श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २४)

20_11_2011_COLकोई काम जब हम पहली बार करना शुरू करते हैं तब आरंभ में तो हम बहुत ही जल्दी-जल्दी वह काम उत्साहपूर्वक करते हैं, परन्तु आगे चलकर वह जल्दबाजी, उत्साह हममें नहीं रह जाता और हमारा कार्य आदि सब कुछ अधूरा ही रह जाता है । ‘आज करें सो कल करें, कल करें सो परसों’ यह हमारी स्थिति गृहस्थजीवन एवं परमार्थ दोनों तरफ हो जाती है ।

आरंभ का जोश यानी हम में कार्य के आरंभ में जो उत्साह होता है उसे अंत तक बनाये रखना चाहिए और इस के लिए साईराम का नाम हमारे मुख में होना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।

श्रीसाईसच्चरित के प्रथम अध्याय में गेहूँ पीसनेवाली कथा की उन चारों स्त्रियों की भूमिका का अध्ययन हम कर रहे हैं । सचमुच जितना ज्यादा गहराई तक विचार करें उतना कम ही है । साईसच्चरित की हर एक कथा के अनेक पेहलू हैं । हमें अपनी क्षमता के अनुसार उन पर गौर करके उनसे बोध लेना चाहिए । परन्तु उस बोधग्रहण में तर्क-चिकित्सा आदि का दृष्टिकोण न होकर प्रेमभरी दृष्टि ही होनी चाहिए । जो लोग सिर्फ़ व्यर्थ ही व्याकरण आदि की गलतियाँ ढूँढ़ते बैठेंगे, उनके हाथ कुछ भी नहीं आनेवाला है । बाबा का हिरे-मोतियों का खज़ाना द्वारकामाई की गोद में बैठनेवाले भोले-भाले भक्तों के ही हाथों में स्वयं बाबा ही सुपुर्द कर देते हैं । इन चारों स्त्रियों को भले ही बाबा की ओर से आटा न मिला हो परन्तु बाबा की ओर से उनकी कृपा का, प्रेम का जो खज़ाना उन्हें प्राप्त हुआ, वह उनके लिए जन्मजन्मान्तर तक उद्धारक साबित होनेवाला है । हमें भी हमारे बाबा जब मिलेंगे तब वे उनके पास का खज़ाना हमें भी भरभरकर देते रहेंगे ।

इन चारों औरतों के भूमिका का अध्ययन करते समय, उत्तम भक्त बनने के लिए, साचार वानर सैनिक बनने के लिए कौन सा गुण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, इसका विचार करते समय हमने अब तक तीन बातें देखीं-

1) प्राथमिकता निश्चय
2) प्रत्यक्ष आज्ञा का इंतजार न करना
3) ‘क्यों’ इस प्रश्न के लिए कोई भी स्थान न होना ।

इसके पश्चात् इन चारों स्त्रियों से सीखनेवाली चौथी महत्त्वपूर्ण बात है- गेहूँ पीसते समय बाबा की लीलाओं का गुणवर्णन करनेवाले गीत अपने आप ही वे गुनगुनाने लगती हैं । जाँते पर पीसने बैठते ही गीतों के बोल मुख में आ ही जाते हैं, ऐसा कहा जाता है, इसी तरह इस संसार के कारोबार के लिए अथवा सेवारूपी जाँता चलाते समय मेरे इस सद्गुरु साईनाथ का गुणगान अपने आप ही मेरे मुख में आ जाना चाहिए । ‘हाथ में काम, मुख में राम’ ऐसी स्थिति का निर्माण होना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । ये चारों स्त्रियाँ पीसने बैठते ही बाबा के गीत गाने लगीं । हाथों से बाबा का काम कर रही थीं और मुख से बाबा का नाम एवं उनकी लीलाओं का गान कर रही थीं । बाबा के गीत उन सभी ने बाबा के प्रेम से स्वयं ही रचे थे और इसीलिए वे साईप्रेम के माधुर्य से ओतप्रोत थे । हम भगवान का, साई का नाम लेते समय क्या इसी तरह भावविभोर होकर प्रेम से लेते हैं? ‘ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:।’ ऐसा जाप तो मैं करता हूँ, परन्तु उसमें ‘मेरे ये साईनाथ सचमुच कृपा के सागर हैं और वे मुझ से अपरंपार प्रेम करते हैं’ इस भाव की स्निग्धता क्या होती है? इन चारों से यह जो चौथी बात हमें सीखनी चाहिए, वह है- स्निग्धता एवं सहजता ।

