श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २३)

Untitledहम ने साईनाथ का उत्तम भक्त बनने के लिए यानी श्रीराम का वानरसैनिक बनने के लिए गेहूँ पीसने की इस कथा से हमें क्या सीखना चाहिए, इस बात का अध्ययन करना गत लेख से शुरू किया है । सिर्फ़ कथा को पढ़ लिया, पारायण कर लिया, परन्तु बोध ग्रहण किये बिना अपने आचरण में कुछ भी नहीं उतारा, तो हमारा विकास कैसे होगा? श्रीसाईसच्चरित की रचना के पीछे सद्गुरु साईनाथ का दृष्टिकोण, हमारे जीवनविकास को सिद्ध करना यही है और इसके लिए हमें अपनी भूमिका को उत्तम रूप में कैसे करना है यह सीखना ही चाहिए । हमने तीन बातों का अध्ययन किया –

१) सबसे पहले अपने जीवन में साई को ही अपनाकर उन्हें ही प्राथमिकता देनी है ।

२) साईनाथजी की आज्ञा प्रत्यक्ष रूप में मिलने की प्रतीक्षा न करते हुए बाबा के कार्य में बिना हिचकिचाये अपनी पूरी क्षमता के साथ सहभागी हो जाना ।

३) साईनाथ से ‘क्यों’ यह प्रश्न बिना पूछे पूरे विश्वास के साथ भक्तिमार्ग का अवलंबन करते रहना ।

इस तीसरी बात का अध्ययन करते समय हमारे ध्यान में आया कि सद्गुरु को ‘क्यों’ पूछने पर, भगवान से कारण पूछने से हम उनके न्यायी होने के प्रति संदेह करते हैं, इस सद्गुरुतत्त्व पर ही संदेह करते हैं, इससे हमारे जीवन की इमारत एक पल में ही ढह सकती है क्योंकि यदि इस साईनाथ पर हमें पूरा विश्वास नहीं होगा, ये न्यायी हैं ही इस बात का पूरा भरोसा नहीं होगा तो हमारी भक्तिमार्ग की नींव ही दर असल मज़बूत नहीं है । एक बार यदि मैंने अपने सद्गुरु-स्थान पर इस साईनाथ को विराजमान कर लिया है, तो फिर उनसे कोई भी प्रश्न पूछने का खयाल तक मेरे मन में नहीं उठना चाहिए, क्योंकि जहाँ ‘प्रेम’ है, वहाँ प्रश्न के लिए स्थान ही नहीं होता ।

बाबा की भक्ति करते समय मेरे जीवन में ऐसी घटना घटी, इसका अर्थ यह है कि यदि इस समय बाबा मेरे जीवन में क्रियाशील नहीं होते तो इस की अपेक्षा कहीं और अधिक भयानक घटना मेरे साथ घटित हुई होती। मेरे बाबा ने ही मेरे प्रारब्ध के भोग को अपनी कृपा से बहुत ही सौम्य कर दिया है । बाबा की कृपा प्रारब्ध का पूर्णत: नाश करने के लिए पूर्ण समर्थ है, परन्तु क्या मेरी भक्ति उतनी है, जिससे कि इस पूर्ण कृपा को मैं अपने जीवन में प्रवाहित कर लूँगा? पर फिर भी मेरी थोड़ी बहुत टूटी-फूटी भक्ति से भी प्रसन्न होकर मेरे बाबा ने कितनी बड़ी अपार कृपा की है! मेरे प्रारब्धभोग में तीखी लौंगी मिरची खाने का भोग था, पर मेरे बाबा ने मेरे प्रारब्धभोग को सौम्य करके आकार में बडी रहनेवाली लेकिन तिखी न रहने वाली शिमला मिरची खिलाकर मेरे भोग को समाप्त कर दिया । इसके बावजूद भी मैं यदि बाबा से यह प्रश्न करूँ कि मुझे शिमला मिरची खाने को क्यों दी?

