क्रान्तिगाथा- १९

दिल्ली! क्रान्तिकारियों के लिए दिल्ली जितनी अहमियत रखती थी, उतनी ही अँग्रेज़ों के लिए भी। अब दिल्ली के आसपास के छोटे बड़े इलाक़ों में से क्रान्तिवीर दिल्ली आने लगे। अपने शहर या गाँव की अँग्रेज़ हुकूमत का तख्ता पलट देने के बाद वहाँ के भारतीय सैनिक हाथ आये खज़ाने, शस्त्र-अस्त्रों को लेकर दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे। मई और जून १८५७ में दिल्ली के आसपास के छोटे बड़े शहरों और गाँवों में यह एकसमान चित्र दिखायी दे रहा था।

वहाँ पर अँग्रेज़ भी तैयारी करने में जुट गये थे और पंजाब इला़के से उन्हें सैनिकी सहायता मिल रही थी।

जून के पहले हफ्ते में ‘बदली/बुंदेल की सराय’ में हुई मुठभेड़ के बाद अँग्रेज़ों के लिए दिल्ली में दाखिल होने का रास्ता खुल गया था। अब वहाँ के अँग्रेज़ जनरल ने दिल्ली पर कब्ज़ा करने की योजना बनायी। १३ जून की भोर के पहले अँधेरे में ही हमला करने का तय किया गया। अँग्रेज़ों ने अपनी फ़ौज इकठ्ठा की। लेकिन हमले के वक़्त किसी कारणवश सारे सैनिक एकत्रित नहीं हो सके और इस वजह से उस अँग्रेज़ जनरल की हमले की कोशिश नाक़ाम साबित हो गयी।

१३ जून के आसपास की यह कोशिश नाक़ाम हो जाने के बाद भी हमला करने की योजना अँग्रेज़ बना ही रहे थे। अब दिल्ली में युद्ध की ज्वालाएँ भड़क उठीं। दिल्ली में इकठ्ठा हुए क्रान्तिवीर और अँग्रेज़ों का अब आमना-सामना हो गया। क्रान्तिकारियों के छोटे बड़े दल सीधे सीधे अँग्रेज़ों पर अब आक्रमण करने लगे। १९-२० जून के आसपास क्रान्तिकारियों द्वारा इसी तरह का आक्रमण अँग्रेज़ों पर किया गया और उन्होंने अँग्रेज़ों को वहाँ से खदेड़ दिया। इस आक्रमण में अब तक अँग्रेज़ों को मुँह की खानी पड़ रही थी और इस बात से दिल्ली का मनोबल का़फ़ी बढ़ रहा था।

२३ जून १८५७ का दिन! प्लासी की जंग होकर एक सदी बीत चुकी थी। तो फ़िर इस दिन दिल्ली में स्थित क्रान्तिकारी भला चुप कैसे बैठ सकते थे? वे चले, अँग्रेज़ों पर धावा बोलने! २३ जून १८५७ के दिन अँग्रेज़ों पर हुआ यह आक्रमण बहुत ही प्रभावी था, दर असल प्रखर था। आमने सामने खड़े क्रान्तिवीर और अँग्रेज़ी फ़ौज दिन भर एक दूसरे से लड़ रहे थे, ऐसा वर्णन इतिहासकार करते है।

लेकिन अब तक आक्रमणों के आघात पचा चुके अँग्रेज़ों का सेनाबल अब इसके बाद बढ़ने लगा था। अँग्रेज़ों द्वारा पंजाब से भेजे गये सैनिक जैसे जैसे यहाँ की अँग्रेज़ी फ़ौज में आकर मिल रहे थे, वैसे वैसे उनकी संख्या कुछ हज़ारों के आँकड़े को पार करती जा रही थी।

अब जुलाई महीने का पहला दिन आ गया था। इस दिन क्रान्तिकारियों का एक बड़ा सेनापथक दिल्ली में आकर दाखिल हो चुका था। बरेली के सैनिकों का यह पथक अपने कमांडर-इन-चीफ़ बख्त खान की अगुआई में दिल्ली आ गया। बड़े ही अनुभवी ऐसे बख्त खान के दिल्ली आने से एक महत्त्वपूर्ण बात हुई।

अब तक दिल्ली में दाखिल हो चुके क्रान्तिकारियों ने दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफ़र को अपना ‘राजा’ नियुक्त कर दिया था। लेकिन इस पूरी सेना को एकत्रित रूप में लडने के लिए एक नेतृत्व की आवश्यकता थी। बख्त खान के आने से सैनिकों को अगुआई करनेवाला सरसेनापति मिल गया।

दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफ़र ने शपथ विधि समारोह करके क्रान्तिवीरों की इस सेना का नेतृत्व बख्त खान के पास सौंप दिया। दिल्ली दाखिल होते ही कुछ ही दिनों में बख्त खान ने अँग्रेज़ों पर पहला आक्रमण कर दिया और अँग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया, इतना कि अँग्रेज़ों की सेना पीछे हट गयी। साथ ही अँग्रेज़ों के कुछ अफ़सर नेतृत्व करने की हालत में नहीं थे। उनमें से एक इस आक्रमण के दौरान ज़ख्मी हो गया था; वही दुसरा किसी बीमारी का शिकार हो गया था।

जुलाई महीने में अँग्रेज़ों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। दिल्ली अब भी अँग्रेज़ मुक्त ही थी। क्या अब दिल्ली पर पुन: कब्ज़ा करना यह एक ख्वाब ही बनकर रहेगा, यह विचार अँग्रेज़ों के मन में उठने लगा। मग़र चाहे जो भी हो जाये, अँग्रेज़ दिल्ली को छोड़नेवाले नहीं थे। क्योंकि दिल्ली के हाथ से चले जाने पर भारत पर स्थापित हुई सत्ता से हमें हाथ धोना पड़ सकता है, यह बात अँग्रेज़ों के नेतृत्व ने जान ली थी।

इसी वजह से दिल्ली से दूर हटने के लिए अँग्रेज़ तैयार नहीं थे। वहीं क्रान्तिकारियों ने अँग्रेज़ों की नाक में दम कर रखा था।

लेकिन अगस्त के मध्य में निकोल्सन नाम का एक अँग्रेज़ ब्रिगेडियर बहुत बड़ी फ़ौज के साथ दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए लड़नेवाले अँग्रेज़ों की सेना में आकर शामील हो गया और उसके आने से अँग्रेज़ों की फ़ौज में जोश आ गया।

अगस्त के अन्तिम सप्ताह में हो रही मूसलाधार बारिश, बाढ़ से भर गये रास्ते इन हालातों में भी दोनों पक्ष लड़ रहे थे। मग़र २५ अगस्त १८५७ का दिन अँग्रेज़ों के लिए उत्साहपूर्ण माहौल निर्माण करने वाला साबित हुआ। क्योंकि इस दिन क्रान्तिकारियों पर किये हुए हमले में अँग्रेज़ों को क़ामयाबी मिली थी। इस भिड़ंत में नीमच से आये क्रान्तिकारियों को का़फ़ी नुक़सान सहना पड़ा।

अब सितंबर का महीना शायद दिल्ली का भवितव्य तय करनेवाला साबित होनेवाला था!

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