श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०२)

ये शब्द आ जाते ही बाबा के होठों पर।
उसे ही शुभचिह्न मान लिया।
होगा यह चरित्रलेखन अपने आप।
मैं तो ठहरा बंधवा मजदूर॥

हेमाडपंत का ‘भक्त’ से ‘दास’ तक का प्रवास बाबा ने किस तरह करवाया, यह तो हम पिछले अध्याय में देख ही चुके हैं। बाबा ने हेमाडपंत को उदी लगाकर, उदी-प्रसाद देकर उनके सिर पर वरदहस्त रखकर उन्हें दास्यत्व प्रदान किया। बाबा के प्रति अनन्य शरण हो चुके हेमाडपंत ‘अब तो सबकुछ केवल साईनाथ का ही है, साईनाथ के ही लिए है, और साई जैसा चाहते हैं बिलकुल वैसा ही होगा’, इस भूमिका में स्थिर होकर बाबा के अनन्यदास बन गए।

भक्त से दास बनना यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण पडाव होता है और हर किसी के लिए इस पडाव को पार करना ज़रूरी है। यदि कोई व्यक्ति भक्त है, बाबा के द्वारकामाई में ही गुजर-बसर कर रहा है, बाबा के भजन कीर्तन आदि भली-भाँति कर रहा है इसलिए वह साईनाथ का दास होगा ही, ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता। चेन्नई (उस वक्त का मद्रास) से आनेवाले परिवार की कथा तो हम पढ़ते ही हैं। इसका अर्थ यह है कि हम साई के पास रहते हैं, उनके भजन गाते हैं, लोगों पर हमारा प्रभाव पड़ता है इसका अर्थ यह नहीं होगा कि हम साई के दास हैं।

उदी लगाकर

बाबा जो कुछ कहते हैं, जिन जीवन मूल्यों का उपदेश करते हैं उससे बोध लेकर सत्य-प्रेम एवं आनंद के साथ पवित्र परमेश्‍वरी मार्ग पर से पूर्ण निष्काम भाव रखकर जो मानव प्रवास करता है और बाबा के अलावा किसी ओर से उसे कोई सरोकार नहीं रहता, जिसने साईचरणों में अपने आप को पूर्ण रूप में समर्पित कर दिया है, वही बाबा का सच्चा दास कहलाता है। ऐसा भक्त स्वयं का महत्त्व प्रस्थापित करने अथवा अपना स्वार्थ साध्य करने के पीछे कभी नहीं रहता। वह एक बंधवा मजदूर की तरह ही श्री साईनाथ की भक्तिसेवा में रत रहता है। जो अपने आप को बड़ा बताने के लिए भक्त होने का स्वांग रचता है वह तो भक्त कहलाने के लायक भी नहीं होता है। बाबा के पास ऐसे ढ़ोंगियों के लिए कोई स्थान नहीं। हमें सर्वप्रथम किसी भी प्रकार का मुखौटा धारण नहीं करना चाहिए और साथ ही इस प्रकार का मुखौटा धारण करनेवालों की तरफ गलती से भी नहीं देखना चाहिए। बाबा के दरबार में एक सामान्य भक्त बनकर जैसे हो सके वैसे भक्तिमार्ग पर चलने का प्रयास शुरु कर देना चाहिए और इस पिपिलिका पथ पर चलते समय हमारा ध्येय दास्यत्व का ही होना चाहिए। इस साईनाथ के दरबार में उनका बंधवा मजदूर बनकर ही रहना चाहिए।

किसी राष्ट्र में पर्यटक के रूप में प्रवेश करना और वहाँ का नागरिकत्व (सिटिझनशिप) प्राप्त करके प्रवेश करना ये दो अलग बातें हैं। इनके बीच में जो फर्क है वही फर्क भक्त और दास इनके बीच में भी है। भक्त बनना अर्थात भक्ति के प्रांत में प्रवेश मिलने का लायसन्स प्राप्त हो जाना। परन्तु यह लायसन्स प्राप्त होने पर हमें उस प्रांत का निवासी बनने के लिए वानरप्रयास करना अति आवश्यक है। दास बनना यानी गुरुपद का निवासी बनना। जब तक मनुष्य भक्त की स्थिति में रहता है, तब तक ‘मैं साईनाथ का भक्त हूँ’ इसी भूमिका में वह जीता रहता है। और जब वह दास बनता है उसी क्षण से ‘ये साईनाथ ही मेरे सर्वस्व एवं स्वामी हैं, मेरे मालिक हैं’ वह इस भूमिका में स्थिर हो जाता है।

हेमाडपंत को ‘दास’ भूमिका में ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सत्य का अहसास होता है कि इस साई-हरि की लीला केवल ये साई-हरि ही जानते हैं। इनकी लीला अन्य कोई कभी जान ही नहीं सकता है। इसीलिए बाबा का चरित्र लिखना यानी उनकी लीलाओं का गुणगान करना, साईलीलाओं का संग्रह करना यह हालाँकि मेरी इच्छा है भी, मग़र यह किसी भी मनुष्य के लिए संभव होनेवाला कार्य नहीं हैं, बाबा के चरित्र का लेखन, साईलीला का लेखन करना यह कार्य केवल बाबा ही कर सकते हैं। मुझे बस उनका बंधवा मजदूर बनने में कसर नहीं रखनी है। ‘मेरी कथा मैं ही कहूँगा (करूँगा)’ ये बाबा के बोल शत प्रतिशत सत्य ही हैं।

