नेताजी-३३

गुरुदेव रवीन्द्रनाथजी टागोर के सान्निध्य में बोट के सफर  के वे पच्चीस-तीस दिन का समय कैसे बीत गया, इसका सुभाष को पता ही नहीं चला। उन प्रतिभावान महापुरुष की प्रज्ञा से प्रकाशित हुए ज्ञानकणों का सुभाष उत्कटतापूर्वक संग्रह कर रहा था। बोट पर अचानक प्राप्त हुए गुरुदेवजी के वैचारिक सान्निध्य के कारण उसकी मनोभूमिका अब और भी समृद्ध बन चुकी थी। गुरुदेव ने उसे भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की तत्कालीन परिस्थिति से भी अवगत कराया।

Mahatma-Gandhijiसुभाष जब भारत लौटने निकला, तब लोकमान्यजी के निर्वाण के बाद भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की अगुआई गाँधीजी कर रहे थे। टिळकजी के निधन के दिन यानि कि १ अगस्त १९२०  को गाँधीजी ने असहकार का आन्दोलन घोषित किया था, जिसका अब एक वर्ष पूरा होने आया था। आन्दोलन का प्रारंभ करते हुए एक वर्ष में आ़जादी मिलेगी, यह भरोसा गाँधीजी ने जताया था। लेकिन तब तक उनके द्वारा पूरी योजना जाहिर न किये जाने के कारण उनकी अगली नीति क्या होगी अथवा यह मुमक़िन कैसे होगा, इसका अनुमान करना मुश्किल था। अर्थात् यह असहकार आन्दोलन गाँधीजी के अँग्रे़जों के प्रति अपनाये गये रवैये में एक बहुत बड़ा परिवर्तन था। तब तक यानि कि रौलेट अ‍ॅक्ट पास होने तक गाँधीजी का अँग्रे़जों की ‘शराफत’ पर भरोसा था और इसीलिए गाँधीजी ने पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान इंग्लैंड़ की सहायता के रूप में टिळकजी के कँधे से कँधा मिलाकर भारत में चल रही फ़ौजभर्ती  की मुहिम में साथ दिया था। यह भरोसा इतना था कि भारत द्वारा इंग्लैंड़ को फ़ौजभर्ती  की यह सहायता – ‘युद्ध के ख़त्म हो जाने के बाद भारत को स्वतन्त्रता प्रदान करने की शर्त पर’ दी जाये, ऐसी राय जब टिळकजी ने जाहिर की, तब टिळकजी के साथ वे सहमत नहीं थे। उस समय उनकी राय में, मुश्किल के दौर से गु़जर रहे इंग्लैंड़ की मजबूरी का फायदा  न उठाते हुए उसकी बिनाशर्त सहायता करनी चाहिए थी। लेकिन उसके बाद आये रौलेट अ‍ॅक्ट के कारण सारे समीकरण ही बदल गये। गाँधीजी को भी अँग्रे़जों का असली साम्राज्यवादी कुटिल चेहरा अवगत हुआ और उन्होंने भारतीय जनता से असहकार आन्दोलन छेड़ने की गु़जारिश की।

कालेकलूटे ‘रौलेट अ‍ॅक्ट’ के विरोध में छेड़े गये इस असहकार के आन्दोलन में प्रस्थापित अन्याय्य एवं ज़ुल्मी यन्त्रणा के साथ असहमती जाहिर करना यानि कि ‘मैं इस ज़ुल्मी क़ानून को नहीं मानता और इसीलिए मैं इसका पालन नहीं करूँगा’ यह जाहिर करके उसके अनुसार आचरण करना, यह इसकी प्रमुख संकल्पना थी। इस वजह से कई लोगों ने गाँधीजी के असहकार आन्दोलन को ‘ना की रट’ कहकर नारा़जगी जाहिर करते हुए यह कहा था कि असहकार यानि अँग्रे़जों की बात न मानकर कुछ न करना, यह तो ठीक है, लेकिन फिर  करना क्या है?

