समर्थ इतिहास -१५

शिवपूजनतामिळहम्‌‍ (तमिलनाडू + केरल) इस प्रदेश में अगस्त्य ऋषि ने प्रवेश किया, उस समय सूर्यपूजन तो था ही; परन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि यहाँ पर लिंगपूजन यह ‘भगवान शिव` का पूजन था। भगवान शिव ही सबसे श्रेष्ठ आराध्य देवता थे और अभिषेक, फूल चढ़ाना, नैवेद्य अर्पण करना और आरती करना ये उपचार शिवपूजन में आवश्यक थे। इन भगवान शिव का वर्णन और कथा हूबहू वेदों में वर्णित ‘रुद्र` से मेल खाने वाली थी, दर असल वे एक ही थे। अगस्त्य मुनि ने स्वयं तमिल सीखकर और उस प्रदेश के जिन वृद्धों के पास संस्कृत की थोड़ी बहुत जानकारी बची थी, उसकी सहायता से दक्षिणी बांधवो को संस्कृत सिखाकर विंध्य पर्वत के कारण विभाजित हुए समाज को पुनः एकसाथ कर दिया।

इस संपूर्ण प्रदेश में पहले से ही अत्यंत भव्य शिवमंदिर थे ही और उनकी शिल्परचना भी अत्यंत सुंदर एवं उत्कृष्ट थी। अगस्त्य ऋषि की प्रेरणा से इन मंदिरों के अहाते में और दीवारों पर शिवकथा के चित्र आलेखित किये जाने लगे और वेदोक्त रुद्रसूक्त को शिवलिंग पर अभिषेक करने के लिए अपनाया गया। दक्षिण में स्थित समाज को, अगस्त्य मुनि द्वारा निःस्वार्थ रूप से की गयी तमिल भाषा की सेवा और (उनके द्वारा) करवाया गया राज्यों का गठबंधन इससे केवल अगस्त्य मुनि ही नहीं, बल्कि अगस्त्य मुनि के मूल प्रदेश का समाज भी बिलकुल अपना सा लगने लगा।  

उसी काल में तामिळहम्‌‍ में रहनेवाले हर एक गाँव में ‘आकाश कन्निगै` इस पर्जन्यदेवता की उपासना होती थी। ये उनके वीर, पराक्रमी और पालन-पोषण करनेवाले देवता थे। इनका वर्णन कुछ हद तक वरुण के साथ और कुछ हद तक इंद्र के साथ मिलताजुलता था और ये पर्जन्यदेवता ‘पोंगळ` नामक चावल से बनाया पेय पीते थे और वह पेय और इंद्र का सोमरस इनके गुणधर्म १००% समान ही थे। इस कारण इंद्र और प्रमुख ‘आकाश कन्निगै` धीरे धीरे एकरूप हो गये। उसी तरह ‘पूषा` यह वैदिक पशुरक्षक देवता और तामिळहम्‌‍ स्थित ‘पुषन्‌‍` अथवा ‘मायोन` इस पशुरक्षक देवता का एकत्व सिद्ध हेो गया। प्राचीन तमिल साहित्य में ये ‘पुषन्‌‍ मायोन` साँवले रंग के, सुंदर दिखनेवाले और मुरली बजाकर चर-अचर को नादमय करनेवाले इस प्रकार वर्णित हैं।  

‘कोर्रवाई` ये तामिळहम्‌‍ के पालय प्रदेश में स्थित कुलदेवी थीं। इनका ‘काली` यह नाम था। ये पर्वत की कन्या थीं और भगवान शिव की सहचारिणी थीं। अगस्त्य ऋषि ने इन काली को जगदंबा पार्वती के रूप में स्वीकार किया और उन्हीं के पुत्र रहनेवाले ‘शेयोन` अथवा ‘सुब्रह्मण्य` के कार्तिकेय के साथ रहनेवाले साधर्म्य के कारण ‘कार्तिकेयस्कंद` के रूप में उनका पूजन करना आरंभ किया। यह आसानी से होने का प्रमुख कारण यह था कि उन दोनों का उत्सव स्कंदषष्ठी के दिन ही होता है।  

