परमहंस-१२

गदाधर के बचपन का, उसकी इसी प्रकार उत्कट टकटकी लगी होने का एक और वाक़या बयान किया जाता है।
वह शिवरात्री का दिन था, इसलिए गाँव के शिवमंदिर में दिनभर उत्सव मनाया जा रहा था। रात को मंदिर में पौराणिक नाटक, भक्तिसंगीत आदि भक्तिमय कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था।

गदाधर ने भी उस दिन अनशन रखा था और रात को अनशन त्यागने के बाद वह घर में ही शिवपूजन के लिए बैठ गया। उसने तीन बार यह पूजन करने का संकल्प रखा था। लेकिन जैसे ही पहला आवर्तन संपन्न हो रहा था कि तभी उसके कुछ दोस्त लोग उसका नाम पुकारते हुए दौड़े दौड़े उसके घर पधारे।

क्या हुआ था? शिवरात्री

तो शिवरात्री उत्सव के उपलक्ष्य में मंदिर में सादर होने जा रहा पौराणिक नाटक थोड़े ही समय में शुरू होनेवाला था और ‘अचानक’ भगवान शिवजी का काम करनेवाला अभिनेता बीमार पड़ गया। इस कारण, अब ऐन व़क्त पर काम करने कौन तैयार होगा, इस चिन्ता में लोग पड़े थे कि तभी किसी ने गदाधर के नाम का सुझाव दिया। गदाधर की विलक्षण कंठस्थशक्ति के बारे में सभी को पता होने के कारण यह विकल्प सभी को पसन्द आ गया। इसलिए उसे वहाँ ले जाने के ये दोस्त लोग घर आये थे।

‘लेकिन मैंने तीन बार पूजन करने का संकल्प किया है और मैंने अब तक एक ही बार पूजन किया है, फिर मैं कैसे आ सकता हूँ?’ ऐसा निरागस प्रश्‍न उसने पूछा। लेकिन उसपर – ‘अरे, तुम भगवान शिवजी का काम करोगे यानी संवाद आदि बोलते समय तुम्हारे मन में शिवजी के ही विचार होंगे, है कि नहीं? अर्थात् इस चिंतन के माध्यम से तुम्हारे द्वारा अपने आप ही पूजन होनेवाला ही है’ ऐसा किसी ने किया हुआ युक्तिवाद उसे मान्य हो गया और माँ को बताकर वह दोस्तों के साथ मंदिर में गया।

थोड़े ही समय में उसकी वेशभूषा पूरी हो गयी….

….एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे हाथ में कमंडलु, बदन पर व्याघ्रचर्म, सर्वांग को भस्म पोता हुआ, माथे पर त्रिपुंड्र, गले में रुद्राक्षमाला, सिर पर जटाएँ….इस वेशभूषा में तो, मूलतः ही तेजस्वी रहनेवाला गदाधर उपस्थितों को साक्षात भगवान शिवजी ही प्रतीत हो रहा था।

उसने रंगमंच पर प्रवेश किया….उसे देखकर, जमा हुए प्रेक्षकों की भावना, मानो साक्षात्  भगवान शिवजी को ही देखा हो, ऐसी हुई और वे धन्य हो गये!

अब वह उसके संवाद बोलना शुरू करने ही वाला था कि तभी….

….तभी उसकी ‘टकटकी’ लगते हुए वह मानो उन्मनी अवस्था में गया!
….हिल नहीं रहा था, चल नहीं रहा था, बात नहीं कर रहा था….
….सामनेवालों ने इशारे किये, पीछे से हल्की आवाज़ में उसके संवाद भी उसे अनुबोधित (प्रॉम्प्टिंग) किये गये….
….यहाँ तक कि आख़िर उसे ज़ोर ज़ोर से हिलाकर भी देखा और अन्त में उसीके कमंडलु में रहनेवाला पानी भी उसके चेहरे पर छिड़ककर देखा….लेकिन किसी भी बात का उपयोग नहीं हो रहा था। गदाधर पुतले जैसा स्तब्ध ही खड़ा था।

नाटक वहीं पर रुक गया। थोड़ी ही देर में वहाँ पर उपस्थित भक्तगण अपने अपने घर गये। गदाधर को भी उठाकर उसके घर पहुँचाया गया। उस रात वह जगा ही नहीं, ठेंठ भोर को ही उसकी नींद खुली।

उसकी यह हालत देखकर माँ फिर से भयग्रस्त हो गयी कि इसकी यह ‘होश गँवाने की’ ‘बीमारी’ ठीक होनेवाली भी है या नहीं?

लेकिन उसने माँ को वही स्पष्टीकरण दिया कि भगवान शिवजी के चिंतन में वह अत्यधिक रंग गया था, इतना कि वह अपना होश खो बैठा!

उसके पिताजी की मृत्यु के पश्‍चात् अकेली को ही उसकी परवरिश करनी पड़ रहनेवाली उसकी माँ को वह स्पष्टीकरण रास नहीं आया और उसने हमेशा की तरह ही गाँव के वैद्यजी के उपायों के साथ ही अन्य उपाय भी जारी रखे।

अब गदाधर ने नौंवें वर्ष में पदार्पण किया था। घर मे उसकी उपनयनविधि की चर्चा शुरू हुई थी।

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