७६. धीरे धीरे सशस्त्र स्वतंत्रतासंग्राम की ओर….

धीरे धीरे सशस्त्र स्वतंत्रतासंग्राम की ओर….

अब युद्ध अटल है, इसका अँदाज़ा हो जाने के कारण ज्यूधर्मियों ने उस दृष्टि से पॅलेस्टाईन में अपना संख्याबल एवं युद्धसंसाधन बढ़ाने की, साथ ही बंजर ज़मीनों पर ज्यू-बस्तियों का निर्माण करने की ज़ोरदार शुरुआत की थी। ब्रिटीश सरकार ने लगायी हुईं स्थलांतरण पर की पाबंदियों को ठुकराकर, हॅगाना की मदद से अधिक से अधिक ‘बिनापरवाना’ ज्यूधर्मीय स्थलांतरितों को किसी न किसी मार्ग से चुपचाप पॅलेस्टाईन प्रान्त में घुसाने की प्रक्रिया ज़ोरो-शोरों से शुरू थी।

ज्यूधर्मियों ने पॅलेस्टाईन में अपने संख्याबल को तथा युद्धसंसाधनों को बढ़ाने की, साथ ही बंजर पड़ीं ज़मीनों पर ज्यूबस्तियों का निर्माण करने की ज़ोरदार शुरुआत की थी।

लेकिन इनमें से सभी नसीबवाले नहीं होते थे। इनमें से कुछ इस प्रक्रिया के दौरान ब्रिटीश सेना के हाथ लग जाते थे और फिर या तो मारे जाते थे या फिर ग़िरफ़्तार होकर, उस ज़माने में ब्रिटीश उपनिवेश होनेवाले सायप्रस स्थित जेल में भेजे जाते थे।

अब शस्त्रसज्ज हुए और प्रत्यक्ष युद्धक्षेत्र के युद्ध का बाक़ायदा प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए हॅगाना के सदस्यों ने भी शुरू शुरू में ‘इर्गुन’ तथा ‘लेही’ के साथ सशस्त्र प्रतिकार में हिस्सा लिया। लेकिन बाद में उन्होंने इससे भी ज़्यादा, ज्युईश स्थलांतरितों को पॅलेस्टाईन में घुसाने के काम पर अपना ध्यान केंद्रित किया।

क्योंकि यह काम अब सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन गया था। हालाँकि विश्‍वयुद्ध तो ख़त्म हो चुका था, युरोपस्थित ज्यूधर्मियों के कष्ट ख़त्म नहीं हुए थे। जर्मनों के कॉन्सन्ट्रेशन कॅम्प्स में से उनकी रिहाई तो हो चुकी थी, लेकिन यह बात उनके लिए कुछ ख़ास आनन्ददायी नहीीं साबित हुई थी। क्योंकि अब वापस लौटने के लिए उनके पास ‘घर’ ही नहीं बचा था। कइयों के पूरे के पूरे परिवारों की मृत्यु हो चुकी थी। जो बचे थे उन्होंने जब अपने पहले के स्थान पर लौटकर जाकर देखा, तो उन्हें ऐसा दिखायी दिया था कि उनके घरों पर अलग ही लोगों ने, स्थानिकों ने कब्ज़ा कर दिया है। ऐसे लोगों के लिए अस्थायी रूप के प्रबंध के रूप में संक्रमण शिविरों (‘डिस्प्लेस्ड पर्सन्स कॅम्प्स’) का निर्माण किया गया था, जिनमें वे मजबूरन् रह रहे थे। लेकिन उनमें से अधिकांश ज्यूधर्मीय पॅलेस्टाईन ही लौटना चाहते थे

बिनापरवाना पॅलेस्टाईन प्रान्त में घुसने की कोशिश करनेवालों में से ब्रिटीश सेना के हाथ लगे कई लोग उस दौर में ब्रिटीश उपनिवेश होनेवाले सायप्रस में जेल में डाले जाते थे।