पांड्यनाडू के राजघराने ने प्रथमतः शिलाओं को कुरेदकर सुंदर सुंदर शिवमंदिरों का निर्माण करना आरंभ किया और अगस्त्य ऋषि ने भगवान शिव को ‘महादेव` यह नामाभिधान बहाल  किया। पांड्य राजाओं द्वारा दिये गये प्रोत्साहन के कारण वहाँ से समुद्री रास्ते से व्यापार होता था और अगस्त्य ऋषि के परामर्श के अनुसार ये नौकाएँ अब ओरिसा, बंगाल और शूर्पारक इन बंदरगाहों तक जाने लगीं।  

इस तरह काल के प्रवाह में विभाजित हुआ यह महान संस्कृति का समाज, पुनः समरस होना शुरू हो गया। मुख्य रूप से पांड्य राजाओं के कुलगुरु बनने के बाद अगस्त्य मुनि ने हर वर्ष अपने प्रमुख शिष्यों के साथ पांड्य नागरिकों को विंध्याचल पार करके उत्तर में (उत्तर दिशा में स्थित प्रदेश में) भेजना शुरू किया और लौटते समय ये लोग (उत्तर में भेजे गये लोग) अपने साथ उत्तर के अनेक बांधवों को तथा अनेक वस्तुओं को लेकर आने लगे। इस कारण उत्तर में भी रुद्र उपासना को शिवपूजन का अधिष्ठान प्राप्त हुआ और दक्षिणी शिल्पकला उत्तर के मंदिरों में तथा नगररचना में सम्मानित की जाने लगी।

अगस्त्य ऋषि के दंडकारण्य स्थित आश्रमों ने उत्तर और दक्षिण भारत को जोडने के महन्मंगल कार्य में अत्यंत महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभायी। दोनों दिशाओं में आने-जानेवाले मुसाफिरों का दिग्दर्शन करने का काम इन आश्रमों ने किया और इस कारण इन आश्रमों के बारे में उत्तर और दक्षिण भारत में अधिकांश लोगों को ज्ञात हो गया। धीरे धीरे इन आश्रमों के उपनिवेश बढ़ते गये और इन उपनिवेशों में उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों का एकरस मिश्रण हुआ। रामायण में श्रीराम को अनेक जानकारियाँ देनेवाले सुतीक्ष्ण मुनि इस आचार्यसंकुल के पहले कुलपति थे।  

दंडकारण्य में उत्तर और दक्षिणी संस्कृति का सुंदर मिलाप हुआ, पुरानी टूटी हुई कड़ियाँ फिर एक बार जोड़ी गयीं और सुतीक्ष्ण मुनि के बाद इस विद्यासंकुल के द्वितीय सम्माननीय महापुरुष नायन्मार माणिक्कवाच्चकर ये पांड्यराजा के अमात्य ही थे।

अगस्त्य ऋषि ने वास्तव में विंध्याचल को झुका दिया क्योंकि दो छोर छोड़कर विंध्यपर्वत की ऊँचाई कहीं पर भी समुद्री सतह से १६०० फिट से कम नहीं है और यह पर्वत ७०० मील लंबा है। ऐसे विशाल पर्वत को लाँघकर यातायात शुरू करना और वह भी जटिल जंगलों, खूँखार जानवरों और क्रूर ऋक्षवानों का मुकाबला करते हुए, यह पर्वत को झुकाना नहीं है, तो भला और क्या है? और वह भी ऐसे समय में, जब यंत्रविद्या और विज्ञान बहुत ही प्रारंभिक अवस्था में था।  

(क्रमशः)
सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष
 
(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)
 

 

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