लेह-लद्दाख़ (भाग-४ )

मीलों तक फैला  हुआ प्रदेश, जहाँ हरियाली का नामोंनिशान तक नहीं है, लेकिन बर्फ है, ऐसे कईं छोटे-मोटे पर्वत और उनके आस-पास का रेगिस्तान। ऐसा है यह लेह-लद्दाख़ का प्रदेश। ऐसे इस प्रदेश में जहाँ हरियाली बहुत ही कम दिखाई देती है, वहाँ आकर मनुष्य भला कैसे बस गया, यह एक सवाल मन में उठता है। आज कईं सदियों से मनुष्यसमाज यहाँ पर अपना डेरा जमाए हुए है।

Ladakh-लेह-लद्दाख़

यहाँ पर बसे हुए लोगों ने फिर  यहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बनाते हुए यहाँ  की उपलब्ध सामग्री के आधार पर अपने जीवन-यापन का प्रबन्ध कर लिया। इस तरह उन्होंने अपने जीवन-यापन का प्रबन्ध तो कर लिया और उनकी रो़जमर्रा की जिंदगी में कुछ घड़ियों के लिए विश्राम, मनोरंजन का प्रबन्ध उन्होंने कर लिया, विभिन्न त्योहारों-उत्सवों की सहायता से।

लेह-लद्दाख़ प्रदेश पर मूलतः बौद्ध धर्म का प्रभाव रहा है। बौद्ध धर्म के प्रार्थना-मन्दिर, जिन्हें गोम्पा या मॉनेस्टरी के नाम से जाना जाता है, उनका इस प्रदेश के लोगों के जीवन में एक अनन्यसाधारण स्थान है। यहाँ मनाए जानेवाले विभिन्न उत्सवों का मुख्य स्थान यहाँ के विभिन्न गोम्पा होते हैं अर्थात् इन गोम्पाओं के द्वारा इन उत्सवों का आयोजन किया जाता है और लोग उत्सव मनाने के लिए गोम्पा में जाते हैं।

संक्षेप में कहें, तो गोम्पा का अर्थ है, बौद्ध पुरुष-स्त्री संन्यासियों का मठ, जहाँ ये संन्यासी रहते हैं। साथ ही इन गोम्पाओं में वे अध्ययन एवं ध्यान-धारणा आदि करते हैं। महाराष्ट्र में अजंठा नामक स्थान पर ऐसे कुछ मठ हैं, जिन्हें ‘विहार’ कहाँ जाता है। लेकिन इनका अस्तित्व आज केवल एक पर्यटनस्थल के रूप में हैं, यहाँ पर उपरोक्त उल्लेख के अनुसार, संन्यासियों का निवास, अध्ययन आदि बातें नहीं होती। मग़र लेह-लद्दाख़ के गोम्पाओं में आज भी संन्यासियों की निवास, उनका अध्ययन, ध्यान-धारणा आदि बातें होती हैं।

लेह-लद्दाख़ के कईं गोम्पाओं में से ‘हेमिस गोम्पा’ काफी मशहूर है। लेह से साधारणत: ४०  कि.मी. की दूरी पर हेमिस नाम का गाँव है। ऊपर उल्लेखित ‘हेमिस गोम्पा’ लेह से ४५  कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस हेमिस गाँव में एक नॅशनल पार्क है। वहाँ बर्फीले प्रदेश का चीता पाया जाता है। इसवी १९८१  में इस नॅशनल पार्क की स्थापना हुई। यह भारत का सिर्फ सबसे अधिक ऊँचाई पर बसा हुआ नॅशनल पार्क ही नहीं है, बल्कि सबसे ऊँचाई पर बसा हुआ एकमात्र उद्यान भी है। ऐसे इस गाँव में १७  वी सदी में लद्दाख़ के सेंगे नामग्याल राजा ने ‘हेमिस गोम्पा’ का निर्माण किया। १७  वी सदी का उत्तरार्ध और १८ वी सदी का पूर्वार्ध यह इस गोम्पा के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस काल के दौरान यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण वास्तुओं का निर्माण किया गया।

