श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- २८)

जानकर मेरी मनोकामना। कृपा उत्पन्न हुई साईसमर्थ के मन।
कहा मन:पूर्वक लिख सकोगे। मैंने चरणों में माथा टेक दिया।
दिया मुझे उदी का प्रसाद। सिर पर रखते हुए वरदहस्त।
साई सकलधर्म विशारद। भाव जानते भक्त के मन का।

हेमाडपंत के मन की इच्छा सुनकर साईनाथ ने उन पर कृपा की और कहा, ‘तुम्हारी इच्छा सफलतापूर्वक पूर्ण होगी।’ यह कहकर साई ने उन्हें उदी का प्रसाद दिया और उनके सिर पर वरदहस्त रख दिया। ‘कथा-बातचीत आदि अनुभवों को समुचित रूप में संग्रह कर लो’ ऐसा बाबा ने उनसे कहा। हेमाडपंत कहते हैं कि मानों मेरी मनोकामना जानकर बाबा ने मेरी इच्छा पूरी कर दी और मुझे चरित्र लिखने की अनुमति प्रदान कर दी। पर बाबा ने केवल अनुमति ही नहीं दी, बल्कि चरित्र लेखन करने के पीछे रहनेवाली भूमिका को भी स्पष्ट रूप में बता दिया और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इसमें ‘साईनाथ ही कर्ता हैं’ यह भाव भी हेमाडपंत के मन में पूर्णत: दृढ़ हो जाने के लिए चरित्रलेखन की अनुमति देते समय साई मौलिक उपदेश भी करते हैं। साई माधवराव से कहते हैं-

ठीक है अब कार्य आरंभ कर दो। इसके लिए मेरी पूरी अनुमति है।
यह (हेमाडपंत) तो केवल निमित्त है। लिखूँगा अपनी कथा स्वयं मैं ही।
मेरी कथा में ही कहूँगा। भक्तेच्छा मैं ही पूरी करूँगा।
इससे अहंवृत्ति नष्ट होकर। मेरे चरणों में समर्पित हो जायेगी।

मनोकामना

‘दफ्तर ठेवा’ अर्थात ‘साईचरित्रलेखन कार्य आरंभ कर दो’, यह बाबा ने हेमाडपंत से कहा। इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि हेमाडपंत को मेरी ओर से पूरी सहायता मिलेगी, इस कार्य के लिए मैं सदैव उसके पीछे खड़ा ही हूँ। यहाँ पर हमें एक महत्त्वपूर्ण बात का पता चलता है कि बाबा तो सर्वत्र हैं ही, उनके बिना रिक्तस्थान कहीं है ही नहीं। परन्तु मेरे जीवन में बाबा साक्षीभाव में हैं या सहाय्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं, यह अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ पर बाबा कहते हैं कि ‘उसे मेरी पूरी सहायता मिलेगी’ अर्थात हेमाडपंत एवं उनके कार्य के लिए बाबा की ओर से पूरी सहायता है। बाबा सदैव सक्रिय रहकर हेमाडपंत को कदम-कदम पर सहकार्य करनेवाले हैं, उनका सारा भार बाबा स्वयं वहन करने वाले हैं।

