७७. अब चर्चाएँ बस करो….

अब चर्चाएँ बस करो….

जेरुसलेमस्थित हॉटेल डेव्हिड पर ‘इर्गुन’ ने किये हमले के बाद पॅलेस्टाईन प्रांत के ब्रिटीश प्रशासन के ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ चलाये गये दमनतन्त्र में काफ़ी हद तक वृद्धि हो चुकी थी। उसीके साथ, यह कृत्य मान्य न होनेवाले हॅगाना के इर्गुन के साथ होनेवाले वैचारिक मतभेद चरमसीमा तक जाकर उनके मार्ग अलग हो चुके थे।

इसी दौरान अन्य स्तरों पर भी इस प्रश्‍न से संबंधित कई घटनाएँ घटित हो रही थीं। ‘पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र’ इस संकल्पना का अध्ययन करने ते लिए ‘अँग्लो-अमेरिकन जॉईंट कमिटी’ की स्थापना कर दी गयी थी। यह समिति, युरोप में विश्‍वयुद्ध के पश्‍चात् ज्युईश विस्थापितों के लिए निर्माण किये गये संक्रमण शिविरों की भेंट करके, वहाँ के निवासियों का मन्तव्य समझ रही थी। इस मुद्दे पर ज्यूधर्मियों का मत कितना आत्यंतिक है, इसका अँदाज़ा इस समिति को धीरे धीरे हो रहा था। इन संक्रमण शिविरों में, यहाँ तक कि हिब्रू भाषा में शिक्षा देनेवाले स्कूलों से लेकर मनोरंजनगृहों तक सभी सुविधाएँ थीं, मग़र फिर भी यह केवल ‘संक्रमण’ शिविर है, ‘घर’ नहीं, इस बात को उस शिविर के ज्यूधर्मियों ने मन में दृढ़तापूर्वक बाँध रखा था।

विश्‍वयुद्धपश्‍चात् भी ज्यूधर्मियों के साथ युरोपीय समाज से जो सुलूक किया जा रहा था उससे, ‘पश्‍चिमी जगत् में हम ‘अनचाहे’ हैं’ इसका एहसास इन ज्यूधर्मियों को स्पष्ट रूप में हो चुका था। साथ ही, ‘विश्‍वयुद्ध में प्रचंड नुकसान हो चुके युरोपीय शहरों के पुनर्निर्माण के कामों के लिए इन ज्यूधर्मियों का ‘इस्तेमाल’ किया जाये’ ऐसी एक ‘विचारधारा’ कुछ पश्‍चिमी नेताओं के मन में उद्गमित हो रही थी। इस ख़ुदगरज़ी से भी ज्यूधर्मीय ऊब चुके थे। दुनिया में ज्यूधर्मियों का यदि कहाँ वास्तविक अपनेपन से स्वागत हो सकता है, तो वह केवल पॅलेस्टाईन प्रान्तस्थित ज्यू-राष्ट्र में ही, इसके बारे में इन ज्यूधर्मियों को अब अंशमात्र भी शक़ बाक़ी नहीं था।

….और यह यक़ीन बेबुनियाद नहीं है, इसकी अनुभूति इस समिति को आगे चलकर उसके पॅलेस्टाईन दौरे में आ गयी। इन शिविरों का मुआयना करने के बाद यह समिति पॅलेस्टाईन के दौरे पर आयी थी।

