सावन्तवाडी भाग-४

मालवण के किनारे पर हम जिसकी प्रतीक्षा कर रहे थे, वह बोट हमें समुद्र में दिखायी दे रही ‘उस’ वास्तु की ओर ले जाने के लिए तैयार है। चलिए, तो फिर अब और देर न लगाते हुए बोट में सवार हो जाते हैं।

सागरी जल को चीरते हुए, सप् सप् आवाज़ करते हुए तेज़ी से निकली यह बोट अब हमें ले आयी है ‘उस’ वास्तु के पास, जिसकी जिज्ञासा मन में लिये हमने यह समुद्री सफ़र शुरू किया था।

बाहर से देखने पर लगता है कि यह कोई क़िला है। जी हाँ, आपने सही पहचाना! हम खड़े हैं,‘सिन्धुदुर्ग’ क़िले के ठीक सामने।

सिन्धुदुर्ग- सागरी क़िला। अरब सागर के एक टापू पर बनाया गया एक क़िला। महाराष्ट्र में जो चुनिंदा सागरी दुर्ग यानि समुद्र में बनाये गये क़िलें हैं, उनमें से ही यह एक है।

सिन्धुदुर्ग क़िला और छत्रपति शिवाजी महाराज ये दो नाम आपस में अटूट रूप में जुड़े हुए हैं। हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना करनेवाले शिवाजी महाराज ने ही इस सिन्धुदुर्ग क़िले का निर्माण किया।

शिवाजी महाराज के ज़माने में ज़मीन पर से आक्रमण करनेवाला शत्रु तो प्रबल था ही, साथ ही आगे चलकर सागरी मार्ग से भी आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का ख़तरा मण्डराने लगा। बहुत ही बुद्धिमान एवं दूरदर्शी रहनेवाले शिवाजी महाराज ने सागरी मार्ग से हमला करनेवाले शत्रु को रोकने के लिए और साथ ही उसपर कड़ी नज़र रखने के लिए छोटे सागरी टापुओं पर क़िलों का निर्माण किया। ये क़िलें मुख्य भूमि से कुछ ही दूरी पर समुद्र में बनाये गये हैं।

चहारदीवारी और मुख्य प्रवेशद्वार ये क़िले के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से होते हैं, क्योकिं उनकी मज़बूती पर ही क़िले की सुरक्षा निर्भर करती है। जब सागर में क़िला बनाने की बात आती है तो उस क़िले के तट से निरंतर टकराती रहनेवालीं समुद्र की लहरों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज सिन्धुदुर्ग का निर्माण होकर लगभग ३५० साल बीत गये, लेकिन आज भी इस क़िले की चहारदीवारी मज़बूत है और क़िला भी।

‘सिन्धुदुर्ग’ इस शब्द का अर्थ है – ‘सिन्धु’ यानि सागर में बनाया गया क़िला। इसके बाद हम इसका उल्लेख केवल ‘सिन्धुदुर्ग’ ही करेंगे। तो शिवाजी महाराज की दूरदर्शी स्थापत्यकला का भी सिन्धुदुर्ग यह एक बेमिसाल नमूना है, ऐसा भी हम कह सकते हैं।

चलिए, तो अब क़िले में प्रवेश करते हैं। अरे, लेकिन क़िले में प्रवेश करने का मुख्य प्रवेशद्वार ही कहीं दिखायी नहीं दे रहा है। यही तो इसकी ख़ासियत है कि किसी नये व्यक्ति को इसका प्रवेशद्वार आसानी से दिखायी नहीं देता। इसलिए किसी जानकार व्यक्ति के साथ क़िले को देखना ही बेहतर है। क़िले के मुख्य प्रवेशद्वार को चहारदीवारी में इस कुशलता से बनाया गया है कि दुश्मन को वह आसानी से न मिल सकें और बिना उसे खोजे क़िले में दाखिल नहीं हो सकतें। देखिए, इस क़िले के प्रवेशद्वार से ही इसके स्थापनकर्ता की बुद्धिमानी से हमारा परिचय होना शुरू होता है।

