परमहंस-७

देखते देखते गदाधर पाँच साल का हो गया। उसकी बाललीलाओं में ये पाँच साल कैसे बीत गये, पता भी नहीं चला था। स्वाभाविक रूप से ही शरारती स्वभाव का रहने के कारण, दूसरों के साथ शरारत करना उसे पसन्द आता था; लेकिन ये शरारतें इतनी मासूम रहती थीं कि उसके कारण सामनेवाला कभी भी ग़ुस्सा न होते हुए, उलटे गदाधर की शरारतें उन्हें भी भाती थीं।

गदाधर की बुद्धिमत्ता

गाँव की महिलाएँ भी अपने बच्चे की तरह ही उसे दुलारती थीं। कोई उसके बाल बनाती थी, कोई उससे घर के मंदिर के देवताओं का पूजन करवा लेती थीं, कोई उससे भगवान के गाने गाने के लिए कहती थीं, तो कोई अन्य कुछ। उनके लिए तो वह मानो दुलारा बालकृष्ण ही था!

लेकिन अब वह पाठशाला जाने की उम्र का हो चुका होने के कारण, उसे परिपाटि के अनुसार पाठशाला भेजने की तैयारी खुदिरामजी ने शुरू की।

गदाधर की बुद्धिमत्ता जन्म से ही बहुत तेज़ थी। उसकी स्मरणशक्ति तो दंग कर देनेवाली थी। एक ही बार सुना कोई गाना, एक ही बार देखा कोई वाक़या उसे ज्यों कि त्यों याद रहता था। और तो और, जब कभी वह नाटक देखने घरवालों के साथ जाता था, तो नाटक देखकर लौटते समय सभी के सभी पात्रों के सारे संवाद यानी पूरा नाटक ही, एक ही बार सुना होने के बावजूद भी वह धडाधड, एक भी ग़लती न करते हुए और उस उस पात्र के ढंग में साभिनय बोलकर दिखाता था। देवताओं के स्तोत्र, देवताओं के वर्णन करनेवाले गीत, रामायण-महाभारत की, वैसे ही अन्य पौराणिक कथाएँ भी उसे, एक ही बार सुनकर मुखोद्गत हो जाती थीं।

इसी कारण बड़े उत्साह के साथ खुदिरामजी ने उसे गाँव की पाठशाला के मास्टरजी के हाथ सौंप दिया। यह पाठशाला गदाधर के घर के नज़दीक ही होकर, गाँव के धनी ज़मीनदार लाहाबाबू की मालिक़ियत के एक नटमंडप के (गाँव के नाट्यगृह के) बरामदे में सुबह और शाम लगायी जाती थी। वाचन-लेखन-पठण के साथ बच्चें यहाँ पर मनसोक्त खेल भी सकते थे। जन्म से ही तेज़ दिमाग का रहनेवाला गदाधर पाठशाला में भी अपनी छाप छोड़ेगा, इसका खुदिरामजी को यक़ीन था।

लेकिन हुआ कुछ विपरित ही….

गदाधर की इस एकपाठिता (एक ही बार सुनकर कंठस्थ कर सकना) में भी एक विपरितता थी। गदाधर की यह एकपाठिता – यह केवल, उसे जो चीज़ पसन्द आती है, उन्हीं चीज़ों के बारे में है, यह सभी के ध्यान में आया। गदाधर को देवताओं की तथा पौराणिक आदि कथाएँ भाती थीं और केवल वे कथा ही उसे, केवल एक बार सुनने के बाद भी मुखोद्गत हो जाती थीं। लेकिन जो उसे पसन्द नहीं रहती थी, ऐसी कोई भी बात यदि किसी ने उससे कंठस्थ करवाने की कितनी भी बार कोशिश की, फिर भी वह सफल नहीं हो पाती थी

….और उन्हीं बातों में से एक थी – ‘स्कूली शिक्षा’!

उस समय की वह दक़ियानुसी स्कूली शिक्षा, हर संभव कोशिश करने पर भी गदाधर की समझ में आती ही नहीं थी। ख़ासकर अंकगणित की गणना, आँकड़ों का मिलाना-घटाना, तालिकाओं का रटना इन बातों से वह हड़बड़ा ही जाता था।

स्वाभाविक रूप से, कभीकभार जब वह अत्यधिक तंग हो जाता था, तब वह पाठशाला न जाते हुए अपने दोस्तों के साथ नदी के किनारे या फिर आम के बग़ीचे में खेलने जाता था….चोरीछिपे नहीं, बल्कि खुदिरामजी को बताकर ही! लेकिन खुदिरामजी को हुए दृष्टांत का उन्हें स्मरण रहने के कारण, वे उसपर पाठशाला जाने की ज़्यादती कभी नहीं करते थे।

उसका एक और गुणविशेष था। उसे ‘फ़लाना बात मत करो’ या फिर ‘करो’ ऐसा ज़ोर-ज़बरदस्ती से कहा, तो वह नहीं सुनता था। ‘यह बात मुझे क्यों करनी है या नहीं करनी है’ इसका स्पष्टीकरण उसे देना पड़ता था। लेकिन एक बार जब उसके मन को पसन्द आनेवाला स्पष्टीकरण दिया गया, तो फिर वह उस आज्ञा का तहेदिल से पालन करता था।

उनके घर के नज़दीक एक बहुत बड़ा तालाब था, जिसका उपयोग गाँव के स्त्री-पुरुष नहाने के लिए करते थे। तालाब के एक हिस्से में पुरुष और दूसरे हिस्से में महिलाएँ, ऐसा अलग अलग समयों पर नहाने का विभाजन हुआ था। लेकिन छोटे बच्चों को महिलाओं के भाग में आने पर कोई प्रतिबंध नहीं था। गदाधर और उसके साथी भी वहाँ जब खेलने आते थे, तब पानी में मनसोक्त तैरते थे। लेकिन एक बार जब उनका शोरगुल बहुत ही बढ़ गया, तब वहाँ की महिलाओं ने उन्हें – ‘क्यों हमारे महिलाओं के हिस्से में खेलकूद करने आते हो’ ऐसा कहते हुए वहाँ से भगा लिया। इतना ही नहीं, बल्कि गदाधर की माँ के पास जाकर उसकी शिक़ायत भी की। माँ ने उसे बुलाकर समझाना शुरू किया। लेकिन ‘मैं महिलाओं के हिस्से में क्यों नहीं जा सकता’ यह बहुत समझाने पर भी मासूम गदाधर समझ नहीं पा रहा था और वे महिलाएँ भी उस मासूम बच्चे को यह बात सुचारु रूप से समझा न सकीं।

माँ ने जब उसे यह ठीक तरह से समझाकर बताया कि ‘महिलाएँ नहाते समय यदि कोई पुरुष वहाँ पर गया, तो उन्हें लज्जा महसूस होती है और उन्हें एक किस्म का अपमान भी लगता है। वे सभी महिलाएँ तुम्हारी माँ जैसी ही हैं, है कि नहीं? फिर तुम्हारी माँ यदि इस प्रकार से लज्जित और अपमानित हो जायेगी, तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा?’; तब जाकर वह उसके पल्ले पड़ गया और वह फिर कभी भी उस तालाब के, महिलाओं के लिए आरक्षित रहनेवाले हिस्से में नहीं गया।

इस प्रकार मन का गठन होते होते गदाधर बड़ा हो रहा था!

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