परमहंस – ४९

रामकृष्णजी ने दूर से ही देखकर गंगातट पर से अपने पास जिसे ले आने के लिए कहा, उस तेजःपुंज स्त्री का नामाभिधान ‘भैरवी’ है, इस बात का पता हृदय को कुछ ही देर में चला था। यह स्त्री शक्ति उपासना एवं तांत्रिक उपासना मार्ग की अधिकारी स्त्री है और एक ईश्‍वरीय योजना के अनुसार मेरे मामा को उसके उपासना मार्ग में अगला मार्गदर्शन करने यहाँ पधारी है, यह भी उनके संभाषण में से हृदय की समझ में आ गया था।

उसके बाद उस स्त्री ने खुद भी अपनी जानकारी संक्षेप में बतायी। वह स्त्री पूर्व बंगाल से थी और वैष्णवपंथ की साधिका होकर, उसे विभिन्न धर्मग्रन्थ, शास्त्रार्थग्रन्थ आदि कंठस्थ थे। रघुबीर यह उसके आराध्य देवता थे और उनकी मूर्ति हमेशा उसके पास रहती थी।

अब दोपहर टलकर शाम होने को आयी थी और भैरवी वहाँ आकर काफी़ समय बीत चुका था। उसे भूख लगी होगी, यह जानकर रामकृष्णजी ने उसे मंदिर से कुछ प्रसाद मँगवाकर खाने के लिए दिया।

गंगातट

शुरू शुरू में भैरवी कालीमंदिर परिसर में ही ठहरी थी, ताकि उसे रामकृष्णजी का अधिक से अधिक सानिध्य प्राप्त हो सकें। लेकिन अपनी उपासनाएँ वह दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर के पास के जंगल स्थित पंचवटी इस निर्जन स्थान में जाकर करती थी।

लेकिन यदि वह यहीं पर ठहरती, तो शायद बेवजह लोकापवाद हो सकते हैं, यह जानकर रामकृष्णजी के कहने पर भैरवी पास ही के एक गाँव में रहने चली गयी। वहाँ से वह हर रोज़ कालीमंदिर में, रामकृष्णजी के लिए कुछ न कुछ खाने के पदार्थ बनाकर ले आती थी। उसके तेजःपुंज आध्यात्मिक व्यक्तित्व के कारण और लोगों की सहायता करने के स्वभाव के कारण उसकी गाँव की कई स्त्रियों के साथ मित्रता हुई थी। कई बार वे भी भैरवी के साथ दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर में दर्शन के लिए आतीं थीं। रामकृष्णजी ने मथुरबाबू से कहकर उसे हर रोज़ का खाना पकाने के लिए आवश्यक अनाज आदि का प्रबन्ध मंदिर में से करवा दिया था।

अगले कुछ दिनों में रामकृष्णजी ने भैरवी को, उन्हें हुए ईश्‍वरीय साक्षात्कारों के बारे में, उन्हें महसूस होनेवालीं – बदन का दाह, सीने में जलन आदि शारीरिक पीड़ाओं के बारे में सविस्तार बताया, जिसे भैरवी ने शान्तिपूर्वक एवं कौतुकपूर्वक सुन लिया। ‘कई डॉक्टरों ने प्रयास किये, लेकिन मेरी शारीरिक पीड़ाएँ कम करने में किसी को भी सङ्गलता नहीं मिली’ यह बताने पर भैरवी ने उन्हें शान्तिपूर्वक समझाया कि ‘इन पीड़ाओं का कारण शारीरिक न होकर आध्यात्मिक है। ईश्‍वर को प्राप्त करने के लिए तुमने जो प्रयास तीव्रता से निरन्तर जारी रखे हैं, उसी के परिणामस्वरूप ये पीड़ाएँ तुम्हें सहनी पड़ रही हैं और उनपर कोई भी वैद्यकीय उपाय काम नहीं करेगा।’