४८ एकर की ज़मीन पर फैले हुए इस क़िले की झिग-झॅग पद्धति से बनायी गयी चहारदीवारी की लंबाई ४ कि.मी., ऊँचाई ४०-५० फीट और चौड़ाई १२ फीट है। उसमें ४०-४५ बुर्ज़ हैं। इन दीवारों का निर्माण कोंकण में विपुल प्रमाण में उपलब्ध रहनेवाले जांबा (एक प्रकार का लाल रंग का पत्थर) पत्थरों एवं काले रंग के पत्थरों के साथ साथ सीसे (लेड) से किया गया है। लोहे का भी इसके निर्माण में उपयोग किया गया है, ऐसा भी कहते हैं। लगभग २००० खंडी (खंडी यह पुराने जमाने में मेजरमेंट के लिए उपयोग में लाया जाता था। जैसे की हम आजकल किलोग्रॅम, लीटर, मीटर आदि का उपयोग करते है।) लोहे का उपयोग इसकी नींव के निर्माण में किया गया, ऐसा भी कहा जाता है। २००० खंडी यानि लगभग साढ़े बहत्तर हज़ार किलो।

सिन्धुदुर्ग की झिग-झॅग पद्धति से बनी चहारदीवारी के किसी भी बुर्ज़ से हमलावर को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है, ऐसा भी कहते हैं।

चलिए, अब सिन्धुदुर्ग का मुख्य प्रवेशद्वार तो हमें मिल गया। क़िले में दाखिल होते हुए इसके इतिहास के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त करते हैं।

सिन्धुदुर्ग का निर्माणकार्य छत्रपति शिवाजी महाराज ने इसवी १६६४ के नवंबर में शुरू किया। इस दुर्गनिर्माण के कार्य की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी, हिरोजी इन्दुलकर को। इसवी १६६७ तक इसका निर्माण कार्य पूरा हो गया। यह तो हम देख ही चुके हैं कि सागरी मार्ग से हमला करनेवाले शत्रुओं का बंदोबस्त करना यह इस सागरी क़िले का निर्माण करने के पीछे शिवाजी महाराज का उद्देश्य था। जिस टापू पर इस क़िले का निर्माण किया गया, उसका नाम था- ‘कुर्ते’।

इस विशाल क़िले को देखते ही एक विचार मन में आता है कि इस सिन्धुदुर्ग के निर्माणकार्य के लिए आवश्यक रहनेवाली सामग्री एवं मज़दूरों को इतनी दूर तक उस ज़माने में हर रोज़ कैसे लाया जाता होगा? क्योंकि सागर का ज्वार-भाटा, बदलता मौसम आदि सभी बातों को ध्यान में रखकर बोट को सागर में चलाना पड़ता है।

इतिहास कहता है कि सिन्धुदुर्ग के निर्माण में ३००० मज़दूर तीन साल तक जी जान से मेहनत कर रहे थे। सिन्धुदुर्ग की ओर जाते हुए रास्ते में ही हमें अन्य दो क़िलों जैसी वास्तुएँ दिखायी देती हैं। इन दो क़िलों के नाम हैं – ‘पद्मगढ़’ और ‘राजकोट’। इनमें से पद्मगढ़ को ‘डॉकयार्ड’ के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। आज पद्मगढ़ और राजकोट के भग्न अवशेष हमें दिखायी देते हैं।

अब फिर झाँकते हैं, सिन्धुदुर्ग के अतीत में।

शिवाजी महाराज के बाद सिन्धुदुर्ग पर राजाराम और ताराबाई की सत्ता स्थापित हुई। उसके बाद उसपर आंग्रेजी की हुकूमत थी। फिर पेशवा और उसके बाद कोल्हापुर के शासकों का उसपर शासन रहा। साधारणत: अठारहवीं सदी के मध्ये के बाद अँग्रेज़ों की इसपर हु़कूमत स्थापित हुई। भारत की आज़ादी के साथ साथ इस क़िले पर रहनेवाली अँग्रेजी हु़कूमत ख़त्म हुई, यह तो हम आसानी से समझ सकते ही हैं।

अब क़िले में क्या देखना है? साधारण रूप में क़िले का निर्माण कुछ सदियों पूर्व किया गया होता है और इसीलिए अतीत के कुछ चिह्नों के साथ हमें वहाँ कुछ भग्न अवशेष भी दिखायी देते हैं।