देखो अगम्य हरि की लीला।
बिना जान सके ना कोई।
श्रुति, शास्त्र, वेद मूक रह गए।
जान ना पाया कोई॥

श्रीहरि की लीला अगम्य है यानी समझ में न आनेवाली, समझ से परे है और वह केवल ये श्रीहरि ही जानते हैं। श्रुति और शास्त्र भी जहाँ पर हरि की लीला नहीं जान सके, वहाँ पर सामान्य मनुष्य की क्या औकात? घटपटवादी अथवा वाद-विवाद में ही अपने आप को धन्य माननेवाले शब्दपंडितों के झमेलों में ना पड़े वही बुद्धिमानी है। क्योंकि श्रीहरि ये निजभक्तों को ही प्राप्त होते हैं, ये साईनाथ भोले भक्तों के वश में ही रहते हैं। ये श्रीहरि प्रेम के भूखे हैं। इसीलिए ये भोले भक्तों के प्रेमवश ही उनके बनकर रहते हैं। इनकी महिमा हठवादी दंभी कभी भी नहीं जान पाते हैं। हेमाडपंत के ये शब्द हमारे लिए काङ्गी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इससे हमें एक बात का पता तो विशेष रूप से चलता है कि साईनाथ को भोली भक्ति ही पसंद है। भक्त की भोली भावना ही भक्त को इनका सामीप्य प्रदान करती है, इनके सख्यत्व का लाभ प्रदान करती है। द्वितीय अध्याय के भावार्थ में हमने यह देखा कि भोली भावना ही द्वारकामाई की सीढ़ी है और इसीलिए भोला भाविक ही द्वारकामाई की सीढ़ी चढ़कर बाबा तक पहुँच सकता है।

आगे हेमाडपंत ने बाबा ने ग्रंथलेखन की अनुमति देते समय जो अत्यन्त सुंदर बोध किया, उसी को उन्होंने पंक्तिबध्द किया है।

इसी में तुम्हारा कल्याण है।
मेरा भी अवतरण इस से सार्थक होगा।
जो मुझे अनन्य भाव से देखता है।
उसके योगक्षेम का वहन मैं ही करता हूँ॥

बाबा यहाँ पर कहते हैं कि इस प्रकार से भोली भावना के साथ प्रवास करने में ही मानव का कल्याण है। जो कोई भी भोली भावना के साथ साईनाथ के चरणों में अनन्यशरण हो जाता है, उसका कल्याण होता ही है। बाबा आगे यह भी कहते हैं कि मैं स्वयं अवतार धारण क्यों करता हूँ। इसका कारण बताते हुए वे यही कहते हैं कि भोले भक्तों का कल्याण करना, उन्हें श्रेयस की प्राप्ति करवाना, उन्हें सख्यत्व देकर गोकुल में हमेशा के लिए स्थिर करना इसी लिए मैं अवतार धारण करता हूँ। ‘जो मुझे अनन्यत्व रूप में देखता रहता है, ऐसा जो मेरा भोला भक्त है, उसके योगक्षेम का वहन मैं ही करता हूँ।’ इसका यकीन साईनाथ यहाँ पर देते हैं।

स्वामी समर्थ ने अपना अवतार कार्य समाप्त करने से पहले यही अभिवचन अपने भक्तों को दिया था। यही गवाही स्वयं भगवान श्रीकृष्णने भी गीता में दी है।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

ये साईनाथ अपने भक्तों के योगक्षेम का वहन करने के लिए पूर्ण समर्थ एवं तत्पर हैं, मुझे ही अपनी भूमिका को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए। भक्तों की प्रगति दास्यत्व तक होने के लिए इस भूमिका का ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है। इस गवाही के द्वारा ‘मैं कदापि तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा’, ‘तुम्हारे योगक्षेम का वहन मैं ही करूँगा’ यही भगवान अपने दास से कह रहे हैं। इसके लिए मुझे तीन मुद्दों पर गौर करना अत्यन्त आवश्यक है जो भगवान श्रीकृष्ण ने ऊपर लिखित श्‍लोक में कहा है,

१) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां
२) ये जना: पर्युपासते
३) तेषां नित्याभियुक्तानां

इन तीन चरणों में इन तीन मुद्दों को कहकर उसके पश्‍चात् आगे उन्होंने ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ यह गवाही भगवान दे रहे हैं। भगवान हमारे योगक्षेम का वहन करें यह तो हम चाहते हैं, परन्तु क्या इसके लिए इन तीन मुद्दों को हम अपने जीवन में उतारते हैं? इस बात का विचार तो हमें करना ही चाहिए।

ये तीन मुद्दे हैं –
१) अनन्यशरण
२) पर्युपासना (परि-उपासना)
३) नित्याभियुक्तत्व (नित्य-अभियुक्तत्व)

अगले लेख में हम इन तीन मुद्दों के संबंध में अध्ययन करेंगे। इन तीनों बातों का हमारे जीवन में होना यही निश्‍चिन्तता की घुट्टी है, दास्यत्व की बरसात है, जो काले बादलों से छटकर हमारे जीवन में बरसकर हमारे जीवन को सौंधी-सौंधी खुशबू से महका देती है।

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