श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- ५)

इसी लिए साई का ‘धन्यवाद’ । चाहा यथामति करूँ विशद।
होगा वह भक्तों के लिए बोधप्रद। पापापमोद होगा॥

साई के अकारण कारुण्य के कारण उन्होने हि  मुझ पर कृपा कर यह साईसच्चरित लिखने की प्रेरणा एवं सामर्थ्य प्रदान किया। मेरे जीवन विकास के लिए अविरत परिश्रम करने वाले साईं के ऋणों का स्मरण रखकर साईं को ‘थँक्स’ कहूँ तथा धन्यवाद का भाव बाबा के चरित्रलेखन द्वारा अभिव्यक्त करूँ, ऐसा हेमाडपंत को प्रतीत हुआ। हमें भी हमारे इस सद्गुरुराया को, साईनाथ को ‘थँक्स’ कहने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया हेमाडपंत के आचरण से सीखनी चाहिए। हमारे जीवन में जब हमारे सद्गुरु को कहा गया ‘धन्यवाद’ सतत प्रवाहित होते रहता है, तब हमारे जीवन का अन्य सभी व्यर्थ ‘वादों’ का लोप हो जाता है और हमारा जीवन ‘धन्य’ हो जाता है। अनावश्यक वाद-विवादों से मुक्त कर हमारे जीवन को ‘धन्य’ बनाने वाला ऐसा है यह श्रीसाईनाथ का ‘धन्यवाद’।

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हेमाडपंत स्वयं के इसी अनुभव को इस अध्याय के कथा द्वारा हमें बता रहे हैं। हेमाडपंत के इस अध्याय के एक कथा से वे हमें यह स्पष्ट करते हैं कि बाबा ने ही मुझे वाद-विवाद से दूर कर मेरे जीवन को धन्य किया। ‘हेमाडपंत’ नामकरण कथा से हमें यही सीख मिलती है। ‘वाद’ के आते ही ‘संवाद’ खत्म हो जाता है और ‘संवाद’ के टूटने से हमारे जीवन विकास में अवरोध उत्पन्न होता है। सद्गुरु साईनाथ के साथ ‘संवाद’ होते रहना यही तो भक्तिमार्ग की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है। सद्गुरु के साथ ‘संवाद’ करते-करते ही मन को सामर्थ्य मिलते रहता है, मन का रुपांतर चित्त में होता है, साथ ही अधिकाअधिक हरिकृपा मन में हर तरह से जीवन में प्रवाहित होती है। ‘संवाद’ यह हरिकृपा को प्रवाहित करने के लिए सहज सुंदर माध्यम (channel) है। ‘संवाद’ ही मुझे मेरे सद्गुरुकृपा के साथ जोड़नेवाली अक्षय नाल हैं।

‘वाद’ के आते ही संवाद खंडित हो जाता है और हम स्वयं ही अपने ही हाथों से इस वाद-विवाद के जंजाल में फ़सकर प्रज्ञापराध के कारण अपने साई से दूर हो जाते हैं। हमारे जीवन में केवल परमार्थ ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में ‘संवाद’ बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। बाहरी तत्त्वों से ही नहीं, बल्कि मेरा मेरे ही साथ संवाद होते रहना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। हमारे साईनाथ हमेशा हमारे साथ संवाद करते ही रहते हैं, परन्तु हम ही वाद-विवाद में उलझकर उनके साथ संवाद करने से मना कर देते हैं। हम यह सोचते हैं कि हमारे जैसा चालाक और कोई नहीं। और इसी अहंकार के कारण सभी प्रकार के वाद-विवाद का उपद्रव मचा रहता है।

