परमहंस-१४६

इस लेखमाला में हमने रामकृष्णजी के – ‘गदाधर’ से ‘परमहंस’ तक के जीवनप्रवास का अध्ययन करने के प्रयास किए।

रामकृष्णजी के दौर में समाज में विभिन्न विचारधाराएँ प्रचलित थीं। ‘ईश्‍वरप्राप्ति यह बहुत ही मुश्किल बात है और आम गृहस्थाश्रमी इन्सान के बस की वह बात हरगिज़ नहीं है’, ‘भक्ति और गृहस्थी ये अलग बातें होकर, भक्ति के लिए गृहस्थी का त्याग करने पड़ेगा’, ऐसीं धारणाएँ समाज में दृढ़ हो चुकी थीं।

साथ ही, भक्ति का जोड़ ग़लत बातों के साथ लगाने के कारण, ‘भक्ति यह जीवन में बाकी सारीं बातें हासिल करने के बाद जीवन के संध्याकाल में करने की बात है’ ऐसी ग़लतफ़हमी समाज में फैलने लगी थी।

उसीके साथ, ईश्‍वर के सगुण रूपों को कम मानकर या फिर अमान्य ही करके, ‘निर्गुण निराकार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है’ यह प्रतिपादित करनेवाले विचार की ओर भी उस समय का नवशिक्षितवर्ग आकृष्ट होने लगा था।

और तो और, विभिन्न संप्रदायों के अनुयायियों में, ईश्‍वर के स्वरूप के बारे में, ईश्‍वरप्राप्ति के मार्गों के बारे में होनेवाले मूलभूत मतभेद थे ही।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइन सभी ग़लतफ़हमियों को, धारणाओं को छेद देने का काम रामकृष्णजी ने अपने इस जीवनप्रवास के ज़रिये किया। ईश्‍वरप्राप्ति का जो साधन भक्ति, वह गृहस्थी में रहकर भी की जा सकनेवाली बात है और वह आम इन्सानों से की जा सकनेवाली बात यक़ीनन ही है, यह बात रामकृष्णजी ने अपने आचरण के द्वारा दिखा दी।

हररोज़ सांसारिक समस्याओं से जूझते समय, आम इन्सान, इच्छा होते हुए भी सातत्यपूर्वक भक्ति नहीं कर सकता। जैसी तैसी टूटीफूटी भक्ति की जाती है, वह भी या तो काम्यभक्ति होती है यानी कुछ ऐहिक चीज़ पाने के लिए की जानेवाली भक्ति होती है या फिर भगवान क्रोधित होंगे इस भय के कारण की जानेवाली भक्ति होती है। जहाँ ‘भक्ति’ का ‘भ’ है, वहाँ ‘भय’ का ‘भ’ नहीं हो सकता, यह सत्य संसार के क्रियाकलापों में अनजाने ही नज़रों से ओझल हो जाता है।

आम इन्सान की इस व्यथा को जानकर रामकृष्णजी ने ईश्‍वरप्राप्ति का राजमार्ग ही मानो आम इन्सानों के लिए खुला किया और वह भी पहले खुद उस मार्ग पर चलकर!

वह मार्ग था ईश्‍वर से प्रेम करने का….ईश्‍वर से स्वयं की अपेक्ष अधिक प्रेम करने का!

इस सारे विश्‍व के निर्माता होनेवाले उन परमात्मा को पैसा, सोनाचाँदी आदि किसी भी भौतिक चीज़ से बाँधा नहीं जा सकता। लेकिन मूलतः प्रेमस्वरूप ही होनेवाले वे परमात्मा केवल प्रेम से ही वश में किये जा सकते हैं और परमात्मा से प्रेम करने के लिए किसी भी कर्मकांड की, किसी कठोर व्रतों की, गृहस्थी का त्याग करने की ज़रूरत नहीं है; परमात्मा से ऐसा प्रेम यह गृहस्थी में रहकर भी, सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करते समय भी आसानी से किया जा सकता है।

इसी सत्य को रामकृष्णजी ने भक्तिमार्ग पर के अपने प्रवास से अधोरेखांकित किया। ‘ब्रह्म सत्य, जगन्मिथ्या’ इस वचन का वास्तविक अर्थ उन्होंने लोगों को दिग्दर्शित किया।

अहम बात, उनके वचन ये केवल दोचार आध्यात्मिक पुस्तक पढ़कर किये पढ़तविद्वानों के अनुभवशून्य वचन नहीं थे, बल्कि अनुभवसिद्ध वचन थे। क्योंकि इस ‘सत्य’ ब्रह्म की प्राप्ति कर लेने के प्रवास के दौरान उन्होंने अनगिनत आध्यात्मिक प्रयोग किये और उन प्रयोगों में हुए अनुभवों पर उनके अगले प्रवास की दिशा तय होती गयी। इन अनुभवों में से घटित हुए उनके भक्तिप्रवास में ‘ईश्‍वर कर्ता, मैं केवल साधन’ यह उनकी भूमिका दृढ़ होती गयी, जो श्रद्धावानों के लिए मार्गदर्शक साबित होगी।

इसी कारण, रामकृष्णजी का वर्णन करते समय महात्मा गांधीजी ने जो वचन कहे (जिन्हें इस लेखमाला की शुरुआत में ही हमने देखा) – ‘रामकृष्ण परमहंस का जीवनचरित्र यानी दैनंदिन जीवन में भी धर्मपालन किस तरह किया जा सकता है, इसकी मूर्तिमान् मिसाल ही है। उनके जीवनचरित्र का पठण हमें, परमात्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर लेने के लिए आवश्यक रहनेवाली मन की बैठक प्रदान करता है।’ वे कितने यथार्थ हैं, यह हमारी समझ में आता है।

इसीलिए रामकृष्ण परमहंसजी का जीवनचरित्र, प्रेमपूर्वकभक्तिमार्ग पर चलना चाहनेवाले श्रद्धावानों के लिए मार्गदर्शक और आश्‍वासक साबित होता है, उन्हें हमेशा प्रेरणा देते रहता है।

(समाप्त)

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