लेकिन इसी ‘निःशस्त्र शस्त्र’ का उपयोग करके गाँधीजी ने अफ्रीका में वर्णद्वेषविरोधी आन्दोलन को क़ामयाब बनाया था, इस सच को ऩजरअन्दा़ज करना भी मुनासिब नहीं था। अब इस शस्त्र का भारत की अन्यायी एवं ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत के खिलाफ  इस्तेमाल करते हुए गाँधीजी ने भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम को ‘सत्याग्रह’ इस भारतीय संस्कृति के चिरन्तन तत्त्व के साथ नये सिरे से परिचित कराया था। असत्य में से ही अन्याय का जन्म होता है अर्थात् अन्याय के खिलाफ  युद्ध करनेवाला हर एक व्यक्ति ‘सत्य+आग्रही’ ही रहता है। हिरण्यकश्यपु के ज़ुल्म के आगे गर्दन न झुकानेवाला भक्तश्रेष्ठ प्रल्हाद भी सत्याग्रही ही था। श्रीराम द्वारा दिग्दर्शित मार्ग पर से श्रीहनुमानजी के नेतृत्व में आगे बढ़ते हुए बहुत ही ताकतवर राक्षसराज रावण के खिलाफ  युद्ध करनेवाले सामान्य वानरसैनिक भी सत्याग्रही ही थे। ज़ुल्मी मुग़ल सल्तनत के खिलाफ  लड़कर स्वराज्य की स्थापना करनेवाले शिवाजी महाराज और उनके निष्ठावान मावळे भी सत्याग्रही ही थे। इतना ही नहीं, बल्कि ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत के खिलाफ  छेड़े गये १८५७  के आन्दोलन में लड़नेवाले भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के सैनिक, समाज की अन्याय्य रूढ़ियों के खिलाफ  जनमत जागृत करनेवाले समाजसुधारक, टिळक-अरविंद घोष-लाला लजपतराय-सावरकर इन जैसे कई देशभक्त और मातृभूमि के लिए हँसते हँसते फांसी के फंदे  को गले में माला की तरह पहननेवाले क्रान्तिकारी भी सत्याग्रही ही थे। स्वयं सुभाष का अपने व्यक्तिगत जीवन का आचरण भी एक सत्याग्रही की तरह ही था।

हालाँकि ये सभी सत्याग्रही थे, लेकिन आम भारतीय जनता डेढ़ शतक की ग़ुलामी के कारण ‘सत्याग्रह’ इस संकल्पना को ही भूल चुकी थी। गाँधीजी ने आम भारतीय जनता को, इस तरह भारतीय संस्कृति के अविभाज्य घटक रहनेवाले सत्याग्रह का नये सिरे से एहसास कराया था। भारतीय जनता की भावभावनाओं के साथ एकरूप बन चुके गाँधीजी उस समय भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में इस कदर छाये हुए थे कि ‘भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम यानि गाँधीजी’ यह समीकरण ही मानो दृढ़ हो चुका था – भारतीयों के मन में भी और अँग्रे़ज सरकार के मन में भी। अत एव कार्य की शुरुआत करने से पहले गाँधीजी से मिलकर उनके विचारों को जान लेना तुम्हारे लिए आवश्यक है, यह बहुमूल्य परामर्श भी गुरुदेवजी ने सुभाष को दिया। तब तक भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम के केन्द्रस्थान बन चुके गाँधीजी के बारे में सुभाष के मन में भी कौतुहल था ही; इसीलिए उनसे मिलने का मौक़ा वह गँवाना नहीं चाहता था।

अब उसका मन गुरुदेवजी द्वारा प्रतिपादित भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की सद्यःस्थिति के बारे में सोचने लगा। सोचते सोचते उसे भारत जैसे ही हालातों से गु़जर चुके आयर्लंड द्वारा अँग्रे़जी हुकूमत के खिलाफ  कई दशकों तक छेड़े गये स्वतन्त्रता आन्दोलन का स्मरण हुआ। इसी आयर्लंड के स्वतन्त्रतासंग्राम का अध्ययन करते हुए टिळकजी को ‘होमरूल’ यह शस्त्र प्राप्त हुआ था। आय.सी.एस. की पढ़ाई करते हुए दुनिया के इतिहास का अध्ययन करते समय उसे आयर्लंड के स्वतन्त्रताआन्दोलन की जानकारी भी मिली थी। आयरिश लोगों का भी इस दिशा में उठाया गया पहला कदम असहकार ही था। उनके नेता डी व्हॅलेरा ने ‘सिन फेन’ (स्वयंपूर्ण हम) यह मन्त्र आयरिश जनता को दिया था। उसे आयरिश जनता ने दिलोजान से जतन किया था। अँग्रे़ज सरकार के खिलाफ  असहकार नीति का स्वीकार करते हुए उसके पूरक कार्यक्रम के रूप में स्वयं की समान्तर सरकार स्थापित कर ‘हम आपकी नहीं, बल्कि हमारी सरकार की ही बात मानेंगे’ ऐसा क़रारा झटका अँग्रे़ज सरकार को दिया था और इसीलिए आख़िर अँग्रे़ज हुकूमत को उस जनआन्दोलन के सामने झुकना ही पड़ा था, यह भी सुभाष को याद आया। इसीलिए अब उस पार्श्‍वभूमि पर गाँधीजी के असहकार आन्दोलन के बारे में सोचते हुए गाँधीजी का अगला कार्यक्रम क्या होगा, यह जानने की बेतहाशा उत्सुकता उसके मन में थी।

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