आये दिन के व्यवहार में भी हम यही गलती करते रहते हैं और इसी कारण व्यवहार में भी असफ़लता ही हमारे हाथ आती हैं। हम कभी किसी की बात सुनना पसंद नहीं करते। ‘मुझे कोई क्या सिखायेगा?’ ‘मुझे सब कुछ समझता है’। मुझे किसी की कोई ज़रूरत नही है। मैं जानता हूँ मेरा हित किस में है। ऐसे ही बड़प्पन में हम अपना ही नुकसान करते रहते हैं। किसी से कुछ भी पुछने में हमारे अहं को चोट पहुँचती है। सीधा-सादा पता भी पुछना हो तो हम संकोच करते हैं। हम समझते हैं कि हम ढूँढ़ लेंगे। वास्तव में देखा जाये तो इस में गलत ही क्या है, शर्म किस बात की? फ़िर भी हमें ऐसा लगता ही है।

हम भी बत्तीसवे अध्याय के उन चारों की तरह अहंकारी वृत्ति रखते हैं और उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं। बनजारी स्वयं हमारी मदद करने के लिए तैयार है फ़ीर भी,  ‘यह ‘बनजारी’ क्या खाक हमारी मदद करेगा? हम ठहरे इतने विद्वान पुरुष और यह अशिक्षित भला हमें क्या रास्ता दिखायेगा?’ बनजारी स्वयं हमें मार्ग दिखाने के लिए तैयार है साथ ही वह जो भी भाकर-तुकड़ा लाया है वह खिलाने के लिए पानी पीलाने के लिए तैयार है। पर हम अपने घमंड के कारण उसे दपटकर आगे बढ़ जाते हैं। हमारे सद्गुरुराया किसी न किसी रुप में हमारी सहायता करने के लिए, हमारी भलाई के लिए हमारे राह में खड़े रहते हीं हैं।

जिस-जिस पथ पर भक्त साई का। वहाँ खड़ा है साई॥

हर गुरुवार आरती बोलते समय यह पंक्तियाँ हम कहते हैं। सचमुच ये साईनाथ इनका भक्त जिस राह पर है, उस राह पर अपने भक्त को राह दिखाने के लिए, उसकी सहायता करने के लिए भरी दोपहर में, उसी चौराहे पर खड़े रहते हैं। परन्तु ‘अहंवादी’ हम जैसों को इनका परिश्रम, इनकी करुणा, प्रेम दिखाई ही नहीं देता। हम में इस साईनाथ का हमारे साथ होने वाले संवाद को सुनने की तैयारी ही नहीं होती, फ़ीर उनसे संवाद करना तो दूर की बात है। परन्तु एक बात हमें सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि, काका दीक्षित के घर की एक सामान्य नौकरानी भी यदि दासगणु जैसे व्युत्पन्न विद्वान-श्रेष्ठ के ईशावास्य उपनिषद् की उलझन को चुटकी बजाते ही सुलझा सकती है और यह सब बाबा के मुख से निकलनेवाले शब्दानुसार ही संभव होता है, तो फ़ीर हमारी भला क्या औकात? दासगणु जैसे संतपुरुष जब हमें अपने अनुभवानुसार अहंवाद छोड़कर साई को धन्यवाद देनेवाले मार्ग का अवलंबन करने को कहते हैं, तो हमें उनकी बात सुननी ही चाहिए।

बाबा के कहने पर बकरे को काटने के लिए कहने पर काकासाहेब दिक्षित जैसे महान भक्त किसी भी प्रकार के वाद-विवाद में न पड़ते हुए अपनी मति कुंठित न होने देकर तुरंत ही बाबा की आज्ञा का पालन करते हैं, तब हमें भी बाबा के मुख से बाहर निकलनेवाले हर एक शब्द को वाद-विवाद के झमेले में पड़े बिना ही अपने आचरण में उतारना चाहिए। बाबा जो कुछ भी कहते हैं, उस पर अन्य किसी से अपने आप से अथवा बाबा से भी वाद-विवाद किए बिना बाबा की बात अच्छी तरह से सुनकर, बाबा के साथ संवाद साध्य करते हुए उन्हें धन्यवाद कहना चाहिए। जो बाबा को धन्यवाद देनेवाली भूमिका में अपना जीवन स्थापन करता है, उसे बाबा सभी वादों से बाहर निकालते हैं और उसके जीवन को धन्य बनाते ही हैं।

