जम्मू भाग-७

जम्मू के इस सफ़र में अब हम आ पहुँचे हैं, ‘कटरा’ नाम की जगह और इसके बाद हमें लगभग १३-१४ किलोमीटर की दूरी तय करके पहुँचना है ‘माता वैष्णोदेवी’ के दर्शन करने।

माता वैष्णोदेवी का मन्दिर यह दर असल एक नैसर्गिक गुफा है और इस गुफा में ही माता का निवास है। यहाँ जाने के लिए जम्मू से पहले ‘कटरा’ आना पड़ता है और कटरा जम्मू से लगभग ४०-४५ किलोमीटर पर बसा है।

अब ‘कटरा’ तक तो हम पहुँच ही चुके हैं, लेकिन वैष्णोदेवी के दर्शन करने पर्वत की उस गुफा तक जाना पड़ेगा। वहाँ तक जाने का रास्ता पहाड़ी है और हम या तो पैदल वहाँ तक जा सकते हैं या फिर घोड़े पर से। इनके अलावा एक अन्य पर्याय भी उपलब्ध है और वह है हेलिकॉप्टर से जाने का। इसके लिए पहाड़ में मंदिर से कुछ ही दूरी पर एक हेलिपॅड भी बनाया गया है।

जिस पर्वत पर माता वैष्णोदेवी का स्थान है, वह पर्वत हिमालय की ही शिवालिक पहाड़ी शृंखला में से ‘त्रिकुटा’ नाम का एक पर्वत है। इस त्रिकुटा पर्वत पर ही ५००० फीट से अधिक ऊँचाई पर माता वैष्णोदेवी का वास है।

अब इतनी दूरी को तय करने की बात जब आती है तो इसे पैदल तय किया जाये या घोड़े पर से? रास्ता कैसा है? रास्ते में प्राथमिक सुविधाएँ, विश्राम करने योग्य स्थल उपलब्ध हैं क्या? इस तरह के कई सवाल मानवीय मन में उठ सकते हैं। जिस रास्ते पर से यह दूरी तय करनी है वह रास्ता काफ़ी अच्छा है और रास्ते में सभी प्राथमिक सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं।

लेकिन इस सफ़र की शुरुआत करने से पहले हमें कटरा में हमारा नाम पंजीकृत (रजिस्टर) करना पड़ता है। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि इस तरह नाम पंजीकृत करनेसे प्रत्येक दर्शनार्थी को अ‍ॅक्सिडेंटल इन्श्युरंस का लाभ मिलता है।

चलिए, तो इस प्राथमिक जानकारी को प्राप्त करने के बाद हम प्रस्थान करते हैं, माता वैष्णोदेवी के मन्दिर की ओर।

इस स्थल की संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए हम इस त्रिकुटा पर्वत पर चढना शुरू करते हैं।

कहा जाता है कि पांडवों के समय से यह स्थान अस्तित्व में था। अर्जुन ने जम्बूवासिनी देवी की प्रार्थना की थी ऐसा उल्लेख एक जगह मिलता है। ये जम्बूवासिनी देवी ही माता वैष्णोदेवी हैं ऐसी राय है।

माता वैष्णोदेवी ने त्रिकुटा नाम के पर्वत पर क्यों निवास किया इस संदर्भ में कई कहानियाँ, लोककथाएँ प्रचलित हैं।

दक्षिणी प्रदेश में रत्नाकर सागर नाम का एक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था। इस दंपती को कई सालों तक कोई संतान नहीं थी। प्रभू की कृपा से कुछ समय बाद उन्हें एक बेटी हुई। लेकिन उसका जन्म होने की पिछली रात में उस कन्या के मानवी पिता को एक दृष्टान्त हुआ और उसके अनुसार उस कन्या को अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने देना चाहिए, यह उसे ज्ञात हुआ।

वह नन्हीं बच्ची और कोई नहीं, बल्कि देवीमाता का ही अवतार थी। बचपन में वह ‘त्रिकुटा’ इस नाम से जानी जाती थी और आगे चलकर लोग उसे ‘वैष्णवी’ कहने लगे। बचपन में ही उसने अपने माता-पिता की अनुमति से तपस्या करना शुरु कर दिया।

कई सालों तक तपस्या करने के बाद वह देवी त्रिकुटा पर्वत पर जाकर बस गयी। यहाँ आते समय अपने साथ वह धनुष्य-बाण, सिंह, वानरों की सेना यह सब ले आयी और यहीं पर बस गयी। देवी के बसने से पावन हुआ यह स्थल माता वैष्णोदेवी के स्थान के रूप में मशहूर हो गया।

अन्य एक कथा के अनुसार देवी ने एक कन्या के रूप में मानवी अवतार धारण किया और वे तपस्या करने लगीं। तब किसी कुमार्गी व्यक्ति की बुरी नज़र उस कन्या पर पड़ गयी। वह कुमार्गी उस कन्या का पीछा करने लगा। उस व्यक्ति के बुरे इरादों को जाननेवाली वह कन्या त्रिकुटा पर्वत पर चढने लगी। वह कुमार्गी भी उसकेपीछे पीछे पर्वत पर चढने लगा। यह देखते ही कन्यारूपी देवी ने तेज़ी से चढना शुरू कर दिया। राह में उस कन्या को प्यास लग गयी, इसलिए उसने अपने धनुष्य-बाण की सहायता से ज़मीन में से जल उत्पन्न किया। फिर वह आगे बढी मगर अब भी वह कुमार्गी उसका पीछा करते हुए पर्वत चढ रहा था। लेकिन एक जगह आते ही यकायक वह किसी गुङ्गा में गुप्त हो गयी और तक़रीबन नौ महीनों तक वहीं पर तपस्या करती रही। मग़र, अब भी वह कुमार्गी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है यह ध्यान में आ जाते ही उसने गुफा के दूसरे मुख में प्रवेशद्वार बना लिया और वहाँ से निकल कर आगे बढने लगी।

