डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर (१९८४-१९५५)

‘डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार’ यह पुरस्कार प्राप्त करनेवाले वैज्ञानिक स्वयं को धन्य मानते हैं। और इस पुरस्कार के प्रति काफी सन्तोष व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं। उनका मन्तव्य होता है – ‘डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से हम सभी संशोधनकर्ताओं (अनुसन्धानकर्ताओं) को जो सम्मान प्राप्त होता है, उससे हमें अपरंपार सन्तोष मिलता है।’

२१ फरवरी १८९४ के दिन शाहपूर में (आज की तारीख में शाहपूर यह पाकिस्तान में है) उनका जन्म हुआ। डॉ. शांतिस्वरूप के पिता परमेश्‍वरी सहाय भटनागर ने ब्राह्मो समाज के दर्शनशास्त्र का स्वीकार किया था। परन्तु डॉ. शांतिस्वरूप केवल आठ महीने के थे, तभी उनकी मृत्यु हो गई और यह परिवार अपने नाना के घर चले आये। उनके नाना इंजिनियर थे और उस दौरान भी स्वयं की प्रयोगशाला थी। इसी लिए गणित, पदार्थ विज्ञान जैसे वैज्ञानिक विषयों के प्रति उनका आकर्षण बढ़ गया। बिलकुल बाल्यावस्था में ही शांतिस्वरूप इस प्रयोगशाला में ही विविध प्रकार के यांत्रिक खिलौने, इंजन, टेलीफोन बनाना इस प्रकार के कार्य किया करते थे। अच्छे भरे-पूरे घर का उपयोग करनेवाला, नाम रोशन करने वाला यह नाती नानाजी को मिला था।

भारत से सायन्स में उपाधि प्राप्त शिक्षा हासिल कर वे अपनी अगली शिक्षा हेतु इंग्लैंड रवाना हो गए। १९२५ में यूनिव्हर्सिटी कॉलेज लंडन से उन्होंने डि. एस. सी. की उपाधि प्राप्त की। इसके साथ ही जर्मन और फ्रेंच भाषाओं का अध्ययन, वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ाने के लिए उन्होंने किया। ‘करामाती’ नाम की उनकी उर्दू एकांकी का को कॉलेज में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। लंडन के निवासस्थान में उनके समक्ष एक ही ध्येय था और वह ध्येय था भारत के सर्वांगीण विकास के लिए उपयुक्त साबित हो ऐसा संशोधन करने का ध्येय। संशोधन के प्रति होनेवाली इस उनकी निष्ठा हो जानकर इंग्लैंड के प्रिव्ही कौन्सिल के सायन्टिफिक अ‍ॅण्ड इंडस्ट्रियल डिपार्टमेंट ने उन्हें शिष्यवृत्ति देनी चाही, इसके साथ ही पॅरिस जैसे शहर में संशोधन करने की उन्हें अनुमति भी मिल गई। यूरोप के कुछ देशों की वैज्ञानिक प्रगति का विवरण लिया जा सके इसके लिए उन्होंने एक विशेष प्रयास किया। शिष्यवृत्ति तो उन्हें प्राप्त हो ही चुकी थी। मादाम क्यूरी सहित अन्य कुछ संशोधनकर्ताओं से उन्होंने मुलाकात की। डॉ. भटनागर के वहाँ पर होनेवाले संशोधनात्मक व्याख्यानों की यूरोप में काफ़ी चर्चा रहीं। यह कीर्ति भारत तक पहुँचकर डॉ. भटनागर को उस समय के बनारस हिन्दू महाविद्यालय के कुलगुरु लोकनेता पंडित मदन मोहन मालवीयजी ने रसायनशास्त्र के प्रमुख पद के सूत्र सौंप दिए।

डॉ. भटनागर के संशोधन औद्योगिक क्षेत्र से अधिक संबंधित थे। इसके पश्‍चात् वे लाहोर चले गए। पंजाब महाविद्यालय एवं लाहौर में वे सोलह वर्षों तक रहें। कोलायडल एवं मॅगनेटो केमेस्ट्री ये उनके संशोधन का मुख्य विषय था तथा अ‍ॅप्लाईड एवं इंडस्ट्रियल केमिस्ट्री से संबंधित काम उन्होंने विशेष तौर पर किए। १९२८ में उन्होंने माथुर नामक संशोधनकर्ता के साथ भटनागर-माथुर मॅग्नेटिक इंटरफेरन्स बॅलन्स नामक उपकरण की खोज की, जिसका उपयोग चुंबकीय गुणवत्ता का नाप-तोल करने के लिए किया जाता है। इंग्लैंड के रॉयल सोसायटी में उसे प्रदर्शित किया गया।

निरूपयोगी समझे जानेवाले गन्ने की खल्ले (छिलके आदि) को न फेंकते हुए उनका उपयोग पशुखाद्य के रूप में उपयोग किया जा सके इसके लिए उनका संशोधन उपयोगी साबित हुआ। अनेक निरुपयोगी समझी जानेवाली वस्तुओं की उपयुक्तता सिद्ध करनेवाले संशोधन उन्होंने किए। रावलपिंडी के एक प्रसिद्ध तेल उद्योग को उनके तेल के लिए ज़मीन खोदते समय बाहर आनेवाली मिट्टी, कीचड़ आदि के सूखकर कड़क हो जाने पर आगे खुदाई के समय तकलीफ होती थी। इसपर उन्होंने एक उत्कृष्ट एवं आसान पद्धति की खोज की। इससे काम के बीच आनेवाली कठिनाई भी दूर हुई और उस दौरान उस कंपनी ने डॉ. भटनाकर को डेढ़ लाख रुपैये दिए। इस तरह अनेकों बार मिलनेवाली इन पुरस्कात की रकमों को उन्होंने महाविद्यालय को संशोधन कार्य के लिए दे दिया। श्री माथुर उनके इस सहकार्य सहित उन्होंने ‘फिजिकल प्रिन्सिपल्स अ‍ॅण्ड अ‍ॅप्लिकेशन्स ऑफ मॅगनेटो केमेस्ट्री’ नामक यह पुस्तक लिखी। मॅकनिकल कंपनी द्वारा प्रसिद्ध की गई यह पुस्तक अव्वल दर्जे की पुस्तक के रूप में देश-विदेशों में बखानी जाती है। कवि हृदय रखनेवाले इस संशोधक का बनारस हिन्दू महाविद्यालय में काम करते समय ‘कुलगीत’ नामक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। विज्ञान की सेवा यही देशसेवा, मानवसेवा है यह उनका सिद्धांत था।

स्वातंत्र्योत्तर काल में ‘कौन्सिल ऑफ सायंटिफिक एण्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च’ (CSIR) नामक इस वैज्ञानिक संस्था के वे संचालक थे। संशोधकीय प्रयोगशालाओं के वे जनक माने जाते हैं। पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला (नॅशनल केमिकल लॅबोरेटरी) की निर्मिति में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा।

इंग्लैंड के रॉयल सोसायटी का सदस्यत्व उन्हें प्राप्त हुआ था। १९४१ में नाईट्हूटड (Kinght hood) नामक पुरस्कार एवं १९५४ में पद्मविभूषण पुरस्कार इस प्रकार के पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया गया था।

उद्योग-व्यवसाय आदि की एवं संशोधन कार्यों का उत्तम सामंजस्य होगा तो सर्वांगीण प्रगति का मार्ग अपने आप ही प्रशस्त हो जायेगा। महाविद्यालयों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में आपसी संबंध निर्माण होना ही चाहिए ऐसी उनकी भूमिका रही।

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