७८. १९४७….

२२वीं झायॉनिस्ट काँग्रेस की भरी सभा में से डेव्हिड बेन-गुरियन ग़ुस्सा होकर जो बाहर निकले, वे ठेंठ अपने होटल गये और उन्होंने अपना सामान बाँधने की शुरुआत की। उनकी सहनशक्ति ख़त्म हुई थी। मन में तेज़ रफ़्तार से विचार दौड़ रहे थे –

‘ज्यूधर्मियों को उनकी हक़ की भूमि के लिए अभी तक दुनिया के सामने इस तरह भीख माँगना क्यों पड़ रहा है? हमारा भवितव्य किसी तीसरे के ही फ़ैसले पर निर्भर है ऐसा हमें अभी तक क्यों लग रहा है? इतनी सदियाँ दुनिया से अवहेलना और अत्याचार सहने के बाद और ख़ासकर गत कुछ सालों से युरोपीय समाज से इतनी मानहानि सहने के बाद भी, उसपर निर्णायक कृति करने के बजाय, अभी तक चर्चाओं का चर्वण ही हम क्यों चाहते हैं?’

शिमॉन पेरेस के साथ चर्चा करते हुए डेव्हिड बेन-गुरियन

बेन-गुरियन इस तरह अकस्मात् सभा के बाहर निकलने पर, कुछ तो गड़बड़ है इस बात का अँदाज़ा सभा में कइयों को हुआ था। उस समय वहाँ पर उपस्थित होनेवाले शिमॉन पेरेस अपने एक सहयोगी के साथ बेन-गुरियन के पीछे पीछे दौड़े। ग़ुस्से से होटल के रूम में अपना सामान बाँ रहे गुरियन को पेरेस ने जैसे तैसे शान्त किया और क्या हुआ, वह पूछा।

‘मैं यहाँ से दूर जा रहा हूँ। पुनः शून्य में से नये सिरे से झायॉनिस्ट आन्दोलन का गठन करने। मेरा अब इस विद्यमान आन्दोलन पर भरोसा ही नहीं रहा। अच्छे नेते पिछड़ते हुए दिखायी दे रहे हैं और अब उस आन्दोलन ते नेताओं में मौक़ापरस्तों की, राजनीतिकों की भर्ती होती हुई मुझे दिखायी दे रही है, जिनके पास इस प्रश्‍न को अंजाम तक ले जाने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। आज इस निर्णायक घड़ी में जो महत्त्वपूर्ण फैसलें करने पड़नेवाले हैं, उन्हें लेने की और कठोरतापूर्वक उनपर अमल करने की हिम्मत इन नेताओं के पास नहीं है। लेकिन मैं हार न मानते हुए प्रयास करता ही रहूँगा। मैं जागतिक ज्यूसमुदाय को पुनः आवाहन करूँगा। मैं ज्यू युवाशक्ति पर विश्‍वास रखता हूँ। अब यदि कोई कुछ कर सकता है, तो वे युवा ही।’

पेरेस भी गुरियन से सहमत थे और उन्होंने ‘हम आपके ही साथ है’ ऐसा कहकर उन्हें आश्‍वस्त किया। ‘लेकिन केवल एक दिन के लिए आप आपका फ़ैसला प्रलंबित करें। हम आज ही सभी में पूरा लेखाजोखा प्रस्तुत कर सार्वमत लेंगे। मैं आपको बतात हूँ, यदि आपने सादर किया हुआ प्रस्ताव परास्त हो गया, तो इस झायॉनिस्ट काँग्रेस से बाहर निकलनेवाले आप अकेले नहीं होंगे’ ऐसी विनती पेरेस ने गुरियन से की, जो गुरियन ने मान ली और ये लोग पुनः सभास्थान लौट आये।

