष्ट उल्लेख उन्होंने एक स्थान पर किया है। अताउल्ला रसीदी ने १६३४ में शाहजहाँ के राज्यकाल में इस ग्रंथ का फारसी भाषा में रूपांतर किया है। अनिश्‍चित विधानों को हल करने का तरीका भास्कराचार्यजी का पाश्‍चात्य तरीके से कहीं अधिक अच्छा है, ऐसी ९  गणितज्ञों की राय है। ‘चक्रवाकाख्य’ नामक वर्गपद्धति की खोज़ उन्होंने दिए गए विधानों के उत्तरों को ढूँढ़ने के लिए ही ढूँढ़ निकाला था। ‘पेल’ नामक अंग्रेज़ गणितज्ञ ने १७ वी सदी में इस पद्धति का उल्लेख किया था। परन्तु इससे पहले ११५० में ही भास्कराचार्य ने इस गूढ़ प्रश्‍न का व्यापक उत्तर ढूँढ़ निकाला था। इस विधान को ब्रह्मगुप्त भास्कराचार्य सूत्र कहते हैं।

‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ के ‘ग्रहगणिताध्याय’, ‘गोलाध्याय’ नामक इस खंड में खगोल शास्त्र एवं पंचांग से संबंधित जानकारी प्राप्त होती है। उसी तरह घनभूमिति, त्रिकोणमिति आदि का विवेचन प्राप्त होता है। ‘दशमान’ संख्या पद्धति का उन्होंने उपयोग किया था। ‘भास्करव्यवहार’ नामक मुहूर्त ग्रंथ एवं ‘भास्करविवाह पटल’ यह छोटा ग्रंथ उन्होंने लिखा था। उसी प्रकार ‘बीजोपनय’ यह ५९ श्‍लोकों का ग्रंथ भी उन्होंने ही लिखा है, ऐसी जानकारी प्राप्त होती है। उनके ग्रंथों का मराठी, अंग्रेज़ी, गुजराती, पारसी, कन्नड, तमिल भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

वर्तुलाकार की परिधि और व्यास इनके गुणोत्तरों का मूल्य मापनों से ७५४/२४० अर्थात ३.१४१६६६ इस प्रकार से उन्होंने निकाला था। इसी गुणोत्तर को आज ‘पाय’ इस प्रकार का नाम दिया गया है और उसका मूल्य ३.१४१५९….. है। भास्कराचार्य के द्वारा ११७३ में रचे गये ‘करणकौतुहल’ नामक इस ग्रंथ में खगोलशास्त्र से संबंधित समस्याओं को हल करने की आसान पद्धति दी गई है। इसकी सहायता से संपूर्ण पंचाग तैयार किया जा सकता है।

पृथ्वी की गोलाई को उन्होंने विशद किया था। पृथ्वी के चहूँ ओर १२ योजन मोटाई का प्रकांड वातावरण है, ऐसा उन्होंने अपनी रचनाओं में दर्ज़ किया है। पृथ्वी के अक्षीय एवं कक्षीय भ्रमणों का उन्हें अंदाजा था। ग्रहण के समय चंद्र एवं सूर्य को राहू-केतु निगला नहीं करते, बल्कि चंद्रमा पृथ्वी की छाया में चले जाने के कारण चंद्रग्रहण लगता है। चंद्रमा स्वयंप्रकाशित नहीं है इस बात को वे भली भाँति जानते थे। पृथ्वी में स्वयं की आकर्षण-शक्ति है, ऐसा भी उन्होंने प्रतिपादित किया था।

भास्कराचार्यजी के गणित एवं खगोलशास्त्रीय ज्ञान को काल से भी आगे बढ़कर माना जाता है। मूलत: भास्कराचार्यजी कविवृत्ति के होने के कारण उन्होंने अपने पास होनेवाला बहुतांश ज्ञान काव्यमय रचनाओं के स्वरूप में प्रस्तुत किया। उनका हल करने में अथवा उन्हें समझने में वे कुछ क़ठिन ज़रूर लगते थे। यही कारण था कि उस समय के तात्कालिक विद्वानों ने उस ओर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। और भी एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस काल में भारत में विज्ञान एवं संशोधन के लिए कुछ विशेष पोषक वातावरण नहीं था। भारत में आनेवाले विदेशी विशेषज्ञोंने भास्कराचार्य के ग्रंथों का अनुवाद करके वे उनके इस ज्ञान को परदेशों में उठाकर ले गए और उस पर आधारित सिद्धांत भी प्रस्तुत किये। वहीं, भारतीय उनकी महिमा न समझ सके।

लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक पराधीन बनकर रहनेवाले भारतीयों को तो कुछ काल तक तो यही भ्रम रहा कि विदेशी ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। और वे भी उन्हीं का गुणगान करने लगे थे। परन्तु इसमें भी कुछ संशोधनकर्ताओं ने प्राचीन भारतीय विद्वानों के श्रेष्ठत्व को कूटकूटकर दुनिया भर के सामने प्रस्तुत किया। और भारतवासियों को भी इस बात का अहसास करवाया।

स्वतंत्रता के पश्‍चात् भारतीय अंतरिक्ष संशोधन संस्था ने (इस्त्रो) दो उपग्रहों को १९७८ एवं १९८१ में अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया था। खगोलशास्त्र के प्रति होनेवाले भास्करचार्यजी के योगदान को ध्यान में रखकर इन उपग्रहों का ‘भास्कर-१’ एवं ‘भास्कर-२ ’ इस प्रकार से नामकरण किया गया। आज के युग में अत्याधुनिक उपग्रह, खगोलशास्त्र पर आधारित दूरबिनों एवं कम्प्यूटरों की सहायता से जानकारी सहज रूप से प्राप्त की जा सकती है, मगर लगभग आ़ठ से नौ सदियों पूर्व ही एक भारतीय विद्वान ने अपने अनुभव, निरीक्षण एवं तर्क के आधार पर खगोलशास्त्र के ज्ञान की नींव रख दी थी।

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