क्रान्तिगाथा – ३८

भारत को आज़ादी दिलाने के लिए तेज़ी से चल रहे ‘इंडिया हाऊस’ के कार्य में मॅडम कामा का अहम योगदान था। उस वक़्त दादाभाई नौरोजी ‘ब्रिटिश कमिटी ऑफ इंडियन नॅशनल काँग्रेस’ के अध्यक्ष थे। मॅडम कामा उनकी सहायता करने लगीं। इस वजह से अब मॅडम कामा पर अँग्रेज़ सरकार की कड़ी नज़र थी। इसीलिए जब मॅडम कामा भारत वापस आने निकलीं, तब ‘भारत की स्वतन्त्रता के लिए चल रही कोशिशों में शामिल न होने का हामीपत्र मॅडम कामा जब तक नहीं देतीं, तब तक उन्हें भारत जाने नहीं दिया जायेगा’ ऐसा अँग्रेज़ों के द्वारा सूचित किया गया।

उसी वर्ष वे पॅरिस गयी और वहाँ पर ‘पॅरिस इंडियन सोसायटी’ का काम अपने अन्य सहकर्मियों के साथ करने लगीं। उस समय भारतीय स्वतन्त्रता से संबंधित विषयों पर लिखना, अन्य भारतीय देशभक्तों के द्वारा लिखे गये ऐसे विचारों को प्रकाशित करना और लोगों तक इन विचारों को पहुँचाने के लिए पत्रक बाँटना इस तरह के काम वे कर रही थीं। ये पत्रक गुप्त रूप से भारत भी भेजे जाने लगे।

मॅडम कामा

२२ अगस्त १९०७ को जर्मनी के स्टुटगार्ड शहर में इंटरनॅशलन सोशालिस्ट कॉन्फरन्स का आयोजन किया गया था। मॅडम कामा ने भी उसमें हिस्सा लिया था। इस कॉन्फरन्स में उन्होंने सूखे के कारण भारत की हुई स्थिति आदि मुद्दों के आधार पर अँग्रेज़ों के द्वारा भारतीयों के किये जा रहे शोषण पर अपने विचार प्रस्तुत किये। ज़ाहिर है कि अँग्रेज़ों के चंगुल से भारत का मुक्त होना ज़रूरी है इस बात का ही उन्होंने पुनरुच्चार किया। यह सभा समाप्त हो ही रही थी कि एक विलक्षण घटना हुई-मॅडम कामा ने उपस्थितों के सामने एक ध्वज प्रस्तुत किया, वह ध्वज था ‘भारत का ध्वज’।

मॅडम कामा का कार्य अपने तरीके से चल ही रहा था, लेकिन अब उनकी गतिविधियों पर अँग्रेज़ों की स़ख्त नज़र थी। इसी दौरान सन १९१४ में पहला विश्‍वयुद्ध शुरू हो गया और युरोप के घटनाक्रम में एक नया मोड़ आ गया। अक्तूबर १९१४ में मॅडम कामा को कुछ समय के लिए बंदिवास में रखा गया। वहाँ से रिहा होने के बाद फिर एक बार उन्होंने अपना कार्य तेज़ी से शुरू कर दिया।

पॅरिस में रहकर कार्य करनेवाले देशभक्तों को वहाँ की सरकार ने पॅरिस से बाहर भेजने का फैसला करके उस पर अमल भी किया। सन १९३५ तक मॅडम कामा युरोप में थीं। इस दौरान उनका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया। भारत वापस लौटने की इच्छा उनके मन में उठने लगी और आख़िर नवंबर १९३५ में वे भारत लौट आयीं। लेकिन बीमार मॅडम कामा का उसके कुछ ही महीनों बाद यानी अगस्त १९३६ में ७४ वर्ष की उम्र में देहान्त हो गया। दुख की बात यह थी कि जिन्होंने मातृभूमि का ध्वज लहराया था, वे मातृभूमि की आज़ादी को देख नहीं सकीं।

१९०२-१९०३ का समय। बंगाल में क्रान्ति की हवाएँ ज़ोरों से बह रही थीं, लेकिन अब ज़ोर था सशस्त्र संघर्ष पर। अरविन्द घोष, उनके भाई बारीन्द्र घोष और अन्य क्रान्तिवीरों के विचारों से आबालवृद्धों में नवचेतना जाग उठी थी। ‘मैं अपनी क्षमता से अपने देश को आज़ाद करने के लिए क्या कर सकता हूँ’ यह विचार अब भारत के स्कूली बच्चों के दिल में भी जड़े पकड़ने लगा था।

और इसी दौरान वह घटना हुई। ३० अप्रैल १९०८ को शाम का समय था। ८:३०-९ बजे का समय था। बिहार, मुज़फ्फरपुर का मोतीझील नाम का इलाक़ा। यहाँ के युरोपीय क्लब के मुख्य प्रवेशद्वार में से घोड़े की एक बग्गी बाहर निकली और देखते ही देखतें एक धमाका हुआ और वह बग्गी आग में जलने लगी। इस बग्गी पर वहीं कहीं पर से बम फेंका गया था।

जनवरी १९०८ में हेमचन्द्र कानुगो नाम का एक देशभक्त भारत लौट आया। यह क्रान्तिवीर पॅरिस में शस्त्र-अस्त्रों का प्रशिक्षण लेकर भारत आया था। महज़ शस्त्र-अस्त्र चलाने का प्रशिक्षण उसने नहीं लिया था, बल्कि शस्त्र-अस्त्र बनाने का प्रशिक्षण भी उसने लिया था। भारत लौटने के बाद कोलकाता के पास माणिकतला में उसने एक फॅक्टरी शुरू की। लेकिन यह कोई आम फॅक्टरी नहीं थी, वह था बम तैयार करने का एक कारख़ाना, जिसे गुप्त रूप से शुरू किया गया था। उसकी इन कोशिशों में उसे सहायता मिली, अनुशीलन समिति के सदस्यों की।

ऊपर वर्णित घटना में जो बम-धमाका हुआ, उसके बाद अँग्रेज़ पुलीस बेहद चौकन्नी हो गयी। सारे गाँव में देखते ही देखते ऊपर वर्णित घटना की ख़बर ङ्गैल गयी। अँग्रेज़ पुलीस दल तेज़ी से काम में जुट गया। मोतीझील में से बाहर जानेवाले हर रास्ते पर अँग्रेज़ स़ख्त नज़र रखे हुए थे। यहाँ तक कि हर रेलवे स्टेशन में सशस्त्र अँग्रेज़ पुलीसकर्मी दिखायी देने लगे थे। यह काम किसी देशभक्त का ही है इसमें अँग्रेज़ों को कोई शक़ नही था। लेकिन यह काम किसका है यह सवाल अँग्रेज़ों के मन में था। इस सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए अँग्रेज़ों ने छानबीन, तहक़िक़ात और गिरफ्तारी करना शुरू कर दिया।

आख़िर अँग्रेज़ों के हाथ लगा एक नवयुवक, जो सीना तानकर यह कह रहा था कि ‘हाँ, मैंने ही उस दुष्ट अँग्रेज़ को मौत के घाट उतारा है’। उस नवयुवक का नाम था – खुदीराम बोस।

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