जिन थोड़ेबहुत लोगों के घर बचे थे, उन्होंने वहाँ जाकर रहने की शुरुआत करने के कुछ ही दिन बाद उनकी समझ में आ रहा था कि ज्यूधर्मियों के बारे में वहाँ के समाजों में होनेवाला वंशविद्वेष अभी तक कम नहीं हुआ है और उन्हें अब हमेशा के लिए ही सामाजिक अवहेलना का सामना करना पड़नेवाला है।

अर्थात जिनके घर उनके नहीं बचे थे, उनके लिए भी और जिनके घर थे उनके लिए भी – पॅलेस्टाईनवापसी के अलावा और कुछ पर्याय ही नहीं बचा था और यहाँ पर ब्रिटीश सरकार अपनी सन १९३९ की श्‍वेतपत्रिका के मुद्दों पर अड़ियल था, स्थलांतरण पर की पाबंदियाँ उठाने के लिए तैयार नहीं थी।

इसपर चर्चिल ने वाईझमन को लिखे एक पत्र में, ज्यू-राष्ट्रनिर्माण के उनके ध्येय के लिए अब इससे आगे अमरीका की सहायता लेने का मशवरा दिया था। क्योंकि अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष ट्रुमन ने इन युरोपस्थित ज्यूधर्मियों की सद्यःस्थिति का रिपोर्ट मँगवाया था और उसके बाद ही उन्होंने ब्रिटीश प्रधानमंत्री अ‍ॅटली को ‘वह’ – ज्यूधर्मियों के पॅलेस्टाईन-स्थलांतरण पर के निर्बंध उठाने का – पत्र लिखा था और अमरीका अब इस मामले में सक्रिय हुई होने के संकेत दिए थे।

दूसरी ओर, विश्‍वयुद्धपश्‍चात् की जित-जेता राष्ट्रों की समझौते की चर्चाएँ जारी ही थीं। पहले विश्‍वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आये ‘लीग ऑफ नेशन्स’ संगठन ने पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र की स्थापना करने की संकल्पना को और तब तक पॅलेस्टाईन को ‘ब्रिटीश मँडेट’ के तहत रखने के लिए मान्यता दी थी। लेकिन अब ‘लीग ऑफ नेशन्स’ का अस्तित्व ही आख़िरी साँसें गिन रहा था। क्योंकि पहला विश्‍वयुद्ध ख़त्म होने के बाद, भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हों इसलिए स्थापन किया गया ‘लीग ऑफ नेशन्स’, दूसरे विश्‍वयुद्ध को टाल नहीं सका था। यह उसकी सबसे बड़ी नाक़ामयाबी मानी जा रही थी।

२२ जुलाई १९४६ को जेरुसलेमस्थित ‘हॉटेल डेव्हिड’ में ‘इर्गुन’ ने किये बमविस्फोटों के बाद हॉटेल डेव्हिड की हुई हालत।

इसी कारण दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद उसी प्रकार का आंतर्राष्ट्रीय संगठन ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ (‘युनायटेड नेशन्स’ – युनो) की स्थापना की गयी थी। ‘लीग ऑफ नेशन्स’ ने ज्यू-राष्ट्र को अनुकूलता दर्शायी होने के कारण, युनो भी ‘ज्यू-राष्ट्र’ संकल्पना को मान्यता देगा, ऐसा ज्यूधर्मीय नेताओं को लग रहा था।

लेकिन इन चर्चाओं का फलित चाहे कुछ भी होने दो, अब अंतिम संघर्ष के लिए अपनी जान पर खेलने के लिए तैयार हुए ज्यूधर्मीय ‘पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र’ इस अपने ध्येय से अंशमात्र भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे।

इस संघर्ष के ही एक हिस्से के रूप में, पॅलेस्टाईनस्थित अन्य सशस्त्र भूमिगत ज्यूइश संगठनों के, पॅलेस्टाईनस्थित ब्रिटीश आस्थापनों पर तथा विभिन्न कार्यालयों पर हमलें बढ़ गये थे।

