समर्थ इतिहास-१३

अगस्त्य ऋषि के दौर से पहले यानी अतिप्राचीन कालखंड में ऑस्ट्रेलिया से दक्षिण अफ़्रीका तक एक अतिप्रचंड भूभाग अस्तित्व में था और यह भूभाग आज के दक्षिण भारत के साथ एकसंघ था। इस भूभाग को पाश्चात्य अनुसंधानकर्ताओं ने ‘लेमूरीया` यह नाम दिया है। इस पूरे भूभाग में द्रमिल संस्कृति के मानवसमूह वास्तव्य कर रहे थे। प्रा. काल्डवेल और प्रा. रित्झ्‌‍ की राय में इनकी भाषा मूल सिथियन भाषा के करीब थी। यह समाज अत्यंत प्रगत, सुसंस्कृत एवं सुसंगठित था। मूर्तिपूजा, चावल की खेती, विविधता युक्त धातुओं के अलंकार और सुव्यवस्थित ग्रामरचना ये इनकी विशेषताएँ थीं। आगे चलकर अगस्त्य ऋषि के काल के एक हजार वर्ष पहले हिन्द महासागर में प्रचंड परिवर्तन होकर इनमें से ९० प्रतिशत भूभाग पानी में डूब गया और इस प्रलय से जो समूह स्वयं की रक्षा कर सकें, वे समूह दक्षिण भारत के किनारे पर आ गये और वहीं से पूरे दक्षिण भारत में फैल गये; वहीं, इनकी कुछ शाखाएँ समुद्री मार्ग से ही एशिया मायनर विभाग में पहुँच गयीं और आगे चलकर ईरान, इराक और बलुचिस्तान इस रास्ते से उत्तर भारत में आकर स्थिर हो गयीं। ये दोनों संस्कृतियाँ मूलत: एक ही थीं। परन्तु उत्तर से आये हुए इन मानवसमूहों का उत्तर भारत में आने तक ईरान में लगभग २०० वर्षों तक वास्तव्य हुआ और इस समाज का वहाँ के समाज के साथ सभी प्रकार से घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ। इस कारण अग्निपूजा, शरीर का रंग और रचना तथा भाषा इनमें कुछ बदलाव हो गये। एशिया मायनर स्थित ‘लिकी` नामक मूल समाज आज भी स्वयं को तम्मिली अथवा द्रमिझ कहलवाता है, यह उल्लेखनीय है। साथ ही इराक और ईरान इन देशों मे रहनेवाले कई गाँवों के नाम भी तमील भाषा में रहनेवाले नाम के समान ही हैं।

आम तौर पर एक ही समय ये मूल एक ही संस्कृति होनेवाले दो समूह एक ही स्थान से निकलकर, परन्तु अलग अलग रास्तों से आकर उत्तर भारत और दक्षिण भारत में स्थिर हो गये और इन एक ही माँ के दो बच्चों को एक-दूसरे से अलग किया था, विंध्य पर्वत ने। हिन्द महासागर में हुए परिवर्तन के एक शास्त्रीय परिणाम के रूप में विंध्य पर्वत की ऊँचाई आज की अपेक्षा बहुत अधिक हो गयी थी। इस कारण मूल एक ही संस्कृति होनेवाले इन दो समाजों को एक-दूसरे के सह-अस्तित्व का एहसास ही नहीं था। उत्तर भारत में स्थिर हुआ यह समाज ‘आर्य` नाम से जाना जाने लगा; वहीं दक्षिण भारत में स्थिर हुए उसी संस्कृति के दूसरे समूह को ‘द्रविड` यह नामाभिधान प्राप्त हुआ।

शब्दकल्पद्रुम ग्रंथ में ‘आर्य` शब्द का अर्थ कर्तव्यपालनतत्पर और निन्दित आचरण न करनेवाला इस प्रकार ही दिया है। पंडित महादेवशास्त्री जोशी की राय में भी ‘आर्य` यह शब्द गुणवाचक है, वंशवाचक अथवा वर्णवाचक नहीं है और वास्तव में ‘आर्य` यह शब्द वेदों में वंश अथवा वर्ण इस अर्थ से एक बार भी नहीं आया है; बल्कि श्रेष्ठता और उदारता इसी अर्थ से आया है; वहीं ‘द्रविड` शब्द का अर्थ विद्यावान और नीतिमान इस प्रकार ही है।

इतिहासकारों की राय में उत्तर भारत के इस समूह की भाषाएँ ‘युरो-भारतीय` (इंडो-युरोपियन) मार्ग से प्रगत होतीं गयीं, वहीं दक्षिण भारत के इसी समूह की भाषाएँ अपने मूल रास्ते से ही विकसित होती गयीं (सिथियन)।

इस संपूर्ण परिस्थिति के कारण उत्तर और दक्षिण भारत भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पहले एक-दूसरे से अलग हो गये और आगे चलकर यह दूरी अधिक से अधिक बढ़ती गयी। उसी में, भारत में उस समय के नागा, पुलींद और अंद्र इन मूल निवासी नागरिकों से दक्षिण भारत में और निषाद, कैवर्त, पणि और किरात इन मूल निवासी नागरिकों से उत्तर भारत में इनका सभी प्रकार मिश्रण होकर अधिक से अधिक परिवर्तन हो गये।

उत्तर भारत में जन्मे और पले-बढे अगस्त्य ऋषि ने भारत के उत्तर में किये हुए प्रवास के दौरान, लोककथाओं के आधार पर प्राचीन इतिहास जान लिया और हमारे अपने ही बांधव अतिप्रचंड एवं उत्तुंग विंध्याचल के कारण हम से अलग हो गये हैं, यह जान लिया और इस मूल उच्च संस्कृति के इस विघटन को देखकर दुखी हुए अगस्त्य मुनी ने, यह प्राचीन उत्कृष्ट संस्कृति को अच्छी तरह रखनेवाले पूरे भारत को एकसंघ करने का ध्येय रखा। इसलिए उन्होंने उत्तर भारत और दक्षिण भारत इनकी ठीक मध्यसीमा पर रहनेवाले दंडकारण्य में (वाकाटक-आज का महाराष्ट्र) स्वयं का प्रथम आश्रम स्थापित किया। इनके साथ इनके एक हज़ार शिष्य और उनके परिवार थे। दंडकारण्य की उत्तर दिशा में स्थित विदर्भ राज्य के राजा श्वेतकेतु (सम्राट सर्वभाव) अगस्त्य मुनि के प्रचंड ज्ञानवैभव से प्रभावित हो गये और उन्होंने अगस्त्य ऋषि के आश्रम को श्रेष्ठ गुरुकुल का स्थान दिया; इतना ही नहीं, बल्कि स्वयं की कन्या लोपामुद्रा का विवाह भी उन्होंने अगस्त्य ऋषि से करवाया। विदर्भ राज्य की कुछ वन्य जनजातियों को दंडकारण्य और विंध्याचल की संपूर्ण जानकारी थी। उनमें से ‘नक्कीरर` और ‘इडइच्चंगम` इन दो अधिकारियों की सहायता से विदर्भ के जमाई अगस्त्य ऋषि ने विंध्याचल की ओर प्रस्थान किया।

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

 

इस अग्रलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.