यह प्रश्न पूछना ही दर असल कितना गलत है । यदि बाबा मेरे इस क्यों का उत्तर देते हैं तो क्या मैं सुन सकूँगा? मेरे पापों के अनुसार लौंगी मिरची खाना यह फल तो निश्चित था, उस गत जन्म के मेरे पापकर्म के बारे में बाबा यदि मुझे बताते हैं तो मेरी क्या स्थिती होगी? इसीलिए बाबा कभी भी मेरे इस क्यों का उत्तर नहीं देंगे । यदि मैं कृतघ्नतापूर्वक ऐसा प्रश्न पूछता भी हूँ, तब भी ये अकारण कारुण्य के सागर साईनाथ मुझे मेरे ‘क्यों’ का उत्तर नहीं देते क्योंकि उसे सुनने के बाद जो मेरी हालत होगी, उससे सँभलना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा और उसी में खोये रहने के कारण आगे चलकर जो प्रगति मुझे करनी है, उसे करने का मेरा सामर्थ्य भी खत्म हो जायेगा ।

हम एक उदाहरण देखते हैं, फिर यह बात अधिक स्पष्ट हो जायेगी । मान लीजिए कि ‘क्ष’ नामक किसी व्यक्ति को इस जन्म में बाबा के भक्तिमार्ग का अवलंबन करते हुए एक दिन अचानक पेट में दर्द उठने लगा, अत्यन्त पीड़ा होने लगी, उसे तुरन्त अस्पताल में भर्ती कराकर उस पर शस्त्रक्रिया करनी पड़ी । अब यदि उसके मन में यह प्रश्न उठता है कि बाबा, तुम्हारी भक्ति करने पर भी मुझ पर इतना भारी संकट क्यों आया? मुझे इतनी पीड़ा सहनी पड़ी, रक्तस्त्राव हुआ, पेट काटना पड़ा, साथ ही आर्थिक, शारिरिक एवं मानसिक रूप में नुकसान भी हुआ। बाबा, ‘क्यों’ मेरे साथ ही ऐसा हुआ?

यदि इस ‘क्यों’ का उत्तर साईनाथ ने दे दिया तो? बाबा सचमुच दयालु हैं इसीलिए वे इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर कभी नहीं देते, उलटे अपना बच्चा इस प्रारब्धभोग से जल्द से जल्द किस तरह बाहर आयेगा और फिर से तेज़ी से भक्तिमार्ग पर प्रेमप्रवास करना कैसे शुरू करेगा इसके लिए वे निरंतर कार्यरत रहते हैं, उपाय बतलाते रहते हैं ।

४७  वे अध्याय में साप-मेंढ़क की कथा में हम सभी जानते हैं कि वैर, हत्या और ऋण ये जन्मजन्मान्तर तक खत्म नहीं होते । मुझे अपने पिछले जन्मों के बारे में और उनमें किये अनेक कर्मों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं होता, परन्तु ये साईनाथ सब कुछ जानते हैं । अब जिस ‘क्ष’ का उदाहरण हम देख रहे हैं, उसके संबंध में चर्चा करेंगे । कर्म के अटल सिद्धान्त के अनुसार इस ‘क्ष’ नामक व्यक्ति पर यह मुसीबत आई है यह तो निश्चित है। ‘जैसा कर्म वैसा फल’ यह सिद्धान्त केवल विज्ञान में ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर भी उतनी ही लागू है । ‘क्ष’ पर भी मुसीबत आने का कारण यह है कि पिछले जन्म में उसने किसी ओर को इसी प्रकार की तकलीफ़ देने का कर्म किया है । इस ‘क्ष’ ने पिछले जन्म में एक व्यक्ति के धन को लूटने के लिए उसे हथियार दिखाकर उसकी सारी दौलत लूटने का प्रयत्न करते समय उस व्यक्ति ने इस ‘क्ष’ को विरोध किया । तब ‘क्ष’ ने छुरी से उस व्यक्ति के पेट पर प्रहार किया और उसकी दौलत लूटकर उसे उसी हालत में तड़पता छोड़कर वह वहाँ से भाग गया ।

