समर्थ इतिहास-५

सम्राट समुद्रगुप्त ये स्वयं अत्यंत रसिक मन के कलाप्रेमी थे| वे स्वयं उत्कृष्ट संगीत विशेषज्ञ और निपुण वीणावादक थे| वीणावादन यह समुद्रगुप्त के जीवन का वास्तविक मनोविश्राम था| समुद्रगुप्त ने संगीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों कलाओं का विकास कराने में भरपूर सहायता की| उन्होंने जगह जगह ‘वात्स्यायन मंदिरम्’ स्थापित कर इन कलाओं को समृद्ध किया| भद्रादेवी यह महिला और पुष्पमित्र सायण यह आचार्य इस विभाग का कार्य सँभालते थे| इस पुष्पमित्र सायण ने इन कलामंदिरों की व्यवस्था में कड़ा अनुशासन रखा था और इस कारण इन कलाप्रकारों को और कलाकारों को भी समाज में उस जमाने में प्राप्त न होनेवाली प्रतिष्ठा निश्‍चित रूप से प्राप्त हुई थी|

जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, उसके अनुसार इन कलाकारों का (अथवा गणिकाओं का भी) उपयोग गुप्तचर यंत्रणा में किया जाता था| साथ ही शुद्ध शास्त्र के रूप में भी हर एक कलाप्रकार का शास्त्रशुद्ध अध्ययन कर अनेक ग्रंथरचनाएँ भी की गयीं|

सभी प्रकार के शिक्षाकेन्द्रों ने अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था| ये सभी ग्रंथ रेशम के वस्त्रों पर, भूर्जपत्रों पर अथवा चीन से प्राप्त कागज़समान पत्रिकाओं पर लिखे हुए होते थे| किसी भी ग्रंथ को ‘कुंडलाचार्य’ सभा की मंजूरी जब तक नहीं मिलती थी, तब तक उसे अधिकृत नहीं माना जाता था| इस नियम के कारण निरर्थक एवं खोखले ग्रंथ लिखकर व्यर्थ का बडप्पन दिखाने वालों के लिए कोई भी स्थान नहीं रहा था| अर्थात् इस कारण से ग़लत ज्ञान और ग़लत तत्त्व समाज में फैल नहीं सकते थे| यह नियम और यह मान्यताप्रणालि यदि आगे इसी तरह चलती रहती, तो भारत को परतंत्रता में जकड़ने वाली रोटीबंदी, बेटीबंदी और समुद्रबंदी ये तीनों बेड़ियॉं उत्पन्न ही नहीं हो पातीं|

समुद्रगुप्त के ही कार्यकाल में एक गरुडमंदिर के यज्ञवर्म नामक प्रमुख कुंडलाचार्य ने अनेक विभिन्न युद्धपद्धतियॉं और युद्ध के लिए उपयोगी यंत्र खोजे थे| कौटिल्य के आयुधागार प्रकरण के तत्त्वों पर ही इन यंत्रों की रचना आधारित होती थी| इनमें से कुछ निम्नलिखित हैंै:

१. आस्ङ्गोटीम – यह मीनारों पर आड़ में रखा हुआ लोहे का एक यंत्र था| प्रमुख यंत्र चार पैरों पर रखा हुआ होता था और इसके प्रमुख हिस्से को चमड़े से इस प्रकार ढका हुआ होता था कि दूर से शत्रु की कुछ भी समझ में न आये| इस यंत्र के चार पैरों में एक चक्र लगाया होता था और इस चक्र के डंड़े को घोड़े की सहायता से घुमाया जाता था और उसकी सहायता से लगभग २०० मीटर की दूरी तक भारी पत्थरों को बरसाया जा सकता था|

२. देवदंड – यह साधारणत: तोप के समान यंत्र था| इसकी केवल नली का मुँह (एक बीता आकार का) चहारदीवारी में रहनेवाले छेद में होता था| इसमें से ज्वालाग्राही पदार्थ शत्रु की सेना पर फेंके जाते थे|

३. तालवृंत – इस यंत्र के द्वारा जहरीली वायु उत्पन्न करके उसे शत्रु की सेना की ओर प्रवाहित किया जाता था (आज के आँसू गॅस के समान)| इस जहरीली वायु के कारण सेना को सॉंस लेने में प्रतिबंध होता था और उससे शत्रु की सेना नष्ट हो जाती थी|

४. जामदग्नेय शरयंत्र – यह एक चक्रमय यंत्र था| इसमें से एक के बाद एक इस क्रम से एक ही समय पर कम से कम १२ से लेकर अधिक से अधिक ५४ बाणों को छोड़ने की व्यवस्था होती थी|