तुम्हारा भार वहन करूँगा मैं सर्वथा। नहीं है अन्यथा यह बचन मेरा॥

यहाँ पर बाबा हेमाडपंत को यही संदेश दे रहे हैं। हमें यहाँ पर यह सीखना चाहिए कि हमारे जीवन में भी साईनाथ सक्रिय रूप में, कर्ता की भूमिका में प्रकट हो, यदि ऐसा हम चाहते हैं, तो हमें परमेश्‍वरी नियमों के अनुसार आचरण करते हुए भक्तिसेवा के कार्य में अपनी पूरी क्षमता के अनुसार क्रियाशील रहना चाहिए। जिसके मन में यह विचार सदैव रहता है कि मैं भक्तिसेवा कार्य में किस तरह से अधिकाधिक सहभागी हो सकता हूँ, उनके जीवन में ये साईनाथ प्रकट होते ही हैं। जो इस विचार के साथ जैसे हो सकेगा, वैसी सेवा करने का निश्‍चय करके अपनी पूरी क्षमता नुसार कार्य में कृतिशील रहता है, उसका सारा भार ये साईनाथ ही वहन करते हैं। उसका घरबार, गृहस्थी, बाल-बच्चे, नौकरी-व्यवसाय आदि किसी भी चीज़ का त्याग करने की आवश्यकता नहीं हैं। यह सब करते करते ही जैसे अवसर मिले, जितना अधिक समय निकाल सकता हूँ, उसी के अनुसार मैं सेवाकार्य में सहभागी होते रहता हूँ, तब साई को ही मेरी चिंता लगी रहती हैऔर वे ही मेरा योगक्षेम का वहन पूर्णत: करते ही हैं। हेमाडपंत ने कहीं पर भी किसी प्रकार के गृहस्थी से संबंधित जिम्मेदारियों का त्याग न करते हुए साईसच्चरित की रचना की। हमें यहाँ पर इसी बात पर ध्यान देना चाहिए कि मैं अपनी पूरी क्षमता के साथ, गृहस्थी की गाड़ी चलाते हुए परमार्थ के लिए भी दक्ष रहता हूँ, सक्रिय रहता हूँ तब साईनाथ मेरे जीवन में ‘कर्ता’ बनकर प्रकट होते हैं। हेमाडपंत के जीवन में भी साईकृपा से ही यह सर्वोत्कृष्ट स्थिति प्रकट हुई।

जिस तरह बाबा कहते हैं, ‘वह तो केवल निमित्त है। लिखूँगा अपनी कथा मैं ही।’ हेमाडपंत तो केवल निमित्त हैं (जिस तरह लिखने के कार्य में कलम यह निमित्त है, लिखनेवाला तो कोई और ही है, उसी तरह यहाँ पर हेमाडपंत साईनाथ के हाथ की कलम बन गये हैं), मेरा चरित्र मैं ही लिखूँगा। हमें भी इस तरह निमित्त बनने में क्या हर्ज़ है। परन्तु यह निमित्त कौन बन सकता है? तो वही जो यह मानकर चलता है कि बाबा का कार्य बाबा ही करते हैं, मैं तो उनके दरबार का एक दास मात्र हूँ और मुझे यह कार्य करने के लिए संपूर्ण सामर्थ्य साई ने ही देकर मुझे निमित्त बनाया है। ऐसा भाव जो रखता है।

निमित्त बनना यानी क्या? आसान सा उदाहरण देखते हैं। सायकिल पर बैठकर एक व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर गया। इस जाने में ‘सायकिल’ ‘निमित्त’ है, क्योंकि यदि वह चालक यदि नहीं होता तो वह सायकिल वहीं रह जाती। उसकी अपनी स्वयं की गति नहीं है। हम भी कहते समय यही कहते हैं वह आदमी यहाँ से वहाँ गया।  हम कभी यह नहीं कहते कि वह सायकिल यहाँ से वहाँ गयी। सायकिल उसकी खुद की है; परन्तु उसे चलाने का परिश्रम एवं इच्छा मात्र उसकी अपनी है। किस रास्ते से जाना है, कहाँ पर रुकना है, कहाँ पर  मुड़ना है, किस गति से जाना है, किस दिशा से जाना है आदि सबकुछ निश्‍चित करनेवाला वही है, सायकिल को इसमें से कुछ भी मालूम नहीं है। सायकिल के पास अपनी खुद की इच्छा नहीं हैं, उसके पास ज्ञान नहीं हैं, सायकिल को कुछ भी पता नहीं है। सायकिल का काम केवल एक ही है, ‘निमित्त’ बनकर अपनी भूमिका निभाना।