कुछ तो विपरित हो रहा है, इसका अँदाज़ा होने के कारण सभास्थान पर चिंतामग्न माहौल था। गुरियन ने किसी बात को न छिपाते हुए अपने मन के निम्नलिखित आशय के विचार स्पष्ट रूप से सभासदों के सामने प्रस्तुत किये – ‘हम अब तक विभिन्न लोगों के साथ केवल चर्चाएँ ही करते आये हैं, लेकिन हमारे हाथ क्या आया? हक़ इस तरह भीख माँगकर नहीं, बल्कि संघर्ष से ही पाना पड़ता है। इसलिए अब इस मामले में किसी भी प्रकार की चर्चाएँ नहीं चाहिए, बल्कि पॅलेस्टाईनप्रांत में ’ज्यू-राष्ट्र’ की स्थापना होने की दिशा में केवल ठोस कृति ही चाहिए।’

पॅलेस्टाईनप्रान्त में ब्रिटिशों ने दमनतन्त्र को बढ़ाने के बाद, ज्यूधर्मियों को जो कोड़े लगाने की सज़ा दी जाती थी, उसके बारे में चेतावनी देनेवाले ऐसे पॅम्फलेट्स इर्गुन ने छपवाकर बाँटे थे।

इसके बाद ‘चर्चा नहीं चाहिए’ और ‘फिलहाल तो चर्चा ही करनी चाहिए’ ऐसे परस्परविरोधी मत होनेवाले अन्य भी कई नेताओं के भाषण हुए। दोनों गुटों ने एक-दूसरे पर – ‘इन्हें वास्तविकता का एहसास न होने के और वे खयाली पुलाव पका रहे होने के’ आरोप-प्रत्यारोप किये। फिर सभासदों को विचारविनिमय करने के लिए वक़्त दिया गया। शाम को ७ बजे शुरू हुआ यह चर्चासत्र, रात ख़त्म होने को आयी, फिर भी ख़त्म नहीं हुआ था।

गुरियन ये अधिकांशों को मान्य होनेवाले नेता थे। वे जिस ‘मापाई’ इस सबसे बड़े गुट के नेता माने जाते थे, उस गुट की गोल्डा मायर की अध्यक्षता में बैठक हुई, जिसमें स्वाभाविक रूप में गुरियन पर विश्‍वास व्यक्त किया गया।

इस आन्दोलन में गुरियन के ज्वलंत विचार रास न आनेवाले भी कई लोग थे और वे गुरियन का समय समय पर विरोध भी करते थे। लेकिन उनके मन में गुरियन के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति और फ़ौलादी इच्छाशक्ति के प्रति सुप्त आदरभावना थी ही। मुख्य बात – ‘बिना डेव्हिड बेन-गुरियन के आन्दोलन’ इस बात की वे लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इतना फूर्तीला और अपने ज्यू-राष्ट्रस्थापना के ध्येय के बारे में इतनी लगन रहनेवाला दूसरा कोई उनकी नज़र में नहीं था।

इन सारी बातों का परिणाम होकर, ‘चर्चाएँ बस्स हुईं’ इस मत से सहमत होनेवालों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी।

इसी कारण, ‘अब चर्चा नहीं, कृति चाहिए’ इस आशय के गुरियन के प्रस्ताव पर जब वोट गिने गये, तब वह अच्छे मताधिक्य से पारित हो गया। गत लगभग तीस साल विभिन्न चर्चाओं में और खोजसमितियों की तहकिकातों में ज्यूधर्मियों का प्रतिनिधित्व करनेवाले और मुख्य रूप से, चर्चा के मार्ग का आग्रह रखनेवाले वाईझमन अब अल्पमत में गये थे, आन्दोलन के सूत्र अधिकृत रूप में डेव्हिड बेन-गुरियन के हाथ में आये थे। पॅलेस्टाईन प्रान्त में ज्यू-राष्ट्र स्थापन होने की दिशा में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना साबित हुई।

इसी दौरान पॅलेस्टाईनप्रान्त में ब्रिटीश सरकार का दमनतन्त्र बहुत बढ़ गया था। खुफ़िया शस्त्रसामग्री होने के शक की बिनाह पर किसी भी स्थान में छापे मारे जाते थे। उसमें अगर शस्त्रसामग्री बरामद हुई, तो उस जगह के मालिक को गिरफ़्तार कर कोड़े मारे जाते थे। एक दिन यह असह्य होकर इर्गुन के सदस्यों ने एक ब्रिटीश मेजर और तीन सार्जंट्स को पकड़कर इसी तरह कोड़े मारे थे। उसके बाद हालात और भी बिगड़ गये।

