श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-६०)

‘कथा-प्रयोजन एवं नामकरण’ इस बारे में विवेचन करनवाले द्वितीय अध्याय का हम अध्ययन कर रहे हैं। हेमाडपंत नामकरण कथा को हम देख रहे हैं। बाबा के द्वारा ‘क्या चल रहा था वाड़े में, किस बात पर लड़ रहे थे’ यह पूछे जाते ही हेमाडपंत ने यही अनुमान लगाया कि मानवीय शक्ति और ईश्‍वरी शक्ति में कितना अनंत अंतर है। साठेवाड़ा में चल रहे विवाद के बारे में बाबा को द्वारकामाई में भला पता कैसे चला? मैं ही उस वाद-विवाद की जड था, मुझ में ही बहस करने की वृत्ति है, यह बात भी बाबा जानते हैं। इसका अर्थ यह है कि साईबाबा को केवल साठेवाडा में ही वाद छिड़ा है इतना ही नहीं बल्कि इससे संबंधित सारी जानकारी भी है। साईबाबा उस समय द्वारकामाई में ही थे और किसी के भी द्वारा बिना बताये जाने के बावजूद भी बाबा को इस बात का पता कैसे चल गया? इतना ही नहीं बल्कि मेरे अंतर में होनेवाली वाद-विवाद की अहंकारी बुद्धि पर प्रहार करने के लिए ही बाबा ने मेरा ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण किया है।

मेरी तरफ इशारा करते हुए ‘क्या कहा इस हेमाडपंत ने’ इस तरह संबोधित करते हुए साईबाबा ने काकासाहेब से पूछा। बस, यहीं पर हेमाडपंत का अभिमान चकनाचूर हो गया और साईनाथ के चरणों में वह अहंकार समा गया। बाबा ने चरित्रलेखन की अनुमति प्रदान करते समय यही तो उनसे कहा था।

मेरी कथा मैं ही करूँगा।
भक्त की इच्छा भी मैं ही पूरी करूँगा।
उन्हें अहंवृत्ति को छोड़कर।
मेरे चरणों में रख देना है॥

और ‘हेमाडपंत’ नामकरण से यही होता है। बाबा को हेमाडपंत से जो चरित्रलेखन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य करवाना है, उसके लिए वे हेमाडपंत को दुर्गुणों से मुक्त कर रहे हैं। बाबा को जैसा चाहिए वैसा दाभोलकरजी को बनाने के लिए ही हेमाडपंत नामकरण की लीला यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। हेमाडपंत के चित्त में पूरे के पूरे साईनाथ का संचार होने के लिए सर्वप्रथम उनके अंदर होनेवाले अहंकार को खत्म करना अत्यन्त आवश्यक है और इसी के लिए ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण लीला बाबा ने रची। बाबा को उनका चरित्र केवल भक्तिरस से ओतप्रोत रहनेवाला ही चाहिए था। इसमें पक्ष-प्रतिपक्ष स्थापना, विचारों का खंडन, वाद्य आदि का होना बिलकुल भी चलने वाला नहीं था।

नहीं चाहिए स्वपक्ष-स्थापना। नहीं चाहिए पर-पक्ष का निराकरण।
ना ही पक्षद्वयात्मक विवरण। क्यों यह सब करें विनाकरण॥