२२ जुलाई १९४६ को जेरुसलेमस्थित ‘हॉटेल डेव्हिड’ इस अत्याधुनिक सुखसुविधाएँ होनेवाले पश्‍चिमी ढंग के महँगे होटल में ‘इर्गुन’ ने किया हुआ बमविस्फोट, यह उनमें से एक प्रमुख घटना थी। इस हॉटेल डेव्हिड के आधे हिस्से में ब्रिटीश प्रशासन के सैनिकी एवं प्रशासनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ऐसे कई कार्यालय थे। पॅलेस्टाईन और ट्रान्सजॉर्डन में तैनात होनेवालीं ब्रिटीश सेनाओं का मुख्यालय भी वहीं पर था।

हॉटेल डेव्हिड पर का यह हमला यह दरअसल प्रतिक्रियात्मक (रिअ‍ॅक्शनरी) था। उसके कुछ दिन पहले से ब्रिटीश सेना ने और पुलीस ने ज्युइश आस्थापनों पर छापे मारने की (‘ऑपरेशन अ‍ॅगाथा’) शुरुआत की थी। इनमें से कई जगहों पर छिपा शस्त्रसंग्रह और हॅगाना-इर्गुन की अगामी योजनाओं के बारे में गोपनीय कागज़ात उनके हाथ लग गये थे। ये सारे बरामद हुए हथियार और दस्तावेज़ हॉटेल डेव्हिड स्थित ब्रिटीश सरकार के प्रशासकीय कार्यालयों में लाकर रखे गये थे। ये दस्तावेज़ यानी अपने खिलाफ़ का सबूत ज़ाहिर न हों इसके लिए ये कार्यालय ही उड़ा देने की योजना इर्गुन ने बनायी।

दुपहर के दो-तीन बजने के बाद उस होटल के मनोरंजनकेंद्रों में तथा रेस्टॉरंट्स-कॅफेटेरियाज़ में भीड़ होनी शुरू होती थी। लेकिन इर्गुन को यह हमला केवल विशिष्ट कारण के लिए (ब्रिटिशों के कब्ज़े में होनेवाले अपने गोपनीय दस्तावेज़ नष्ट करना और ब्रिटिशों के मन में ख़ौफ़ उत्पन्न करना इसके लिए ही) करना था, उनकी आम जनता से कोई दुश्मनी नहीं थी। अतः होटल के तहखाने में रखे गये ये बम भीड़ के समय को टालकर ही फ़ोड़े गये, जिसमें ब्रिटिशों के कार्यालय होनेवाला होटल का दक्षिणी भाग (‘सदर्न विंग’) पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गया। साथ ही, इन कार्यालयों के कर्मचारी और विभिन्न कारणों से उस समय वहाँ आये अन्य, ऐसे तक़रीबन ९० से भी अधिक लोगों की जानें चली गयीं और ४५ से भी अधिक लोग ज़़ख्मी हो गये।

ब्रिटीश सेना ने और पुलीस ने ज्युइश आस्थापनों पर छापें मारने के बाद (‘ऑपरेशन अ‍ॅगाथा’) उनमें से कई स्थानों पर छिपा शस्त्रसंग्रह और हॅगाना-इर्गुन की अगामी योजनाओं के बारे में गोपनीय दस्तावेज़ उनके हाथ लगे थे।

इस बनविस्फोट ने ब्रिटन में और ब्रिटीश माध्यमों में खलबली मच गयी। पॅलेस्टाईन पर अपना पूरा नियंत्रण होने का दावा तब तक कर रही ब्रिटीश सरकार पर आलोचना की बौछार होने लगी। लेकिन अधिकांश लोगों ने – यहाँ तक कि पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र का निर्माण करने की संकल्पना के समर्थक होनेवाले चर्चिल ने भी ‘इर्गुन’ के इस क़ारनामे का निषेध किया। लेकिन उसीके साथ – ‘अब इस मसले की जड़ तक जाना ज़रूरी है और दरअसल ज्यू-राष्ट्र को मान्यता देना ज़रूरी है, तब ही ऐसे वाक़ये बन्द होंगे’ ऐसा प्रतिपादन भी चर्चिल ने किया।

लेकिन उल्टा हॉटेल डेव्हिड में हुए इस बमविस्फोट के बाद पॅलेस्टाईनस्थित ब्रिटीश सरकार ने ज्यूधर्मियों के ख़िलाफ़ बड़ी मात्रा में दमनतन्त्र का इस्तेमाल करना शुरू किया था।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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