परमहंस- ५

बुधवार १७ फ़रवरी १८३६ के ब्राह्ममुहुर्त पर, फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को खुदिरामजी तथा चंद्रमणीदेवी चट्टोपाध्याय के घर ‘उस’ तेजस्वी बालक का जन्म हुआ था।

उन दोनों जितना ही दाई धनी लुहारन को भी आनंद हुआ था। लेकिन ज़्यादा न सोचते हुए उसने उस बालक को ठीक से साफ़सुथरा कर उसकी माँ की बगल में रखा और वह दूसरे काम के लिए चली गयी। लेकिन थोड़ी ही देर में जब वह पुनः बच्चे के पास आयी, तो उसके तो पैरोंतले की ज़मीन ही खिसक गयी….

….माँ की बगल में बच्चा नहीं था!
‘मैं यहीं पर….माँ की बगल में ही तो रखकर गयी थी बच्चे को….फिर अभी अभी जन्मा वह बालक आख़िर गया कहाँ?…. या कोई आकर उसे….?’

धनी के मन में तरह तरह के शक़ पैदा होने लगे।

उस तनावभरी हालत में वह यहाँ वहाँ ढूँढ़ने लगी और उसे पुनः आश्‍चर्य का एक झटका लगा….

‘वह’ एक दिन का बच्चा लोटते लोटते – वहीं की एक दीवार के पास चावल उबालने के लिए जो भट्टी थी, उस भट्टी तक पहुँचकर भट्टी में शांतिपूर्वक लेटा था और विशेष बात यह थी कि वह बिलकुल रो नहीं रहा था!

लेकिन ‘सौभाग्यवश’ भट्टी में आग-चिंगारियाँ वगैरा थी नहीं, वैसे तो वह ठण्ड़ी ही थी। लेकिन भीतर राख बड़ी मात्रा में थी, जो अपने आप ही, मानो शिवशंकर की तरह उस बच्चे के सर्वांग पर पोती जा चुकी थी!

वैराग्य का एक प्रतीक मानी जानेवाली वह राख नवजात शिशु के सर्वांग पर पोती जाकर, मानो ‘पलने में बच्चे के पैर’ (बच्चा आगे चलकर क्या करनेवाला है उसके लक्षण पलने में ही दिखायी देना) दिखने लगे थे।

‘यह क्या चमत्कार है? इसका जन्म होकर अभी एक दिन भी पूरा नहीं हुआ है और यह इतने कम समय में इतनी दूर तक लोटते हुए गया ही कैसे? और तो और, इतनी राख बदन पर पोती हुई है, मग़र फिर भी वह रो नहीं रहा है’ ऐसा प्रश्‍न धनी के मन में उठा था। लेकिन अधिक विचार करने में व़क्त ज़ाया न करते हुए उसने फ़टाफ़ट बच्चे को साफ़ कर, नहलाकर कपड़े पहनाये और अब वह उस बच्चे को ग़ौर से निहारने लगी….और विस्मयपूर्वक देखती ही रह गयी।

उस बच्चे के पास एक क़िस्म की ईश्वरीय सुंदरता तो थी ही, मग़र वह अन्य आम नवजात शिशुओं की तरह नहीं दिख रहा था। इस कारण धनी उस बालक की ओर विस्मयपूर्वक आँखें फ़ाड़-फ़ाड़कर देखती ही रह गयी थी। उसने आज तक कई प्रसूतियाँ की थीं, लेकिन ‘यह’ कुछ अलग ही प्रतीत हो रहा था….

….यह अभी अभी जन्मा बालक आकार से छः महीने के बच्चे जितना बड़ा और हट्टाकट्टा दिखायी दे रहा था! यह माजरा क्या है, यह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था। लेकिन उसपर से नज़र नहीं हट रही थी, यह तो सच था।

यहाँ पर – ‘ईश्वर अपने घर आये हैं’ इसका एहसास हो चुके खुदिराम तथा चंद्रमणीदेवी तो खुशी से फुले नहीं समा रहे थे।

धीरे धीरे उस बालक को देखकर गये हुए लोगों से पता चलने के कारण, उस बालक के बारे में, उसकी मासूम सुंदरता के बारे में गाँव में चर्चा होने लगा और अब केवल गाँव में से ही नहीं, बल्कि आजूबाजू के गाँवों से भी उस बालक को देखने के लिए ताँता लगने लगा।

उसकी ईश्वरीय सुंदरता से देखनेवाले की नज़र हटती नहीं थी। आनंद का मानो समुच्चय ही रहनेवाले उस बालक को देखने के बाद, देखनेवाला आनंद समेतकर ही घर जाता था। उसके मातापिता तो सार्थक ही हो चुके थे।

खुदिरामजी को गया में हुए दृष्टांत में उन ‘गदाधर’ ने दिया हुआ अभिवचन सच किया होने की अनुभूति उन दोनों को हुई थी।

‘गदाधर’ ने दिया हुआ दृष्टांत, इसलिए उन मातापिता ने बालक का नाम श्रद्धापूर्वक ‘गदाधर’ रखा।

Leave a Reply

Your email address will not be published.