अब सिन्धुदुर्ग की बात करें तो तीन सौ साल से भी अधिक समय पूर्व इसका निर्माण किया गया, लेकिन आज भी यहाँ लोग बस रहे हैं। उनके पुरखों से वे यहाँ पर बस रहे हैं।

साधारणत: किसी भी क़िले में वहाँ के निवासियों के लिए घर, अन्य सुविधाएँ, शस्त्र-अस्त्र का भंडार, अनाज का भंडार यह सब रहता है। इस क़िले की चहारदीवारी में ही शस्त्रागार और सैनिकों के लिए विश्रामस्थल बनाये गये थे। एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी कही जाती है कि यहाँ के बुर्ज़ों में से कुछ बुर्ज़ों में चोरदरवाज़ें हैं, जहाँ से ठेंठ क़िले के बाहर निकल सकते हैं। चोरदरवाज़ा यह ऐसी रचना होती है कि जिस ‘एक्झिट’ को आसानि से देखा नहीं जा सकता, केवल जानकार ही उसे जानते हैं।

इस सिन्धुदुर्ग की अब तक की सैर से एक बात यक़ीनन ही समझ में आती है कि पुराने ज़माने में यदि किसीको यहाँ कुछ काम करना हो, तो उसका यहाँ के चप्पे चप्पे से वाक़िब होना ज़रूरी है।

शिवाजी महाराज पर जान निछावर करनेवाले मावळें उन्हें अपना ईश्‍वर ही मानते थे और महाराष्ट्र भी। सिन्धुदुर्ग में शिवाजी महाराज का मन्दिर भी बनाया गया है और वह उनका एकमात्र मन्दिर है। इसका निर्माण सतरहवीं सदी के अन्त में शिवाजी महाराज के पुत्र राजाराम ने किया।

इसी सिन्धुदुर्ग में दो और महत्त्वपूर्ण बातें हैं। उनमें से एक है – ‘हाथ की मुहर’ (हँड प्रिंट) और दुसरी है – ‘पैर की मुहर’ (फूट प्रिंट)। यह हाथ और पाँव की मुहर शिवाजी महाराज की है, ऐसा कहा जाता है।

इनके अलावा सिन्धुदुर्ग पर अन्य देवताओं के भी मन्दिर हैं।

क्या आपने नारियल का पेड़ देखा है? अब आप सोच रहे होंगे कि यह भी कैसा सवाल है? कोंकण में तो जगह जगह नारियल के पेड़ हैं। सीधे सीधे ऊपर की ओर बढ़नेवालें नारियल के पेड़ सागर किनारों पर ख़ास कर दिखायी देते हैं। लेकिन यहाँ पर यह सवाल पूछने की वजह है, सिन्धुदुर्ग में रहनेवाला नारियल का एक अद्भुत पेड़। यह पेड़ अनोखा इसलिए है, क्योंकि इस पेड़ की दो शाखाएँ हैं। साधारण रूप में नारियल के पेड़ की कभी भी शाखा नहीं होती, लेकिन यहाँ का यह पेड़ कुछ अनोखा सा है और ख़ास बात यह है कि इसकी दोनों शाखाओं में नारियल उगते हैं। इसे भी कुदरत का एक करिश्मा ही कहना चाहिए।

कुदरत का एक और करिश्मा यहाँ हमें दिखायी देता है। वह है, यहाँ पर मीठे पानी के तीन कुएँ हैं। समुद्र के बीच के टापू में इस तरह के मीठे पानी के कुओं का रहना यह भी एक अजूबा माना जाता है। इन कुओं के नाम हैं – ‘दूधबाव’, ‘दहीबाव’ और ‘साखरबाव’। क़िले का मुख्य जलस्रोत ये कुएँ ही हैं। कहा जाता है कि आसपास के गाँवों के कुओं का पानी गर्मियों में यदि ख़त्म हो भी जाता है, तब भी इन कुओं का जल ख़त्म नहीं होता।

इतनी देर से हम सिन्धुदुर्ग की सैर कर रहे हैं, लेकिन यहाँ की एक ख़ास बात देखना तो अब भी बाक़ी है। तो उसे देखते हैं, थोड़ा सा बिश्राम करने के बाद।

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