इसी प्रकार के शतघ्नी, आवर्त यंत्र, पांचालिका, शुकरिका, विश्‍वासघाटी, दफ्तस्त्र, भुज सटीका आदि नये नये यंत्र निर्माण किये गये थे| यंत्रविधान पर उस दौर में अनेक ग्रंथों का निर्माण किया गया था|

राजा भोज ने अपने ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक युद्धविषयक ग्रंथ में यंत्रविधान नाम का एक खंड जितना बड़ा प्रकरण ही लिखा है| राजा भोज के इसी ग्रंथ में, जिस पर गर्व हो ऐसा सविस्तार वर्णित एक यंत्र था ‘महाविहंग’ अथवा ‘आकाशयान’| इसका आकार वर्तमान समय के हेलीकॉप्टर जितना होता था और आकृति गरुड के समान होती थी| इस यंत्र के लिए वज़न में अत्यधिक हलकी रहने वाली लकड़ी इस्तेमाल में लायी जाती थी| इस यंत्र के मध्यदेह में दो पंख जोड़े हुए होते थे| इस यंत्र के मुख्य हिस्से के (मध्य अंग के) कुल चार हिस्से होते थे| उनमें से सबसे निचला हिस्सा तॉंबा (कॉपर) और जस्ता (झिंक) इन धातुओं से बनाया हुआ होता था और उसमें आग जलायी हुई होती थी| उस पर रहने वाले धातु के विभाग में शुद्ध किया हुआ पारा (मर्क्युरी) रखा हुआ होता था और आग की गरमी से पारा जैसे जैसे गरम होता जाता था, उस प्रमाण में शक्ति निर्माण होकर भीतर बैठा हुआ चालक कुंजी और चक्रों की सहायता से यंत्र को शुरू करता था| मध्य अंग का मुख की ओर रहने वाला हिस्सा यह चालक का विभाग था| लेकिन इन पंखों की थोड़ी गति होती थी और उसी के साथ यह आकाशयान ज़मीन से लगभग ६० सेे २०० फिट तक ऊँचा उडता था और हवा में ही आगे बढता था| साधारणत: इस यान में रहनेवाले पारे के द्रव्यमान के अनुसार ऐसा ‘महाविहंग’ डेढ़ से ढाई घटिका तक (३६ मिनट से एक घंटे तक) हवा में संचार कर सकता था|

यह सब देखने पर सीना गर्व से फूल जाता है| जो बातें बाकी दुनिया में आने में अगले एक हज़ार साल लग गये, वे ही बातें समुद्रगुप्त और भोज के काल में भारत में सिद्ध हो चुकी थीं| प्राचीन भारत यह भौतिक प्रगति को नकारने वाला और अंधश्रद्धा में पूरी तरह जकड़ा हुआ देश यह चित्र उस समय तक तो निश्‍चित रूप से नहीं था, यह इससे सिद्ध होता है| यह दुर्भाग्यपूर्ण स्वरूप भारत को इसके बाद के काल में ही प्राप्त हुआ और उसकी सज़ा भारत ने लगभग एक हजार साल तक भुगती| अनगिनत छोटे छोटे राष्ट्र निर्माण होते गये और उनके शासक भी स्वयं के भोगविलास में ही मशगूल थे| उनका खिंचाव प्रजा, संस्कृति, भौतिक प्रगति अथवा आध्यात्मिक उन्नति इनमें से किसी भी तरफ़ नहीं था| आज के भारत में रहने वाले अनगिनत छोटे छोटे पक्ष (पार्टियॉं), गुप्त साम्राज्य के बाद के समय में निर्माण हुए छोटे छोटे राज्यों के ही, इस समय में प्रतिनिधित्व करने वाले अवशेष हैं और इसी कारण भारतीय राष्ट्र एकसंघ और एकरस बनने में कठिनाइयॉं आ रही हैं|

लोकतंत्र राज्यव्यवस्था में समर्थ विरोधी पक्ष का होना यह अत्यधिक आवश्यक ही होता है, परन्तु छोटे छोटे पक्ष संकुचित ध्येयों के कारण भिन्न भिन्न धरातलों पर अलग अलग रवैय्या अपनाते हैं और इस कारण उनका समर्थन वास्तव में किस तत्त्व को है और क्यों है, साथ ही उनका विरोध किस तत्त्व को है और क्यों है, यह कभी भी स्पष्ट नहीं होता|

समुद्रगुप्त का साम्राज्य था और वेे सम्राट ही थे; परन्तु कुंडलाचार्य सभा, अमात्यपरिषद्, सामंतपरिषद् और वसंतोत्सव ग्रामसभा एवं नगरसभा इन घटकों के कारण साम्राज्यशाही के दोष दूर होकर निर्दोष राज्यव्यवस्था उत्पन्न की गयी थी और यही समुद्रगुप्त का प्रमुख बल था|
(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

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