धन्यता का अर्थ हैं कृतार्थता यह तो है ही परन्तु सच्ची धन्यता अर्थात श्रद्धा-सबूरी का जीवन में प्रवाहित होना। साईनाथ को धन्यवाद कहते रहनेवाले भक्त के जीवन में ये साईनाथ इस श्रद्धा-सबूरी को प्रवाहित कर उसके जीवन को सही मायने में धन्य बना देते हैं। साई को धन्यवाद कहना यही इस संवाद की पृष्ठभूमि है और ऐसी मज़बूत पृष्ठभूमि पर होनेवाले ‘संवाद’रुपी सेतु द्वारा ही ये साईनाथ श्रद्धा-सबूरी प्रवाहित करते हैं। हमारे जीवन में इस ‘संवादरुपी’ सेतु को बनाना है तो धन्यवाद की मज़बूत पृष्ठभूमि पर ही उसे बनाया जा सकता है।

‘धन्य’ यह शब्द ‘ध’ कार एवं ‘अनन्यता’ इन दो शब्दों को दर्शाता है। ‘ध’ अर्थात ‘धैर्य’ एवं ‘अनन्यता’ अर्थात अढल श्रद्धा, सर्वोच्च श्रद्धा। ‘धन्यता’ अर्थात श्रद्धा-सबूरी का संगम। हमारे जीवन को सही मायने में धन्य बनाने वाली ये श्रद्धा एवं सबूरी ही है। हेमाडपंत इस अध्याय में ‘हेमाडपंत’ नामकरण की कथा बताकर अंत में इसी रहस्य का उद्घाटन करते हैं, बाबा ने मुझे इस वाद-विवाद के झमेले से बाहर निकालकर श्रद्धा-सबूरी को मेरे जीवन में प्रवाहित किया और मेरे जीवन का समग्र विकास किया। इसी लिए बाबा को ‘धन्यवाद’ देते रहने वाली मेरी भूमिका से ही ‘श्रीसाईसच्चरित’ रुपी संवाद की अभिव्यक्ति हुई है और यह सारी मेरे बाबा की साईनाथ की ही लीला है। हेमाडपंत इस अध्याय के अंत में भी यही बात बताते हैं।

वादावादी ठीक नहीं। ना करो किसी से बराबरी।बिना श्रद्धा-सबूरी के। परमार्थ तिलभर भी न होगा साध्य॥

हमें भी साई को ‘धन्यवाद’ कहते हुए संवाद के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। मैं जीत गया और सामने वाला हार गया इस तरह के वाद-विवाद के दुष्टचक्र में फ़सकर हम ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। यह वादग्रस्त अहंकार ही हमारे लिए सभी स्तरों पर धोखादायक साबित होता है। तारक हैं केवल श्रद्धा-सबूरी के दाता साईनाथ। ‘वाद’ से ‘धन्यवाद’ तक का प्रवास हेमाडपंत का जिस तरह हम इस अध्याय में देखते हैं और उनके जीवन को साई ने इसी के अनुसार किस तरह ‘धन्य’ किया उसका भी हम इस साईसच्चरित में अनुभव करते हैं, उसी तरह मुझे भी सारे वादों को एक तरफ़ कर धन्यवाद के आधार पर संवाद का सेतु बाँधना चाहिए, फ़ीर मैं और मेरे साईनाथ के बीच कोई भी अवरुद्धता नहीं रहेगी।

हमारे ‘प्रत्यक्ष’ का उद्देश्य , ‘प्रत्यक्ष’ का घोषवाक्य यही है – ‘तुटे वाद संवाद वही हितकारी’

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