सिर्फ़ मुख से बडी बडी बातें करके हाथों पर हाथ रखकर बैठे रहना, यह जिस तरह उचित नहीं है, उसी तरह काम का ढिंढोरा पिटते हुए राम को भूल जाना यह भी उचित नहीं है । हम सिर्फ़ तालियाँ पीटते ही बैठे रहें और जिस राम का नाम ले रहे हैं उनके बच्चों की सेवा नहीं की, तो क्या फायदा? हम भले ही करताल-मंजिरें बज़ाते हुए रामनाम ले उनके गीत, भजन गाएँ, पर साथ ही उन्हीं हाथों उनके बच्चों की सेवा भी करें, अन्य श्रद्धावान बंधुओं की सहायता के लिए तत्पर भी रहें। ‘मुख में राम, हाथों में काम’ इस प्रकार नाम एवं सेवा का मेलजोल बिठाकर ही परमार्थ साध्य करना चाहिए । यही हमें इस पीसनेवाली कथा से पता चलता है । इन चारों स्त्रियों के ही समान पीसाई का काम करते समय उतनी ही सहजता से साई-नाम-गुण-लीला-संकीर्तन भी हमसे होना चाहिए। यहीं पाँचवी बात हमें भी सीखनी चाहिए ।

छठी बात हम यहाँ पर सीखते हैं, वह है हाथ में लिया गया काम समग्रता से संपन्न करने की लगन । हम भी यदि कोई काम हाथ में लेते हैं, तब आरंभ में बड़े जोर-शोर के साथ करते हैं, फिर धीरे-धीरे वह काम करने की लगन पहले की तरह नहीं रह जाती है और हमारा सारा काम आधा-अधूरा ही रह जाता है । ‘कोई एक काम तो ठीक से होता नहीं और हजारों के पीछे हम भाग-दौड़ करते रहते हैं’ यही स्थिति हमारी गृहस्थी और परमार्थ दोनों में होती है ।

आरंभ में जोश दिखाना छोड़कर हममें कार्य की शुरुआत में जो उत्साह होता है, उस अंत तक बनाये रखना चाहिए; और इसीलिए साईराम का नाम हमारे मुख में होना ज़रूरी है । सेवा करते समय मुख में सद्गुरु नाम का होना क्यों ज़रूरी है, इस प्रश्‍न का उत्तर इस प्रकार दिया गया है । हमें चरखा चलातें समय सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंह ने नामसुमिरन करने को कहा है । इसका कारण यहाँ पर हमें ज्ञात होता है कि केवल चरखा ही नहीं बल्कि, हर एक सेवाकार्य में परमात्मा का नाम लेते हुए कार्य करना अधिक महत्त्वपूर्ण है । क्योंकि इसी से हमारे काम में उत्साह का नित्यक्रम बना रहता है, लगन बढ़ती है और सेवा का अहंकार नहीं होता, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मुख में सतत नाम होने से ‘आलस’ नामक हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारे आस-पास भटक तक नहीं सकता । आलस की उत्पत्ति ही तमोगुण से होती है और नाम सदैव सत्त्वगुण का भांडार बढ़ाते रहता है । मैं साईनाथ का नामस्मरण जितना भी अधिक से अधिक करते रहता हूँ, उतना ही अधिक सत्त्वगुण बढ़ता है और तमोगुण का र्‍हास होते रहता है । इस आलस से हम हमारे जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ नहीं पाते । सेवाकार्य करते समय, रोजमर्रा की ज़िंन्दगी में, नौकरी-धंदा करते समय जितना अधिक हो सके उतना अधिक नामस्मरण करते रहना चाहिए । इससे आलस का साम्राज्य हमारे जीवन में कभी भी स्थापित नहीं होने पायेगा । जिसके ऊपर नाम की सत्ता है उसके ऊपर आलस ही क्या किसी भी अनुचित बात की सत्ता कभी भी नहीं हो सकती। इसके लिए स्वाभाविक ही इन चारों स्त्रियों के समान सहजता एवं स्निग्धता के साथ नाम लेना चाहिए । आरंभ में हमारे द्वारा किये जा रहे नामसुमिरन में इतनी सहजता और स्निग्धता नहीं रहेगी, परन्तु इस साईनाथ, श्रीराम, भगवान के नाम में इतना सामर्थ्य अवश्य है कि हम जितना अधिक विश्वास के साथ नाम लेते रहते हैं उतना ही यह नाम मेरे अंतर में सहजता और स्निग्धता उत्पन्न करते रहता है । नाम लेने में आलस करना, यही सबसे बड़ा प्रज्ञापराध है और इसीलिए हमें आसन, शयन, भोजन करते हर समय साईनाथ नामस्मरण करते रहना चाहिए ।

