श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ७१

पुष्टता होना उचित विकास है। वह उन्मत्त होना यह विकृति है। हमारे मन को उन्मत्त नहीं होना है, पुष्टता प्राप्त हो इसके लिए बाबा का चरण पकड़े बगैर अन्य कोई रास्ता ही नहीं। (बाबा के चरणों को पकड़ना यही एकमेव मार्ग है, और कोई अन्य मार्ग नहीं है।) ‘उन्मत्त, मदमस्त हो चुका भैंसा’ बनना है या ‘धर्मस्वरूप साईनाथ के चरणों की रज’ बनना है। इस बात का निर्णय हमें स्वयं ही लेना है।
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साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईशिरडी में आनेवाले रोहिले के आचरण का अध्ययन करते समय पाँचवी महत्त्वपूर्ण बात हम सीखनेवाले है। और वह यह है कि ‘गुणसंकीर्तन’ करते रहना। मर्यादाशील भक्तिमार्ग में इस गुणसंकीर्तन का अनन्यसाधारण महत्त्व हैं। गुण बारंबार गाते रहने से वह अपने-आप ही मेरे मन में प्रवाहित होते रहते है। और इससे हमारे सद्गुणों के बीज विकसित होने लगते हैं, इसके साथ ही दुर्गुणों के बीज भी जलकर खाक होने लगते हैं। हम जिनका गुण गाते रहते हैं, उसी के अनुसार हमारे मन की आकृति बनती रहती है। इसीलिए किसी का भी गुण गाते रहने के बजाय इस साईनाथ के गुण गाते रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।

शिरडी में आनेवाले रोहिले ने भी इसी गुणसंकीर्तन के राजमार्ग का स्वीकार किया है। गुणसंकीर्तन कैसे करना है इसके लिए रोहिले की कृति से ‘नहीं करता था परवाह किसी की’ बस इसी बात का ध्यान हमें रखना है। ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते समय फिर चाहे कोई कितना भी विरोध करता है। फिर भी उसकी परवाह किए बगैर हमें भगवान का गुणसंकीर्तन शुरु ही रखना है। मुझे अपने श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करते समय चाहे जो भी हो जाए भले ही जान भी क्यों न चली जाए मैं अपना गुणसंकीर्तन करना कभी भी बंद नहीं करूँ गा। ऐसा मेरा निश्‍चय होना चाहिए। इसके पश्‍चात् कोई मुझे कितना भी विरोध करता है फिर भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मेरे साईनाथ ही मेरे ईश्‍वर हैं। वे साक्षात् ईश्‍वर ही हैं और पूर्णरूपेण सत्य ही है फिर यदि कोई मानता है या नहीं मानता है मुझे इसकी कोई परवाह नहीं। मेरे बाबा की हरएक लीला पूर्णरूप में सत्य ही है। रोहिले की कथा काल्पनिक है अर्थात यह वास्तविक तौर पर घटित नहीं हुई है। परन्तु वह सत्य है ही, क्योंकि यह कथा हर एक के जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उजागर करती हैं। सत्यस्वरूप भगवान को अपने जीवन में प्रवाहित करनेवाली है। इसीलिए मेरे श्रीसाईनाथ को, उनकी लीलाओं को कोई माने या ना माने, मुझे कोई चाहे कितना भी विरोध क्यों न करे मैं तो अपने बाबा का गुणगान करता ही रहूँगा।

अब तक हमने गुणसंकीर्तन के दो मुद्दों पर अध्ययन किया।

१) किसी भी प्रकार के विरोध की परवाह किए बगैर ही ईश्‍वरगुणसंकीर्तन करते ही रहना।
२) सुखदु:ख एवं द्वंद्वात्मक स्थिति में भी ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते ही रहना है।

अब इस रोहिले के वर्णन में हेमाडपंत हमें एक महत्त्वपूर्ण बात बतलाते हैं –

‘शरीर से पुष्ट जैसे भैंसा।’ (शरीरें पुष्ट जैसा हेला।)

हेला अर्थात भैंसा। ये रोहिला शरीर से भैंसे के समान बलवान एवं पुष्ट था। इसका भावार्थ हमें इस तरह से लेना चाहिए कि साईनाथ की भक्ति से मन बलवान होता है, निर्भय होता है और मुख्य तौर पर धर्म के नियम पालन हेतु उसके बल का उपयोग वह करता है।