उस व्यक्ति के पास स्वयं की मोटर तो है ही, परन्तु इसके साथ ही चार्टर्ड हवाई जहाज भी है, इसीलिए वह किसी भी साधन का उपयोग करके कही भी जा सकता है। रेलगाड़ी, जहाज उसके पास अपना खुद का है, वह उन सबके द्वारा भी अपना प्रवास कर सकता है। इसी लिए ‘सायकिल’ यहाँ पर सचमुच ‘निमित्त’ ही है, बाबा भी किसी से भी कुछ भी करवा लेने में समर्थ हैं, उन्होंने इस कार्य के लिए मुझे चुना है इसमें मेरा कोई बड़प्पन नहीं हैं बल्कि उनकी कृपा ही है कि उन्होंने मुझे ‘निमित्त’ बनने का सु-अवसर प्रदान किया।

हेमाडपंत को इस बात का पूरा ध्यान है। और साईसच्चरित में हर स्थान पर हम देखते ही हैं। बाबा भी यहाँ पर इसी सत्य को हेमाडपंत को ‘निमित्त’ बनाकर हमें इस सच्चाई से परिचित करवाना चाहते हैं कि तुम सभी लोग जो कुछ भी सेवा भक्ति कर रहे हो, उपासना करते हो, वह सब कुछ करनेवाले तुम सभी केवल निमित्त ही हो। ‘कर्ता (करनेवाला) और करविता (करवाने वाला)’ मैं ही हूँ। हमें बाबा के इस बोल को हृदय पर अंकित करके रखना चाहिए। मैं यदि कोई सेवा करता हूँ, बिलकुल दिलोजान से करता हूँ इसीलिए मुझ में इस बात का अहंकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि कर्ता तो केवल साईनाथ ही हैं और करविता भी वे ही हैं, मैं तो केवल निमित्त हूँ।

आगे भी बाबा यही कहते हैं कि मेरी कथा मैं ही कहूँगा, भक्तों की इच्छा भी मैं ही पूरी करूँगा। भक्त को यहाँ पर बस यही करना कि साईनाथ के चरणों में अपने अहंवृत्ति का त्याग कर देना है। यहाँ पर ‘अहंवृत्ति का त्याग और वह भी साईचरणों में’ यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि यही भक्तों का ‘पुरुषार्थ’ है। बाबा ही सब कुछ करनेवाले हैं, फिर मैं हाथ-पैर पसारे बिना कुछ किए ही यूँ बैठा रहूँगा तो थोड़े ही चलनेवाला है। अहंवृत्ति का त्याग करना अर्थात कर्म करते रहना और कर्म करते-करते हर एक कर्म साईचरणों में ‘इदं न मम’ कहते हुए अर्पण करना है, ‘अहं’ वृत्ति की आहुति देनी है बाबा की धुनी में।

‘श्रीसाईनाथार्पणमस्तु’ यह दृढ़ निष्ठा ही हमारे जीवन में अखंड रूप में प्रज्वलित रहने वाली साईनाथ की धुनी है। हमारे अंतर्मन में अर्थात् द्वारकामाई में ‘श्रीसाईनाथार्पणमस्तु’ इस दृढ़ भाव की धुनी अखंड रूप में प्रज्वलित रहती है क्योंकि हमारे अंतर में रहने वाले महाप्राण यही यज्ञ करते रहते हैं। परन्तु हमें ही इस धुनी का विस्मरण हो जाता है और हम अपने अहंकार की अग्नि में अधिक से अधिक तेल डालते रहते हैं। फिर इस अहंकार की अग्नि हमें जलाकर राख कर देती है।

यहाँ पर बाबा जो बताते हैं वही सच्चा श्रेयस्-प्राप्ति का मार्ग है। हमें अपने ही घर में आग लगाने की अपेक्षा इस साईनाथ की धुनी में अहंकार को ही राख कर देना चाहिए और इस धुनी में अहंकार की रूखी लकडी जल जायेगी और हमें प्राप्त होगी साईकृपा रुपी उदी। किसी बात को मन से दूर करना अर्थात धीरे-धीरे उसे दूसरी बातों में विलीन करते रहना, जिस तरह बारिश का पानी ज़मीन में समा जात है। हमें इस साई के चरणों में ही अपनी इस अहंवृत्ति का त्याग करना है और इसके लिए मन से ‘श्रीसाईनाथार्पणमस्तु’ कहते हुए अपने हर एक कर्म को इस दृढ़भाव के साथ साईचरणों में समर्पित कर देना चाहिए।

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