इसी प्रकार की पीड़ाएँ, ऐसी ही परिस्थितियों में से गुज़रते हुए कई साधकों को सहनी पड़ी हैं और वे अनिवार्य ही हैं, ऐसा वह बताती।

ऐसे ही श्रेष्ठ साधकों को इस मामले में हुए अनुभवों के आधार पर और ऐसी शारीरिक पीड़ाओं पर उनके द्वारा जो उपाय किये गये थे उनके आधार पर, भैरवी ने रामकृष्णजी की उपरोक्त पीड़ाओं पर उपाय सूचित किया – ‘तीन दिन रामकृष्णजी के सर्वांग को चंदन की परत का लेपन करो और उनके गले में एक सुगंधित पुष्पों की माला पहनाओ।’

चूँकि यह ‘उपाय’ आसानी से किया जा सकता था, मथुरबाबू उसे करने के लिए राज़ी हो गये और उन्होंने तुरन्त ही भैरवी के लिए आवश्यक सामग्री का प्रबन्ध करवा दिया; अचरज की बात यह है कि वाक़ई तीन दिन यह उपाय करने के बाद रामकृष्णजी के बदन में होनेवाला दाह अपने आप थम गया!

इससे पहले के श्रेष्ठ साधकों में से इसवी १५ वीं सदी के वैष्णव संप्रदायी श्रेष्ठ संत गौरांग चैतन्य महाप्रभु के जीवनप्रवास के साथ रामकृष्णजी का जीवनप्रवास मिलताजुलता है, ऐसा भैरवी को रह-रहकर लगता था। रामकृष्णजी के अब तक के कुल मिलाकर आध्यात्मिक प्रवास का और प्रयासों का अभ्यास करते हुए, उसे आशंका होने लगी थी कि कहीं रामकृष्णजी के रूप में वे जगन्नियंता ईश्‍वर तो अवतरित नहीं हुए हैं? वह अपनी आशंका ज़ाहिर करती भी थी; केवल औरों को ही नहीं, बल्कि रामकृष्णजी को भी! लेकिन रामकृष्णजी कुछ न कुछ बहाने बनाकर उसकी बात को टाल देते थे।

इस मामले में भैरवी को हुआ एक अनुभव कुछ इस प्रकार बताया जाता है – एक बार वह उस निर्जन स्थान पर अपनी दैनंदिन उपासना कर रही थी। उपासना के बाद उसने अपने आराध्य देवता की – रघुबीर की मूर्ति के सामने नैवेद्य अर्पण किया और वे उसे ग्रहण करें, ऐसी प्रार्थना वह कर रही थी कि तभी अचानक से वह भावावस्था में चली गयी और उसे ऐसा दृश्य दिखायी देने लगा कि वे रघुबीर उस नैवेद्य को ग्रहण कर रहे हैं। ऐसा बताया जाता है कि ठीक उसी समय यहाँ पर कालीमंदिर में होनेवाले रामकृष्णजी बहुत ही बेचैन हो गये और कुछ ही पलों में वे भी भावावस्था में जाकर पंचवटी की दिशा में दौड़ने लगे। भैरवी के उपासनास्थान पर पहुँचने के बाद वे सीधे नैवेद्य की थाली के पास गये और नैवेद्य खाने लगे। उतने में भैरवी भावावस्था से जागृत हो गयी और उसने वह दृश्य देखा। मुख्य बात यह है कि उसने भावावस्था में – रघुबीर नैवेद्य ग्रहण कर रहे होने का जो दृश्य देखा था, हूबहू वैसा ही दृश्य जागृत रूप में उसे दिखायी दे रहा था – फ़र्क़ सिर्फ़ इतना ही था कि रघुबीर के स्थान पर रामकृष्णजी थे।

रामकृष्णजी के रूप में वे जगन्नियंता ईश्‍वर ही अवतरित हुए हैं, इस बात की जो आशंका उसके मन में उठने लगी थी, वह अब धीरे धीरे यक़ीन में बदलती जा रही थी!

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