हर वर्ष इस हेमिस गोम्पा में हेमिस फेस्टिवल  का आयोजन किया जाता है। यह गोम्पा मशहूर होने के कारण यहाँ मनाया जानेवाला उत्सव (फेस्टिवल ) भी उतना ही मशहूर है। इस फेस्टिवल  के लिए केवल लद्दाख़ से ही नहीं, बल्कि अन्य स्थानों से भी पर्यटक यहाँ पर आते हैं। ९ जून से लेकर ११ जून तक इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस उत्सव के उपलक्ष्य में लद्दाख़ के लोग अपनी पारंपारिक पोषाकें पहनकर इसमें सम्मीलित होते हैं। लेह-लद्दाख़ के लगभग हर एक उत्सव में नृत्य का एक विशेष स्थान रहता है। इस नृत्य की विशेषता यह होती है कि नृत्य करनेवाले लोग विभिन्न मुखौटें धारण कर नृत्य करते हैं और नृत्य के लिए पारंपारिक वाद्यों के द्वारा संगीत दिया जाता है। नृत्य में उपयोग में लाये जानेवाले इन विभिन्न मुखौटों के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण है और वह है, बुरी और दुष्ट शक्तियों को भगाना, साथ ही वाद्यों के विभिन्न आवा़ज भी बुरी और दुष्ट शक्तियों को भगा देते हैं, ऐसी लेह-लद्दाख़ में परंपरागत मान्यता है।

इन गोम्पाओं में एक और वैशिष्ट्यपूर्ण ची़ज को जतन किया जाता है, जिसे ‘थंका’ कहते हैं। थंका यह सिल्क या अन्य कॉटन आदि से बना वस्त्र रहता है, जिसपर बौद्ध धर्म की शिक्षा या बुद्ध चरित्र के प्रसंगों को चित्रित किया जाता है। आवश्यकता के अनुसार इन्हें बन्द करके सुरक्षित रखा जाता है या उपयोग में लाया जाता है। लेह-लद्दाख़ की कईं गोम्पाओं में ऐसे अनेक थंका हैं। मानों जैसे कि ये थंका वस्त्रों पर चित्रित या लिखित लायब्ररी ही है। ऐसे कईं थंकाओं को गोम्पाओं में सुरक्षित रूप से जतन करके रखा गया है। गोम्पाओं द्वारा आयोजित उत्सवों के दरमियान कईं गोम्पाओं में पुराने और मशहूर (मशहूर व्यक्तियों के बारे में या उनके द्वारा बनाये गये) थंकाओं को बाहर निकालकर रखा जाता है ताकि लोग उन्हें देख सकें।

लेह-लद्दाख़ के इस दुर्गम और प्रतिकूल मौसमवाले प्रदेश में कईं स्थान आज भी आधुनिकता से मीलों की दूरी पर हैं, वहाँ के लोग आज भी उनके पुरखों द्वारा शुरू किये गए उत्सवों में शामिल होकर अपना दिल तो बहलाते हैं ही, साथ ही आज भी उन्होंने उनकी परम्परा और संस्कृति को जीवित रखा है।

हम पहले ही देख चुके हैं कि सिन्धु नदी लद्दाख़ से होकर बहती है। इसी सिन्धु नदी के आधार पर हमारे देश की संस्कृति विकसित हुई। इसी कारण हर एक भारतीय के मन में कहीं न कहीं तो इस नदी के प्रति आत्मीयता की भावना रहती है। सिन्धु नदी के प्रति रहनेवाले इसी आदरभाव को प्रकट करने के लिए हर वर्ष लेह में ‘सिन्धुदर्शन फेस्टिवल ’ का आयोजन किया जाता है। इसवी १९९७  में सर्वप्रथम इस फेस्टिवल  का आयोजन किया गया। फिलहाल हर वर्ष १ जून से लेकर ३ जून तक इसका आयोजन किया जाता है।

इस उत्सव के दौरान लोग सिन्धु नदी के किनारे पर जाते हैं, यह स्थान लेह से ऩजदीक है। वहाँ जाकर लोग सिन्धु नदी का दर्शन करके उसका पूजन करते हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों से लोग इस उत्सव के लिए लेह जाते हैं और सिन्धु नदी के प्रति अपने आदरभाव को व्यक्त करते हैं। यह उत्सव मानों जैसे भारतीयों की विविधता में होनेवाली एकता का ही प्रतीक है।

