परमहंस-२३

कालीमाता के दृष्टान्त के अनुसार राणी राशमणि ने मंदिर का निर्माण किया, जिसके उद्घाटन के समय उत्पन्न हुआ मसला सुलझाने में रामकुमार ने अहम भूमिका निभायी और ३१ मई १८५५ को एक प्रचंड बड़े समारोह के द्वारा यह दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर जनता के लिए खुला कर दिया गया था। इस सारे उद्घाटनसमारोह की एवं कालीमाता की स्थापना की ज़िम्मेदारी रामकुमार के कन्धों पर दी गयी थी। समारोह के लिए आये लाखों लोगों को समारोह के दिन पेटभर खाना खिलाकर, साथ ही पूजन के लिए निमंत्रित किये गये लाखो पुरोहितों में से हर एक को रेशमी वस्त्र-उत्तरीय तथा एक-एक स्वर्णमुद्रा देकर, उन्हें विदा किया गया था।

इस सारे क्रियाकलाप में गदाधर कहीं पर भी नहीं दिखायी दे रहा था। मतलब वैसे वह रामकुमार के साथ दक्षिणेश्‍वर आया था। उसके लिए बहुत ही आत्मीयता का विषय रहनेवाली गंगानदी का सान्निध्य प्राप्त हुआ यह दक्षिणेश्‍वर का परिसर दरअसल उसे बहुत पसन्द भी था। गत कुछ दिन कोलकाता से रामकुमार के साथ यहाँ आने के बाद वह घण्टों तक गंगानदी के किनारे टकटकी लगाकर बैठा करता था।

कालीमातासमारोह में भी उसने थोड़बहुत यहाँवहाँ चक्कर लगाये थे, भाई को उसके काम में मदद भी की; लेकिन बाहर चल रहे इस सारे उपक्रम में उसका कुछ ख़ास दिल नहीं लग रहा था, इसलिए उसने अपने कमरे में ही अधिक से अधिक समय व्यतीत करना पसन्द किया।

अहम बात यह थी कि उसने यहाँ पर मिल रहा पेटभर प्रसाद भी नहीं खाया और ना ही वह रेशमी वस्त्र-स्वर्णमुद्रा लेने के लिए गया।

रुपयेपैसे-सोनाचांदी-गहनें आदि बातों से उसे नफ़रत थी। इसी कारणवश यानी ‘महीने की आख़िर में वेतन दिया जायेगा, फिर धीरे धीरे मैं रुपये-पैसे को ग़ुलाम बनकर रह जाऊँगा’ इसी एक बात के कारण वह कहीं पर भी नौकरी करना टालता था। स्वाभाविक रूप में यही कारण था कि वह उस रेशमी वस्त्र-स्वर्णमुद्रा का स्वीकार करने नहीं गया। लेकिन उसने प्रसाद न खाने का कारण अलग था।

उसके यहाँ प्रसाद न खाने के विषय में ऐसी कथा बतायी जाती है कि उस दौर में आहार के विषय में गदाधर, बचपन से हुए संस्कारों के कारण बहुत ही कर्मठता से आचरण करता था। इस कारण, उस ज़माने की रूढ़ि-परंपराओं के अनुसार उच्चवर्णीय न मानी जानेवाली स्त्री के द्वारा निर्माण किये गये मंदिर में आहार ग्रहण करना, यह बात उसके उस समय के मानसिक दायरे में नहीं बैठती थी। उसके पिताजी ने कभी ऐसी परिस्थिति में, ऐसी जगहों में आहार ग्रहण नहीं किया था, यह भी उसके दिमाग में दृढ़तापूर्वक जम गया था। इसलिए उसने यहाँ पर भी प्रसाद ग्रहण नहीं किया।

रामकुमार ने – ‘अरे, यह माँ का प्रसाद है, उसे ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं है’ इस तरह के युक्तिवाद करके भी उसने उन दिनों यहाँ आहार ग्रहण नहीं किया।

लेकिन क्या रामकुमार उसे भूखा देख सकता था? आख़िरकार रामकुमार ने इसपर एक तरक़ीब निकाली। उसने गदाधर को मंदिर के भांडारगृह में से कच्चे पोहे लाकर दे दिये और कहा कि ‘गंगामाता को तो पवित्र मानते हो ना? फिर ये पोहे गंगाजल में धोकर खाना। ये यहाँ पर बनाये या पकाये नहीं हैं।’ गंगानदी यह तो गदाधर का बहुत ही आत्मीयता का विषय होने के कारण, इस बात को ‘ना’ कहना उसके लिए संभव ही नहीं था। रामकुमार की यह ‘तरक़ीब’ काम कर गयी। गदाधर को वह पसन्द आकर, उसने वे कच्चे पोहे गंगानदी के पानी में भिगोये और वैसे ही ग्रहण किये। अगले कुछ दिन फिर यही उसकी परिपाटि बन गयी।

यहाँ समारोह संपन्न होने के बाद रामकुमार ने फिर से कोलकाता लौटने का ज़िक्र रानी राशमणि के पास किया। लेकिन राशमणि ने इसके बारे में पहले से ही सोच रखा था। वह रामकुमार जैसा बहुत ही पवित्र मन का एवं विनयशील स्वभाव का विद्वत्तापूर्ण नररत्न ऐसे ही गँवाना नहीं चाहती थी। साथ ही, इस मंदिर के उद्घाटन के समय निर्माण हुईं वैसी समस्याएँ यदि भविष्य में फिर से उद्भवित हुईं, तो क्या, यह भी प्रश्‍न था। अतः वह रामकुमार को ही – कालीमाता के मुख्य मंदिर के प्रमुख पुजारी का पद देना चाहती थी। ‘उद्घाटन को ही इतनी समस्याएँ निर्माण हुआ यह मंदिर यानी बहुत ही संवेदनशील जगह होकर उसके प्रमुख पुजारी का काम यूँ ही किसी को नहीं दे सकते, ऐसा मुझे लगता है। आप बहुत ही ज्ञानी हैं और कालीमाता के भक्त भी हैं। इसलिए आपसे अधिक लायक अन्य कोई मुझे इस पद के लिए दिखायी नहीं दे रहा है। अतः क्या आप ही इस पद को विभूषित करेंगे?’ ऐसा राशमणि द्वारा पूछे जाने के बाद ‘ना’ कहने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। इतना सुंदर, मनपसन्द काम था; और तो और उसीमें रामकुमार के परिवार का पेट पालने का समस्या भी हल होनेवाली थी। इसलिए उसने ‘हाँ’ कह दी।

लेकिन यह बात गदाधर को पसन्द नहीं आयी….

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