१९४७ साल शुरू हुआ। परिस्थिति पुनः पिछले पन्ने से आगे जारी ही रही। लेकिन अब पॅलेस्टाईनस्थित ब्रिटीश सरकार के दमनतन्त्र को ज्यूधर्मियों का विरोध बढ़ गया था और वहाँ के हालातों पर काबू पाना वहाँ तैनात होनेवाली ब्रिटीश सेना को दिनबदिन अधिक से अधिक मुश्किल हो रहा था।

इसी दौरान, इस मसले पर हुई ब्रिटीश मंत्रिमंडल की एक बैठक में इस प्रश्‍न ने एक नया ही मोड़ ले लिया। इस बैठक में पहली ही बार, मध्यपूर्वी क्षेत्र में होनेवाली प्रचंड इंधनसंपत्ति का ज़िक्र किया गया। इस समय विचार किये गये एक गोपनीय अहवाल में, मध्यपूर्वी क्षेत्र में (सौदी, बाहरीन, कुवेत, इराक आदि देशों में) होनेवालीं प्रचंड इंधनराशियाँ ब्रिटीश साम्राज्य के लिए ‘बाज़ी पलटानेवाले’ और ब्रिटन की सांपत्तिक स्थिति को बड़े पैमाने पर सुधारनेवालीं साबित होंगी, ऐसा नमूद किया गया था।

ब्रिटीश प्रधानमन्त्री अ‍ॅटली के साथ ब्रिटन के तत्कालीन विदेश सचिव अर्नेस्ट बेविन

तब तक ईरान (पर्शिया) ब्रिटन की ईंधन की ज़रूरत को बड़े पैमाने पूरा करता था। ईरान की दुर्बल सरकारों का फ़ायदा उठाकर ब्रिटन ने ईरान की ईंधनराशियों पर अपना नियंत्रण रखा था। ईरान में होनेवाले तेल-उत्खनन के भी बहुत सारे अधिकार ब्रिटन के पास थे। लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद अमरीका और सोव्हिएत रशिया के रूप में ब्रिटन को इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी निर्माण हुए थे। ईरान में भी राष्ट्रवाद की हवाएँ बहने लगी थीं। इस कारण ईरान के तेल को अब विकल्प ढूँढ़ने की ज़रूरत ब्रिटन को उत्पन्न हुई थी। वह विकल्प ब्रिटन को इन मध्यपूर्वी अरब देशों में उपलब्ध है, ऐसा इस अहवाल में बताया गया था;

….और इसीलिए अरब देशों का सहयोग गँवाना ब्रिटन को परवड़नेवाला नहीं था। ‘पॅलेस्टाईन यह पूर्णतः अरब प्रांत होकर, उसका विभाजन करने के किसी भी प्रस्ताव का अरब कसकर विरोध करेंगे और उनका ज्यूधर्मियों के पॅलेस्टाईन में होनेवाले स्थलांतरण को भी निरंतर विरोध रहेगा’ ऐसी चेतावनी अरबों ने पहले ही दी थी। उसका उल्लेख कर, ‘पॅलेस्टाईन को ‘अरब-राष्ट्र’ घोषित करना और ज्यूधर्मियों को वहाँ केवल ‘अल्पसंख्यांकों’ का दर्जा प्रदान कर विभिन्न सहूलियतें (कन्सेशन्स) देना, यही मध्यपूर्वस्थित अरबों को सहयोग बरक़रार रखने के लिए सुयोग्य रहेगा’ ऐसा मशवरा ब्रिटन के तत्कालीन विदेश सचिव अर्नेस्ट बेविन ने इस बैठक में मंत्रिमंडल को दिया।

….पॅलेस्टाईन प्रान्त में ज्यू-राष्ट्र स्थापन करने के प्रयासों में अब यह बड़ी ही रूकावट पैदा हुई थी!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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