पॅलेस्टाईन आने के बाद इस समिति ने ज्यूधर्मीय जनता के प्रतिनिधियों तथा उनके कई नेताओं की गवाहियाँ दर्ज़ कर लीं, जिनमें से एक ‘गोल्डा मायर’ (जो आगे चलकर सन १९६९ में स्वतंत्र इस्रायल की प्रधानमंत्री भी बनीं) भी थीं। गोल्डा मायर ने समिति को स्पष्ट रूप से कह दिया कि ‘हम, यानी फिलहाल पॅलेस्टाईन प्रान्त में निवास कर रहे ज्यूधर्मीय, हमारे दुनियाभर के ज्यू बांधवों का पॅलेस्टाईन में स्वागत करने के लिए उत्सुक हैं और चाहे कितने भी ज्यूधर्मीय स्थलांतरित होकर क्यों न आयें, उनका प्रबंध किया जायेगा। साथ ही, ज्यू-राष्ट्र के प्रश्‍न को हमारी पीढ़ी के जीवनकाल में ही सुलझाने का हमने निश्‍चित किया है।’

ये चर्चाबैठकें और गवाहियाँ दर्ज़ करने की प्रक्रिया के शुरू रहते भी ब्रिटीश सरकार की पॅलेस्टाईनविषयक नीति में कुछ भी बदला नहीं था। पॅलेस्टाईन में आनेवाले स्थलांतरितों पर पाबंदियाँ लगाना जारी ही था। इटली के बंदरों से पॅलेस्टाईन आनेवाले स्थलांतरितों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने पर, उन्हें रोकने के लिए अब ब्रिटीश सरकार ने इटालियन सरकार पर दबाव डालना भी शुरू किया।

इसी दौरान और दो जहाज़ों को पॅलेस्टाईन के बंदरगाहों में आने से ब्रिटीश सेना ने रोका था। लेकिन इस बार मध्यस्थी के सभी मार्ग बन्द होने पर गोल्डा मायर और अन्य कुछ ज्यूधर्मीय नेताओं ने इसके निषेध में अनशन के लिए बैठने का फैसला किया। जब उसके बारे में पूर्वसूचना देने के लिए वे पॅलेस्टाईन के तत्कालीन ब्रिटीश मुख्य सचिव से जा मिले, तब सचिव ने मायर को – ‘तुम खाना नहीं खाओगे इसलिए ब्रिटीश सरकार अपनी नीति बदलेगी, ऐसा तुम्हें लगता है क्या?’ ऐसा मग़रूरी से पूछा था। उसपर गोल्डा मायर ने – ‘हरगिज़ नहीं! मेरे मन में ऐसीं भ्रामक कल्पनाएँ बिलकुल नहीं हैं। युरोप में लाखों ज्यूधर्मियों को मौत के घाट उतार दिया जाने के बाद भी जब ब्रिटीश सरकार अपनी पॅलेस्टाईनविषयक नीति में बदलाव नहीं लाती है, तब वह मेरे अनशन के कारण बदलेगी, इस भ्रम में मैं हरगिज़ नहीं हूँ। लेकिन प्रवेश-अनुमति नकारे हुए ज्यूधर्मियों को समर्थन दर्शाने के लिए फिलहाल तो करने जैसा मेरे हाथ में इतना ही है’ ऐसा मुँहतोड़ जवाब दिया था। लेकिन हैरानी की बात यह हुई कि मायर और उनके सहकर्मियों का अनशन सफल साबित हुआ और उन दो जहाज़ों में होनेवाले ज्यूधर्मियों को पॅलेस्टाईनप्रवेश की अनुमति दे दी गयी!

इसी दौरान, अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष ट्रुमन ने ब्रिटीश प्रधानमंत्री अ‍ॅटली को पत्र लिखकर जो विनती की थी, उसपर जल्द से जल्द कार्यवाही करने के लिए ब्रिटीश सरकार पर दबाव बढ़ रहा था। ब्रिटीश सरकार ने इस मसले पर नियुक्त की हुई मंत्रीस्तरीय समिति ने २४ जुलाई १९४६ को अपना अहवाल प्रस्तुत किया। लेकिन उसमें पुराना ही टेप बजाया था। अब इस अहवाल में, पॅलेस्टाईन प्रान्त का ३ भागों में बँटवारा करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था। हालाँकि पूरा पॅलेस्टाईन प्रान्त ब्रिटिशों के अधिकार में ही होगा, उसमें से जेरुसलेमसहित कुल ४३ प्रतिशत भाग केंद्रशासित यानी ठेंठ ब्रिटीश अमल में, ४० प्रतिशत भाग ‘अरब स्वायत्त (ऑटोनॉमस) प्रान्त’ और १७ प्रतिशत भाग ‘ज्युईश स्वायत्त प्रान्त’ होगा, ऐसा यह विभाजन था;

