समर्थ इतिहास-१२

‘अगस्ति’ यह इनका मूल नाम नहीं है। इनका मूल नाम ‘मान्य मांदार्य’ यह है। ‘अगं स्त्यायति इति’, पर्वत (विंध्य) के विस्तार को प्रतिबंध करनेवाला, यह ‘अगस्ति’ नाम की उपपत्ति (स्पष्टीकरण) है (अगस्ति – अगस्त्य)। ‘अगस्त्य’ यह गौरवशाली नाम उन्हें, उनके द्वारा उनके जीवन में किये गये एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य के कारण प्राप्त हुआ।

तमिल परंपरा के अनुसार अगस्त्य साक्षात् परमशिव के शिष्य माने जाते हैं। नारद ये एकमात्र देवर्षि हैं, वहीं, अगस्त्य प्रथम ब्रह्मर्षि माने जाते हैं। अत एव इनका उल्लेख कई बार सबसे वृद्ध एवं ज्येष्ठ ऋषि के रूप में किया जाता है। अचानक चमक कर गायब हुई बिजली को देखकर उम्र के आठवे वर्ष में अगस्त्य के मन को संपूर्ण विश्‍व की क्षणभंगुरता का एहसास हुआ और वे शाश्‍वतता की खोज में निकले। पहले इन्हें लगा कि सूर्य शाश्‍वत है, इसलिए उन्होंने सूर्य से प्रार्थना की। तब सूर्य ने, यह छोटा बालक जिसे सह सकें, ऐसे रूप में प्रकट होकर स्वयं की जीवनस्थिति उसे कथन की और इस कथन से ‘सूर्य यह पृथ्वी का पालनकर्ता तो है, परन्तु वह भी शाश्‍वत नहीं है’ यह इस बालक ने जान लिया। इस कथा का अर्थ यह है कि इसने (बाल अगस्त्य ने) सूर्य का और सूर्य की गति एवं प्रकाश का निरीक्षण कर अध्ययनपूर्वक चिंतन किया, तब परमेश्‍वरी प्रज्ञा ने उसे भौतिक सूर्य की सीमाओं का एहसास कराया और सूर्य ने उसे भगवान शिव के पास जाने का मार्ग दिखाया, इसका अर्थ यह है कि भौतिक विज्ञान की सहायता से पारलौकिक शाश्‍वत अस्तित्व की खोज की दिशा इसे मिली। इस समय इस बालक की उम्र महज़ सोलह वर्ष थी। इतनी छोटी उम्र में इसने उपलब्ध साधन और निरीक्षणपूर्वक अध्ययन की सहायता से, प्रकट एवं अप्रकट अस्तित्वों के अन्योन्य संबंधों का सिद्धान्त दृढ किया और इसी सिद्धांत के अनुसार इनका संपूर्ण जीवनक्रम व्यतीत हुआ।

इनकी अध्ययनपूर्ण चिंतन की तपस्या, सृष्टि के रहस्यों की खोज करने की प्रवृत्ति और सृष्टिक्रम एवं रचना की सुसूत्र तथा सुव्यवस्थित नियमबंधता इसके पीछे रहनेवाले अनादि अनंत एवं सर्वसमर्थ सूत्रसंचलन का एहसास, इन त्रिविध मार्गों से इनके आध्यात्मिक जीवन ने परिपूर्णता की ओर प्रवास करना शुरू किया। इस प्रवास में उन्हें परमशिव के मंगल एवं पवित्र ऐसे ‘गुरु’ स्वरूप का एहसास होने लगा और साक्षात् परमात्मा ने अपने प्रथम शिष्य के रूप में इन्हें चुना। परमशिव ने अगस्त्य ऋषि को सभी प्रकार का विज्ञान, ऋतव्यवस्था और शाश्‍वत सत्य का दान दिया। परमशिव से ज्ञान संपादित करके सूर्य के समान तेजस्वी बन चुके ये अगस्त्य, अब भौतिक सूर्य को वैश्‍विक जीवनीय शक्ति के प्रतीक के रूप में सम्मानपूर्वक उपास्य मानने लगे और इस प्रवास में लौटते समय सूर्य को अपना मार्गदर्शक मानकर इन्होंने ‘आदित्यहृदय’ नामक अत्यधिक प्रभावी एवं अत्यन्त सुंदर स्तोत्र की रचना की। यह स्तोत्र यह अगस्त्य मुनि द्वारा की गयी प्रथम रचना मानी जाती है। इस स्तोत्र का प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त के समय २४ बार पाठ करने का व्रत इन्होंने लिया और इस कारण यह स्तोत्र साक्षात् देवताओं के लिए भी तारक हो सकता है, इतना प्रभावशाली बन गया।

श्रीराम-रावण युद्ध के समय युद्ध के अंतिम दिन से पहले की रात में प्रभु रामचंद्र, लक्ष्मण और पूरी सेना अत्यधिक थक गयी थी और अगले दिन सुबह तो रावण अधिक तैयारी के साथ युद्ध करनेवाला था। ऐसी विचित्र परिस्थिति में, परिस्थिति की गंभीरता को पहचानकर अगस्त्य मुनि स्वयं प्रभु रामचंद्रजी से मिलने जाते हैं और स्वयं प्रभु रामचंद्र के साथ बैठकर आदित्यहृदय स्तोत्र के १०८ पारायण करते हैं। इससे प्रभु रामचंद्र, लक्ष्मण और पूरी सेना की थकान पूरी तरह दूर होकर उन्हें पुन: पूर्ण बल प्राप्त होता है और इसी के साथ अगस्त्य ऋषि इंद्र का धनुष्य और अक्षय तरकश श्रीराम को सौंप देते हैं। वाल्मीकि रामायण में अत्यंत सुस्पष्ट रूप से इस मुलाकात का सविस्तार वर्णन प्राप्त होता है। श्रीराम-रावण युद्ध में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घड़ी में अगस्त्य मुनि द्वारा स्वयं की गयी यह सहायता श्रीराम के लिए सदैव अविस्मरणीय (न भूलने) एवं आदरणीय ही रही है। राज्याभिषेक के बाद प्रभु रामचंद्र ने अपने पंचायतन के साथ पहले अगस्त्य ऋषि का सम्मानपूर्वक पाद्यपूजन किया और उस समय मंत्रोच्चारण अगस्त्य मुनि के ही छोटे भाई वसिष्ठ मुनि ने किया।

‘ऋषि’ पद के सामाजिक दायित्व की और नीतिमूल्यों की रक्षा के उत्तरदायित्व की, अगस्त्य मुनि को रहनेवाली स्वयंभू प्रतीति (एहसास) इस कथा से मन को ज्ञात होती है।

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

 

इस अग्रलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.