कुछ ही दूरी पर स्थित एक बड़ी गुफा में प्रवेश करते ही उस कन्या ने अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया और पीछा करनेवाले उस कुमार्गी का ख़ात्मा कर दिया। देवी ने उसकी गर्दन उड़ा दी और उसका सिर गुफा से कुछ दूरी पर जा गिरा। कथा में यह भी कहा गया है कि उस कुमार्गी ने आख़िर मरते व़क़्त देवी से क्षमा माँगकर, यहाँ आनेवालों को मेरा स्मरण रहें, यह बिनती की।

बड़ी गुफा में प्रकट हुई देवी ने फिर उसी गुफा में तीन पिण्डियों के रूप में निवास किया। आज यही स्थान प्रमुख मन्दिर के रूप में जाना जाता है। इस प्रमुख मन्दिर का संपूर्ण इलाक़ा ‘भवन’ के नाम से जाना जाता है।

माता वैष्णोदेवी के संदर्भ में एक और कथा बतायी जाती है। कथा के अनुसार लगभग ७०० साल पूर्व कटरा के पास के ‘हंसली’ नाम के एक गाँव में ‘श्रीधर’ नाम का एक पंडित रहता था। वह बहुत ही ग़रीब था और उसकी कोई संतान नहीं थी। लेकिन वह भगवान का परमभक्त था। एक दिन एक छोटी बच्ची श्रीधर के पास आयी। उससे उसकी कोई जान पहचान नहीं थी, क्योंकि ना तो वह उसके गाँव में रहनेवाली थी और ना ही पास पड़ोस के गाँव में रहनेवाली। उस बच्ची ने श्रीधर से दूसरे दिन भंडारा आयोजित करने के लिए कहा और ‘तुम्हारी मन्शा अवश्य पूर्ण होगी’ यह कहकर वह कन्या गुप्त हो गयी। श्रीधर ने उसकी बात मान ली। उसके छोटे से घर में दुसरे दिन भंडारा शुरू हो गया और ताज्जुब की बात यह हुई कि उसके बिलकुल छोटे से घर में कई लोगों के भोजन करने बैठने के बावजूद भी अन्य लोगों के लिए जगह खाली रहने लगी। इसी दौरान वही कन्या पुन: उस घर में आ गयी और सभी को खाना परोसने लगी। भंडारे में उपस्थित व्यक्तियों में से एक दुष्ट ने उससे अभक्ष्य भोजन की माँग की और उसकी पूर्ति न करने पर वह उस कन्या को सताने लगा। इस घटना के कारण श्रीधर के घर से निकलकर वह कन्या पर्वत पर चढने लगी। वह दुष्ट भी उसका पीछा करने लगा। आख़िर पर्वत की ही एक बड़ी गुफा के प्रवेशद्वार में उस कन्या ने उस दुष्कर्मी का ख़ात्मा कर दिया।

इस घटना को देखकर श्रीधर डर गया। लेकिन वह कन्या कोई और नहीं बल्कि देवीमाता ही है, यह जानने के बाद उससे मिलने के लिए उसने खाना-पीना छोड़ दिया। फिर एक रात उसके सपने में वह कन्या आ गयी और ‘मेरा निवास त्रिकुटा पर्वत की गुफा में है’ यह कहकर उसे वहाँ तक जाने की राह भी बता दी। देवीमाता के दर्शन से खुश हुए श्रीधर ने फिर उसी पहाड़ की तलहटी में रहकर देवी की भक्ति की।

इस तरह की विभिन्न लोककथाएँ माता वैष्णोदेवी की महिमा बताती हैं। देखिए, गुणसंकीर्तन करते करते लगभग आधी दूरी हमने तय भी कर ली। यहाँ से दिखायी देनेवाला नज़ारा भी ख़ूबसूरत है और हवा भी ठंड़ी है। ऊपर खुला आसमान, आह्लाददायक एवं प्रसन्न हवा और देवीमाँ के नाम का जयघोष, इन सब बातों से सारा माहौल जैसे भारित हुआ है।

रास्ते में चढना शुरू करने के बाद लगभग १-१ १/२ कि.मी दूरी पर बाणगंगा नाम का एक स्थान है। यह वही स्थान है, जहाँ देवी ने जब उन्हें प्यास लगी थी, तब धनुष्य-बाण की सहायता से भूमि में से जल उत्पन्न किया था। अब हम जहाँ विश्राम करने कुछ देर के लिए रुके हैं, वह स्थान ‘अधकावरी’ या ‘गर्भ जून’ इस नाम से जाना जाता है। यहाँ भी एक नैसर्गिक गुफा है और यदि वहाँ न जाते हुए हम आगे बढेंगे तो हम एक महत्त्वपूर्ण स्थल के दर्शन करने से वंचित रह जायेंगे।

आइए, तो पहले यहाँ दर्शन करके फिर अगला सफ़र शुरू करते हैं। लेकिन दर्शन करने के लिए यहाँ कुछ देर प्रतिक्षा करनी पड़ेगी, तो फिलहाल यहीं पर रुकना मुनासिब है।

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