मानवीय शक्ति

हे साई! हमारे जीवन में ‘मैं’ यह पक्ष यानी अहंकार सदैव बलवान रहता है और इसीलिए सद्गुरु श्रीसाईनाथ यानी ‘तुम’ हमारे अन्तर्मन में प्रवाहित नहीं हो पाते, हम ही यह होने में अवरोध निर्माण करते रहते हैं। ‘साईनाथजी, केवल ‘तुम’ ही को मेरे पूरे जीवन में प्रवाहित होना है’ यही हर एक श्रद्धावान की मूलभूत ज़रूरत है। यह ‘तुम’ हमारे जीवन में कब प्रवाहित होगा, तब जब मेरा ‘मैं’ इस ‘तुम’ के अर्थात साई के चरणों में विलीन हो जायेगा तभी। इसी लिए जब ‘मैं’, ‘तुम’ के अर्थात साई के चरणों में धुल जायेगा उसी समय। इसीलिए ‘तुम’ और ‘मैं’ मिलकर करें तो असंभव ऐसा तो कुछ भी नहीं, यह स्थिति मेरे जीवन में आनी चाहिए। मैं और तुम कब मिलेंगें? तो जब यह ‘मैं’, ‘तुम’ के यानी सद्गुरु के चरणों में समा जायेगा उसी समय। हेमाडपंत का ‘मैं’ यहाँ पर ‘हेमाडपंत’ नामकरण वाली घटना में बाबा के चरणों में (‘तुम’ के चरणों) पूर्ण रूप से समा गया। हेमाडपंत पूर्ण रूप से निरहंकार हो गए और साईनाथ संपूर्ण रूप में उनके जीवन में सक्रिय हो गए। अध्याय के अंत में निरहंकारिता यह स्थिति यानी मैं और तुम मिलकर यह स्थिति बाबा ने हेमाडपंत नामकरण के द्वारा किस तरह प्रदान की, यही बात

हेमाडपंत हमें बता रहे हैं।
पिघल जाये वादाभिमान।
एतदर्थ यह अभिधान।
जिससे आमरण रहे ध्यान।
नित्य निरभिमान होना चाहिए।

अभिधान यानी नामकरण। यह अभिधान यानी हेमाडपंत यह नामकरण अभिमान को खत्म कर देनेवाले साईचरणों में हमेशा के लिए समर्पित कर देनेवाला ऐसा था। हमारे जीवन में भी इस प्रकार की निरहंकार स्थिति आनी चाहिए। हमारा ‘मैं’ इस ‘तुम’ में यानी साईनाथ के चरणों में पूर्णत: समर्पित हो जाना चाहिए। हेमाडपंत ने उसी क्षण से बाबा के मुख से निकलने वाले ‘हेमाडपंत’ इस नाम को धारण कर लियाथा। क्योंकि इसी के अनुसार संपूर्ण साईनाथ ही उनके जीवन में सक्रिय बन चुके हैं, इस बात का ध्यान उन्हें है। इसके बाद ‘मैं’ कुछ भी करनेवाला न होकर कर्ता-करविता तो केवल साईनाथ ही हैं। और ‘मैं’ सदैव ‘तुम’ के यानी साईनाथ के चरणों की धूल हूँ, यही उनकी जीवन-भूमिका बन गई।

‘गुरु की आवश्यकता ही क्या है, इस बात को लेकर जो वाद-विवाद छिड़ा था, उसका उत्तर भी हेमाडपंत को यहीं पर मिल जाता है। मनुष्य की औकात ही क्या है? मनुष्य की बुद्धि चाहे कितनी भी प्रगल्भ क्यों न हो जाये, मग़र फिर भी उसके ज्ञान का प्रान्त बहुत छोटा होता है। ‘जानते हैं वर्म सभी के’ ऐसे ये साईनाथ ही हर किसी के जीवन का समग्र विकास करके उसका समुद्धार कर सकते हैं, यह बात हेमाडपंत के मन में अच्छी तरह से बैठ गई है। मैं अपना उद्धार सद्गुरु की भक्ति से कर सकता हूँ, मैं अपना उद्धार अपने स्वयं के बल पर नहीं कर सकता हूँ। अपने अहंकार की तुच्छता वे भली-भाँति जान गए। हेमाडपंत को जो यहाँ पर सबसे अधिक सुंदर बोध हुआ, वह हमारे लिए काफी महत्त्वपूर्ण है।

राम दाशरथी जो थे स्वयं ईश्‍वरी अवतारी।
पूर्ण ज्ञानी और दूसरों को तारने वाले।
थे अखिल ऋषिगणों के मानस में विहार करने वाले।
फिर भी उन्होंने चरण धर लिये वसिष्ठ के॥
कृष्ण परमात्मा के अवतार।
उन्होंने भी सद्गुरु की भक्ति की।
सांदीपनि के आश्रम में लक़डियाँ लाने की सेवा की।
परिश्रम किये ढेर सारे ॥
वहाँ मेरी क्या औकात।
वाद-विवाद करना व्यर्थ॥
बिन गुरु ना ज्ञान ना परमार्थ।
ना ही यह शास्त्रार्थ दृढ़ किया॥