लद्दाख़ की संस्कृति से यदि आप परिचित होना चाहते हैं, तो उसके लिए हर वर्ष ‘लद्दाख़ फेस्टिवल ’ का आयोजन किया जाता है। हर वर्ष १ से १५  सितम्बर, इन पन्द्रह दिनों में इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। लेह शहर और आसपास के गाँवों में इसका आयोजन किया जाता है। इस उत्सव के दरमियान लद्दाख़ की संस्कृति का बहुत क़रीब से दर्शन होता है। इस फेस्टिवल  के द्वारा लद्दाख़ की पारंपारिक पोषाकें, पारंपारिक गीत, नृत्य और मुख्यतः मुखौटे पहनकर किये जानेवाले नृत्य (मास्क डान्स) का दर्शन होता है। साथ ही पोलो और तिरन्दा़जी का भी इसमें समावेश होता है। इस उत्सव की विशेषता यह है कि इसके दरमियान लोग सामूहिक रूप से इकट्ठा होते हैं। उत्सव के दौरान गायन, खेल आदि को पेश करनेवाले लोग इकट्ठा होते हैं; इतना ही नहीं, तो भारत के विभिन्न प्रान्तों के कईं लोग भी इस उत्सव को देखने के लिए सामूहिक रूप से इकट्ठा होते हैं। अर्थात् इस उत्सव में विभिन्न कलाओं को पेश करनेवाले लोगों का जिस तरह एक समुदाय होता है, उसी तरह प्रेक्षकों का भी एक समुदाय होता है।

जोरावरसिंग ने लद्दाख़ पर किए हुए आक्रमण के बाद लेह के राजा को लेह छोड़कर ‘स्तोक’ नामक स्थान पर विस्थापित होना पड़ा। इस ‘स्तोक’ नामक स्थान पर आज भी राजपरिवार के वंशजों का वास्तव्य है। स्तोक लेह से लगभग १४ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। ‘त्सेपाल नामग्याल’ नामक लद्दाख़ के राजा ने यहाँ पर इसवी १८२५ में राजमहल और म्युझियम का निर्माण किया। आज इस राजमहल में पुराने जमाने के राजाओं की पोषाकें, उनके मुकुट और पुराने जमाने के थंका हम देख सकते हैं। वहीं यहाँ के म्युझियम में पुराने समय के शस्त्रास्त्र, पुराने जमाने के थंका पेंटिंग्ज, गहने आदि देखने को मिलते हैं।

यहाँ का गोम्पा ‘स्तोक गोम्पा’ नाम से जाना जाता है। इस गोम्पा में भी उत्सव का आयोजन किया जाता है।

लेह-लद्दाख़ में अधिकांश गोम्पा ऊँचाई पर बसे हुए हैं, लेकिन ‘अल्वी गोम्पा’ यह नदी के किनारे बसा हुआ है। समतल भूमि पर बसा हुआ यह एकमात्र गोम्पाधहै। अल्वी गोम्पा का विस्तार अन्य गोम्पाओं की तुलना में अधिक है। यह लेह से ६९  कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इसके निर्माण में लकड़ी पर की गयी ऩक्काशी और अन्य शिल्पकाम कश्मीरी कारीगरों द्वारा ११ वी सदी के आसपास किया गया, ऐसा माना जाता है। इसी कारण इस गोम्पा की रचना पर कश्मीरी शिल्पकला का असर दिखाई देता है।

शायद आप सोच रहे होंगे कि लेह-लद्दाख़ का मौसम मनुष्यों के लिए ही इतना प्रतिकूल है, तो यहाँ पंछी-प्राणि आदि भला हैं भी या नहीं?

अब तक लद्दाख़ प्रान्त में पंछियों की २२५  प्रजातियाँ पायी गयी, ऐसा द़र्ज किया गया है। यहाँ के अधिकतर पंछी मध्य एशिया ओर तिब्बत स्थित पंछियों से समानता रखते हैं, अपवाद है केवल स्थानान्तरण करनेवाले पंछियों का। भारत के उष्ण प्रदेशों से कुछ पंछी गर्मियों में लद्दाख़ आते हैं और उनके आवासस्थानों की गर्मी भाग जाते ही वापस लोटते हैं।

याक यह लद्दाख़ का महत्त्वपूर्ण प्राणि है, यह हम पहले ही देख चुके हैं। इसके साथ ही उरील और भारल नामक विशिष्ट भेड़ भी यहाँ पाये जाते हैं।

लेह-लद्दाख़ का यह स़ङ्गर अभी ख़त्म नहीं हुआ है, लेह-लद्दाख़ के कुछ वैशिष्ट्यपूर्ण गोम्पा और अन्य कुछ बातों को हम अगले भाग में देखेंगे॥

One Response to "लेह-लद्दाख़ (भाग-४ )"

  1. onkar wadekar   August 7, 2016 at 3:35 pm

    किस तरह यहाँ मनुष्योंने अपना जीवन स्थिर किया होगा और साथही साथ किस तरहसे अपने जीवन को निहारा होगा यह सब बहूतही खूबसूरतीसे इस संकेत स्थल पर मैंने पाया।

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