….और ‘ज्यूधर्मियों ने इस विभाजन को मान्य किया, तो ही ट्रुमन के ‘उस’ पत्र में की गयी – ‘ऑस्ट्रिया-जर्मनी में से कम से कम पहले लगभग १ लाख ज्यूधर्मियों को फ़ौरन पॅलेस्टाईनप्रवेश की अनुमति देने’ की विनती पर सोचा जाये’ ऐसी सूचना इस अहवाल में की गयी थी।

ज्यूधर्मियों ने स्वाभाविक रूप से ‘बहुत ही कम भूभाग मिला होने’ के कारण से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और पॅलेस्टाईन के दूरदराज़ के बंजर भागों में ज्यू-बस्तियों के नये नये किब्बुत्झ निर्माण करने की अपनी प्रक्रिया अखंडित रूप में जारी रखी। अब इस मामले में पहले अपनाया गया संरक्षित रवैया बाजू में रखा जा रहा था और पॅलेस्टाईन प्रान्त का कोना-कोना उपयोग में लाने की दृष्टि से अब धीरे धीरे पॅलेस्टाईन प्रान्त की तत्कालीन आन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं के नज़दीक ऐसे किब्बुत्झ का निर्माण करने पर ज़ोर दिया जा रहा था।

उस साल के ‘योम किप्पुर’ इस ज्युईश पवित्र त्योहार के दिन यानी ६ अक्तूबर १९४६ इस एक ही दिन में १२ ऐसे नये किब्बुत्झ, सभी मूलभूत सुविधाओं के साथ रातोंरात निर्माण किये गये। ऐसे किब्बुत्झ में हॅगाना के गुप्त शस्त्रसंग्रह भी नयीं नयीं तरक़ीबें इस्तेमाल कर छिपाये जाते थे।

ऐसे सारी गतिविधियों के बीच १९४६ साल भी अन्त की ओर सरकने लगा। ९ दिसम्बर १९४६ को स्वित्झर्लंडस्थित बेसेल में २२वीं झायॉनिस्ट काँग्रेस का आयोजन किया गया। इस काँग्रेस में वाईझमन ने असरदार भाषण कर, पॅलेस्टाईन में ज्यूधर्मियों का ‘नॅशनल होम’ होना यही समय की माँग है, ऐसा प्रतिपादन किया। अपने भाषण के दौरान उन्होंने ज्यूधर्मियों की व्यथा, उन्हें नसीब हो रही जागतिक स्तर पर की और पॅलेस्टाईन प्रान्त में की अवहेलना ये बातें ज़ोर देकर प्रस्तुत कीं।

लेकिन उन्होंने पॅलेस्टाईन में ब्रिटिशों के खिलाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे दहशत के और हिंसक उपायों का निषेध कर मध्यममार्ग का उपयोग करने का प्रतिपादन किया। ऐसा ही – ‘हिंसा छोड़ चर्चाओं का मार्ग अपनाने का’ प्रतिपादन वाईझमन के भाषण के बाद कई वक्ताओं ने किया।

लेकिन इन ‘चर्चा के मार्ग का अवलंबन करने के’ भाषणों के दौरान डेव्हिड बेन-गुरियन का पारा चढ़ता ही जा रहा था। एक क्षण ऐसा आया कि यह सब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया और वे सभा बीच आधी ही छोड़कर ताड़्ताड् सभागृह के बाहर चले गये….(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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