भैंसा यहाँ पर यमधर्म का वाहन इस अर्थ से हमें इसका अध्ययन करना चाहिए। यम का वाहन भैंसा है। यम भैंसे पर आते हैं यह तो हम सभी जानते हैं। परन्तु मूलत: इस यम का मूलस्वरूप ‘यमधर्म’ है, यह हमें ध्यान में रखना चाहिए। हमारा मन अर्थात या रोहिला जो साईनाथ की भक्ति के कारण उस यमधर्म का वाहन बन जाता है। अर्थात धर्मानुसार कार्य करनेवाला साधन बन जाता है। वैसे तो हमारा मन ‘स्वैरवृत्ति किसी की परवाह न करनेवाला’ ही होता है। और यहाँ पर यमधर्म का वाहन बन जाने पर भी वह किसी की भी परवाह नहीं करता है यही वर्णन है। तो फिर इस मन की दो अवस्थाओं में फर्क (फरक) क्या है?

फर्क (फरक) बिलकुल स्पष्ट है। पहलेवाला हमारा मन धर्म की परवाह किए बगैर अधर्मानुसार स्वैर आचरण करनेवाला और बेलगाम छूटे जंगली भैंसे की तरह आचरण करनेवाला होता है, वह धर्म की बजाय अधर्म का वाहन बन चुका होता है। परन्तु जब साईनाथ की भक्ति में एवं गुणसंकीर्तन में वह रम जाता है, तब वह धीरे-धीरे अधिकाधिक समर्थ बनने लगता है। एवं धर्म का वाहन बनकर परमेश्‍वरी नियमानुसार आचरण करने लगता है। परमेश्‍वरी नियामानुसार अर्थात धर्मानुसार आचरण करते समय कोई कितना भी विरोध करता है फिर भी वह मन उस विरोध की परवाह नहीं करता, धर्म का साथ नहीं छोड़ता। पहलेवाला मन छुटे हुए ‘जंगली भैंसे’ के समान होता है, वही साईभक्ति में रम चुका मन यमधर्म का वाहन होनेवाला ‘भैंसा’ (हेला) होता है।

जंगली भैंसे से पालतु भैंसा (हेला) यह मन का प्रवास केवल इस साईनाथ का हाथ सिर पर होने से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। यहीं पर हमें स्मरण होता है, ‘ज्ञानेश्‍वर माऊली’ का, संतश्रेष्ठ श्रीज्ञानेश्‍वर महाराज का। ज्ञानदेवने उस भैंसे के सिर पर हाथ रखते ही उस जंगली भैंसे के मुख से श्रृतिवचन, वेदवचन प्रकट होने लगे। तात्पर्य यह है कि ज्ञानदेव का हस्तस्पर्श होते ही उस जंगली भैंसे का रूपांतरण पालतु भैंसे (हेला) में हो गया। जंगली भैंसे से पालतु भैंसा (हेला) यह मेरे मन का प्रवास केवल मेरे इस साईनाथ का हाथ सिर पर होने से ही हो सकता है। इसका ध्यान हमें रखना चाहिए।

हेमाडपंत इसीलिए जंगली भैंसा नामक इस शब्द का प्रयोग यहाँ पर करते हैं, ‘उन्मत्त, मदमस्त जंगली भैंसा और ‘पुष्ट (पालतु) भैंसा’ (पुष्ट हेला) इनमें होनेवाले फर्क को हमें सदैव ध्यान में रखना चाहिए। पुष्ट होना, यह उचित विकास है, वही जंगली भैंसे के समान होना यह विकृति है। हमारे मन को उन्मत्त न होने देकर उसमें पुष्टता आये इसके लिए बाबा के चरणों को पकड़ना यही एकमेव मार्ग है, और कोई अन्य मार्ग नहीं है। ‘जंगली भैंसा’ बनना है या ‘पुष्ट’ (पालतु) (पुष्ट हेला) बनना है, हमारे मन को ‘अधर्म का वाहन’ बनना है या ‘धर्मस्वरूप साईनाथ के चरणों की रज’ (धूल) बनना है, इस बात का निर्णय हमें स्वयं ही करना है।

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