शिरडी में रहनेवाली इन औरतों से हमें यही सीखना चाहिए । ‘दळिता, कांडिता । तुज गाईन अनंता ।’ ऐसा संत जनाबाई कहती हैं। ‘धान पीसते हुए, कूटते हुए, हर रोज़ का हर एक काम करते हुए हे अनन्त! तुम्हारे ही गुण मैं गाती रहूँगी।

ये चारों वैसे भी साईनाथ का गुणगान करते हुए ही अपने नित्यनैमित्तिक कर्म भी करती रहती थीं । इसीलिए इस आलसरूपी महारिपु की परछाई तक उनपर नहीं पड़ी थी । बाबा पीसने बैठे है इस बात का पता चलते ही तुरन्त ये जल्दी से दौड़ते हुए द्वारकामाई में ज़ाकर पीसने बैठ जाती हैं । उनकी इस कृति से ही हमें पता चलता है कि ‘आलस’ उनके अंदर ज़रा सा भी नहीं है । इसलिए पूरे उत्साह के साथ उन्होंने उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल दिया । आलसरूपी वैरी को उन्होंने कब का साईनामरूपी जाँते में रगड़ डाला था । मेरे इस साईराम के नाम की ही यह सारी करामात है ।

Ambar Charkhaश्रीअनिरुद्धजी ने भी इस प्रथम अध्याय की गेहूँ पीसने वाली कथा का मर्म हमें तेरह कलमी योजना (थर्टीन पाँईंट प्रोग्रॅम) के पहले कलम के माध्यम से सुस्पष्ट करके समझाया हैं । साईसच्चरित का प्रथम अध्याय गेहूँ पीसनेवाली कथा का है और श्रीअनिरुद्धजी की तेरह कलमी योजना का पहला कलम ‘चरखा’ है । ‘श्रीसाईनाथ मेरे दिग्दर्शक गुरु हैं’ यह अपना वचन बापु ने इसी माध्यम से सुस्पष्ट करके बताया है । जाँता और चरखा दोनों ही चक्राकार गति के साथ घूमनेवाले हैं । जाँते से ही जैसे चपाती की ज़रूरत पूरी होती है, उसी तरह चरखा भी हमारे वस्त्र की ज़रूरत को पूरा करता है । श्रीअनिरुद्धजी ने स्वयं सर्वप्रथम चरखे के चक्र को गति प्रदान करके फिर तेरह कलमी योजना के पहले कलम के द्वारा इस चरखे का खूँटा आज के वर्तमान हाथों को सौंपा । श्रीसाईसच्चरित का प्रथम अध्याय और बापु का प्रथम कलम दोनों में ही इस सुदर्शन चक्र की गति हमें दिखाई देती है । साई को दिग्दर्शक गुरु माननेवाले श्रीअनिरुद्धजी ने हमें इस प्रथम अध्याय के रहस्य को सुस्पष्ट रूप से बताया है । जिस प्रकार ये चारों गेहूँ पीसते समय साईनाथ के नाम का गुणसंकीर्तन करते हुए गेहूँ पीस रही हैं, वैसे ही इस चरखे को चलाते समय हम सब को नाम लेते-लेते सूत कातना है । जाते से निकलनेवाले आटे ने जिस प्रकार महामारी की रोक थाम की, उसी प्रकार चरखे से निकलनेवाला सूत हमारे जीवन के बाह्य एवं आंतरिक सभी स्तरों पर के महायुद्ध का, महामारी का काँटा निकालेगा ही । श्रीसाईसच्चरित्र का प्रथम अध्याय और तेरह कलमी योजना का ‘चरखा’ यह प्रथम कलम ये दोनों हम श्रद्धावानों के लिए एकसमान ही हैं ।

One Response to "श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २४)"

  1. Rajiv Manohar Pradhan   April 26, 2016 at 3:27 pm

    Never thought that the four ladies who were grinding wheat with so much devotion—– had so much meaning.
    I am glad I came to know it today. I will have to read it all over again to try and remember, but I am greatful.

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