आगे चलकर उस व्यक्ति का क्या हुआ होगा यह उसके प्रारब्ध पर निर्भर रहा होगा । वह यदि भगवान की, सद्गुरुतत्त्व की, भक्ति करनेवाला नहीं होगा, कोई दुराचारी होगा तो फिर ऐसे समय पर उसे मदद मिलना तो मुश्किल ही रहा होगा। तो ऐसे इस ‘क्ष’ का पिछले जन्म में किया हुआ कर्म उसे उस कर्म के अटल फल को इस जन्म में भोगना ही है । पर इस जन्म में वह इस साईनाथ की भक्ति कर रहा है, इसलिए बाबा ने उसके प्रारब्ध के भोग को बहुत ही सौम्य रूप में भुगतने देकर इस भोग से उसे मुक्ति दे दी । पेट का दर्द, रक्तस्त्राव, शस्त्रक्रिया, शारिरिक, मानसिक एवं आर्थिक स्तर पर नुकसान यह सब होना तो कर्म के अटल सिद्धान्त के अनुसार स्वाभाविक ही था । उसके ऊपर भी किसी चोर या लूटेरे ने यदि इसी प्रकार हमला किया होता और उसके साथ भी यदि वैसी ही घटना घटी होती तो? पर यहीं पर मेरा साईनाथ उस भक्त एवं उसके प्रारब्धभोग के बीच खडा रहकर उसके प्रारब्धभोग को पूर्णत: सौम्य कर दिया । उसके पेट को भी काटना पड़ा, पर उन चोर लूटेरों के हाथों नहीं, बल्कि उपाधि-प्राप्त सर्जन के हाथों बड़ी कोमलता के साथ ! उसे पेट का दर्द सहना पड़ा, रक्तस्त्राव सहना पड़ा, पर किसी अचानक होनेवाले हमले के कारण नहीं बल्कि दर्द के कारण, उसे भी शारीरिक एवं मानसिक वेदना भी सहनी पड़ी, पर बहुत कम मात्रा में, क्योंकि यहाँ सब कुछ सहना पड़ा सिर्फ़ दर्द के कारण, ना कि किसी हमले के कारण और इसी लिए इसका आघात भी उसे सहना नहीं पड़ा । आर्थिक नुकसान भी सहना पड़ा, पर अपने ही इलाज के लिए, ना कि किसी के हाथों लूटकर, घायल होकर। यह भावना ही आर्थिक नुकसान की तीव्रता को कम करनेवाली साबित हुई ।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यहाँ पर साईकृपा से वह समय पर ही अस्पताल पहुँच गया, उसका इलाज भी हुआ । वैद्यकीय सेवा भी तुरंत मिल गई, शस्त्रक्रिया भी सफल रही और जान भी बच गई । इस प्रकार सब कुछ हुआ ।

इस ‘क्ष’ का उदाहरण माना कि काल्पनिक था । फिर भी कर्म के अटल सिद्धान्त को समझने में इससे काफ़ी सहायता मिलती है कि कर्म के अटल सिद्धान्त का नाश साई कृपा से कैसे होता है । यदि हम किसी और के धन को लूटते हैं तो हमारा भी धन इसी तरह कोई न कोई लूटेगा ही । यदि भक्त सत्त्वगुणी है तो साईनाथ कर्म का भोग अधिक से अधिक सौम्य कर देते हैं । जिस सत्त्वगुणी भक्त के प्रारब्ध के अनुसार आर्थिक हानि होनी निश्चित है, उसे ये साईनाथ उसी समय उचित स्थान पर ‘दान’ करने की बुद्धी देंगे और इससे उतने ही धन का व्यय प्रारब्ध के अनुसार हो जायेगा । साथ ही दान करने का ‘पुण्य’ भी जीवन में जुड़ जायेगा । प्रारब्ध का बुरा भोग दूर करते समय भी उसमें से ये साईनाथ सत्कर्म एवं पुण्य की जमा पूँजी किस प्रकार अपने भक्तों को देते रहते हैं !

पैसा तो खर्च होना ही था, मग़र वह ‘दान’ के रूप में गया और आर्थिक नुकसान का प्रारब्धभोग भुगतते समय भी दान का पुण्य साथ जुड़ गया । ये मेरे साईनाथ ही अंधकार का रूपांतरण प्रकाश में करते हैं, वह इसी तरह । सिर्फ़ साईनाथ ही यह सब कुछ कर सकते हैं और कोई भी नहीं कर सकता ।

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