परमहंस-१४५

बारानगर में रामकृष्ण संप्रदाय के पहले मठ की स्थापना हुई। इस मठ की स्थापना होने में सुरेंद्रनाथजी का अहम सहभाग था। उन्होंने उस घर के किराये की ज़िम्मेदारी तो उठायी ही; साथ ही, उन संन्यस्त गुरुबंधुओं के दैनंदिन खर्चे में भी हिस्सा उठाया। शुरू शुरू में किराये के साथ ३० रुपये प्रतिमाह खर्चे के लिए देनेवाले सुरेंद्रनाथजी ने धीरे धीरे वह रक़म बढ़ाते हुए, १०० रुपये प्रतिमाह देना शुरू किया।

उस घर को ‘संप्रदाय के मठ’ के रूप में आकार प्रदान करने में सुरेंद्रनाथजी ने महत्प्रयास किये। मठ में रहनेवाले संन्यस्त गुरुबंधुओं का वे किसी बड़े भाई की तरह खयाल रखते थे और उनका ध्यान उपासना से विचलित न हों इसके लिए, उन्हें होनेवालीं संभाव्य सांसारिक मुश्किलें कम से कम कैसे हो सकती हैं, इसीके बारे में वे सोचते थे।

रामकृष्णजी की महासमाधि के बाद मजबूरन् अपने अपने घर चले गये, संन्यस्तवृत्ति अपनाये हुए उनके नित्यशिष्य, अब एक एक करके इस मठ में रहने के लिए आने लगे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णसंन्यास लेंगे, यह बताकर झगड़ा करके घर का त्याग करने के बाद अब पुनः घर लौटे हैं, इसलिए उनमें से कुछ लोगों को उनके परिवारवालों ने तानें भी मारे थे। लेकिन अब वही उनके परिवारवालें, उन्हें पुनः घर ले जाने हेतु मनाने के लिए मठ के चक्कर लगाने लगे। वे उनके सामने गिड़गिड़ाते थे, उनसे विभिन्न युक्तिवाद करते थे, उनसे झगड़ा करते थे, उनके सामने आँसू बहाते थे, वे यदि घर नहीं लौटें तो अपनी जान दे देने की धमकियाँ भी उन्हें देते थे। लेकिन अब वैराग्य की ज्योति बहुत ही प्रखरता से प्रज्वलित हो चुके इन युवा संन्यासियों पर इन ‘उपायों का’ कुछ भी असर होनेवाला नहीं था। दरअसल घर में सब सुखसुविधाएँ थीं, कई लोग अमीर घर से थे। घर में नौकरचाकर खिदमत में रहते थे। लेकिन फिर भी रामकृष्णजी ने उनके मन में प्रज्वलित की हुई यही ज्योति, उन्हें अपनी सुखासीन ज़िन्दगी को छोड़कर ईश्‍वरप्राप्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा बन चुकी थी।

यह ज्योति इतनी प्रखर थी कि ईश्‍वरप्राप्ति के लिए प्रयास करते समय, साधनाउपासनाएँ करते समय उन्हें भूख़प्यास की भी सुधबुध नहीं रहती थी। कभी कभी थाली में परोसा हुआ खाना भी वे भूल जाते थे। मूलतः केवल चावल और नीम के पत्ते उबाला हुआ पानी इतना सादा भोजन रहता था। वह भी, उसके लिए चावल आदि पदार्थ हों, तो ही बनता था। अन्यथा केवल पानी पीकर वे पुनः साधना में मग्न हो जाते थे। अनाज खत्म हुआ है, इस बात का जब सुरेंद्रनाथजी को पता चलता था, तब जाकर वह पुनः खरीदा जाता था। ऐसी मुश्किलों की परवाह न करते हुए इन संन्यस्त नित्यशिष्यों ने अपनी साधना, ध्यानधारणा आदि निग्रहपूर्वक जारी रखी थी।

रामकृष्णजी की महासमाधि के बाद शारदादेवी ने बनारस, वृंदावन आदि उत्तर भारत के तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की। उनमें से हर एक तीर्थक्षेत्र में कई दिनों तक रहकर उन्होंने प्रखर साधना की। योगिन माँ, गोलप माँ आदि रामकृष्णजी की स्त्रीशिष्यों ने, रामकृष्णजी जब भौतिकरूप में जीवित थे तभी से, शारदादेवी की हरसंभव सेवा यही अपना जीवनव्रत मान लिया था और उसे वे निष्ठापूर्वक निभातीं थीं। शारदादेवी की इस तीर्थयात्रा में ये स्त्रीशिष्याएँ भी उनके साथ थीं।

तीर्थयात्रा से लौटने के बाद शारदादेवी कामारपुकूर में रहकर अपनी साधना और इच्छुकों को मार्गदर्शन करने लगीं। लेकिन उस दौर में रामकृष्णजी के नित्यशिष्य मठ की स्थापना के काम में व्यस्त होने के कारण शारदादेवी की ओर उचित ध्यान न दे सके। इस कारण उचित व्यवस्था के अभाव की वजह से शारदादेवी बहुत ही विपन्नता में जीवनक्रमणा कर रही थीं। कभी कभी तो अनाज के न रहते उन्हें भूखा भी रहना पड़ता था। लेकिन उन्होंने कभी किसी से तक़रार नहीं की, ना ही कभी किसी के पास इसका ज़िक्र किया। वे अपनी साधना में व्यस्त रहती थीं। शिष्यों में से ही किसी के ध्यान में यह बात आ गयी और तभी सारे चक्र घूमकर शिष्यों की भागादौड़ी शुरू हुई और रामकृष्णजी और शारदादेवी से क्षमा माँगकर उन्होंने शारदादेवी के लिए कोलकाता में ही निवास का प्रबन्ध किया। शारदादेवी के उस निवासस्थान को आज भी रामकृष्णसंप्रदाय में ‘उद्बोधनभवन’ के नाम से जतन करके रखा गया है।

सांसारिक, गृहस्थाश्रमी महिलाओं को, गृहस्थी में रहते हुए आध्यात्मिक प्रगति करने के बारे में मार्गदर्शन करने का जो नियत कार्य शारदादेवी को रामकृष्णजी द्वारा सौंपा गया था, उसे उन्होंने अगले कई साल तक, जीवन के अन्त तक निभाया। रामकृष्णजी के बाद रामकृष्णशिष्यों को शारदादेवी का ही आधार प्रतीत होता था। कई इच्छुकों को दीक्षा देकर उन्होंने भक्तिमार्ग में स्थिर किया।

रामकृष्णजी के बाद तैयार हुए उनके संप्रदाय के भक्तगण भी मार्गदर्शन हेतु शारदादेवी के पास ही आते थे। शारदादेवी के ही मार्गदर्शन में आगे चलकर रामकृष्णसंप्रदाय ने सुयोग्य आकार धारण किया।

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