राम-कृष्ण ये स्वयं ही अवतारी पुरुष होने के बावजूद भी उन्होंने भी सद्गुरु का महत्त्व एवं आवश्यकता स्वयं के आचरण से दिखा दी। जब स्वयं परमात्मा ही मानव-देह धारण करने पर सद्गुरु की महिमा का गुणगान करते हैं, स्वयं सद्गुरु-भक्ति करते हैं, तब हम जैसे क्षुद्र मानवों की भला क्या बिसात? जब राम और कृष्ण ने वसिष्ठ और सांदीपनि को सद्गुरु मानकर उनकी सेवा की, तो वहाँ मेरी क्या बिसात? यहीं पर हमें जानना चाहिए कि गुरु की उपयुक्तता क्या है। इसके संबंध में वाद-विवाद करना ही मूर्खता है। यदि परमात्मा स्वयं के आचरण से गुरु की उपयुक्तता हमें बतला रहे हैं, तो हम भला कौन से बहुत बड़े एवं महान हैं? मनुष्य को स्वयं की ताकत का अहसास होना और सद्गुरु की श्रीसाईनाथ के अपरंपार सामर्थ्य का अहसास होना यही काङ्गी महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए वाद-विवाद करने की अथवा अन्य प्रकार से ‘तू-तू, मैं-मैं’ करने की अपेक्षा भक्ति-सेवा करने में श्रम करना चाहिए।

वाद-विवाद से ना ही हम अपने भगवान पर श्रद्धा रख सकते हैं और ना ही सबूरी रख सकते हैं। क्योंकि यहाँ पर हमारा अहंकार इन दोनों के बीच आड़े आते रहता है। यदि ‘तुम’ यानी साईनाथ ही हमारे जीवन में नहीं होंगे, तब यह श्रद्धा और सबूरी प्राप्त भी कैसे होगी? इसीलिए ‘मैं’ को साईचरणों में छोड़ देना यही यहाँ पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है। सुखमय गृहस्थी और परमार्थ साध्य करने के लिए वाद-विवाद नहीं बल्कि श्रद्धा-सबूरी की ज़रूरत है। बाबा ने हेमाडपंत को यहाँ पर यही बोध करवाया है। वाद-विवाद करके ‘कौन श्रेष्ठ है, तुम अथवा मैं’ इसमें फँसने की अपेक्षा, सामनेवाले से स्वयं के श्रेष्ठत्व को साबित करने की अपेक्षा, बेवजह ऊर्जा खर्च करने की अपेक्षा, यह तुलना करने की अपेक्षा, किसी की बराबरी करने की अपेक्षा श्रद्धा और सबूरी के राजमार्ग का स्वीकार करना अधिक महत्त्वपूर्ण है।

वाद-विवाद ठीक नहीं।
नहीं करनी चाहिए किसी की बराबरी।
न हो यदि श्रद्धा और सबूरी।
परमार्थ रत्ती भर भी साध्य नहीं होगा॥

हमें भी इस द्वितीय अध्याय के अध्ययन में इस बात को ध्यान में रखकर ही अपने जीवन का प्रवास करना चाहिए। वाद-विवाद करने की अपेक्षा श्रद्धा-सबूरी-युक्त अन्त:करण से साईचरणधूलि में लोटांगण करना चाहिए। अपना उद्धार करने का एकमात्र यही मार्ग है। हेमाडपंत यहाँ पर हमें अपना अनुभव बता रहे हैं। उनकी लगन यही है। बाबा ने ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण करके हेमाडपंत के जीवन का सोना बना दिया। संपूर्ण साईनाथ का ही संचार उनके जीवन में हो गया, यही बात हेमाडपंत इस अध्याय के अंत में हमें बता रहे हैं।

साई ही हमारी सुखसंपत्ति।
साई ही हमारी सुखसंवित्ति।
साई ही हमारी परमनिवृत्ति।
अंतिम गति श्रीसाई ही॥

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