परमहंस-१११

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

रामकृष्णजी की ख्याति सुनकर दक्षिणेश्‍वर आनेवाले जनसामान्य उन्हें देखकर तो मंत्रमुग्ध हो ही जाते थे; लेकिन उनमें से कुछ लोग, जिन्हें रामकृष्णजी के साथ थोड़ा अधिक समय बीताने का अवसर मिल जाता था, वे एक और बात से आश्‍चर्यचकित होते थे – ‘इतने महान योगी, ‘परमहंस’ के रूप में सर्वत्र विख्यात हुआ यह इन्सान उसके रोजमर्रा के जीवन में इतना सादा-सरल कैसे है?’

जिन लोगों को रामकृष्णजी के कमरे में होनेवाले सत्संग को उपस्थित रहने का अवसर मिल जाता या फिर अन्य किसी स्थान पर के किसी सत्संग के दौरान रामकृष्णजी का नज़दीक से निरीक्षण करने का अवसर मिल जाता, उन्हें रामकृष्णजी की अत्यधिक सादगी का, ज़रा भी न उलझी हुई आसान-सरल जीवनपद्धति को लेकर अचरज हो जाता था। ख़ासकर उनकी नित्य-उपस्थिति में रहनेवाले लोगों के साथ रामकृष्णजी किस तरह एक दोस्त जैसे पेश आते थे, कितने सीधे-सादे उदाहरणों से वे गहरे विषय को समझाते थे, वह देखकर तो पहली बार ही आये भक्तगण हैरान हो जाते थे कि इस ऊपरि तौर पर तुम्हारे-हमारे जैसा ही आचरण करनेवाले इन्सान को भला ‘परमहंस’ क्यों कहा जाता है!

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णख़ासकर इन नज़दीकी भक्तगणों के साथ रामकृष्णजी किस तरह आम लोगों की तरह हँसीमज़ाक करते हुए बातें कर रहे हैं, उस दिन अनुपस्थित होनेवाले किसी के बारे में कितनी आस्थापूर्वक पूछताछ कर रहे हैं, बीच में ही किसी की टाँग खींच रहे हैं, कभी कोई मिठाई अनुरोधपूर्वक मँगवाकर खा रहे हैं, यह सब उनके आँकलन से परे होता था। क्या हमें कभी उन लोगों जैसे सौभाग्य की प्राप्ति होगी, यह विचार उनके दिलों को छू जाता था।

उनमें से अधिकांश सर्वसामान्यजन हालाँकि, ‘यहाँ इस पवित्र स्थान में आ गये – इस नेक बड़े इन्सान के दर्शन हुए – उनके मुँह से दो-चार अच्छी बातें सुनीं – दो घण्टें अच्छे गुज़रे – अब अन्धेरा होने से पहले निकल लें’ ऐसा मर्यादित विचार करनेवाले होते थे; मग़र फिर भी इससे परे जाकर विचार करनेवाले, रामकृष्णजी के लिए थोड़ा अधिक समय दे सकनेवाले कुछ लोग, थोड़े ही दिनों में रामकृष्णजी के इस नज़दीकी दायरे का भाग बन जाते थे। उसके बाद ही वे रामकृष्णजी के गगनस्पर्शी व्यक्तित्त्व का अनुभव कर सकते थे।

क्योंकि तब ही उन्हें पता चलता था कि ‘रामकृष्णजी के पास ‘नज़दीकी’ और ‘दूर के’ ऐसा या अन्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं है। एक ‘ईश्‍वर’ के अलावा रामकृष्णजी का अन्य कोई भी ‘फोकस’ नहीं है;

और मुख्य बात, ये जो हमें रामकृष्णजी के ‘क़रिबी’ प्रतीत हो रहे हैं, वे ‘क़रिबी’ इसलिए हैं कि उनके जीवन का ‘फोकस’ केवल ‘रामकृष्णजी’ ही हैं;

जीवन की अन्य बातों की तुलना में उन्होंने रामकृष्णजी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है इसलिए;

वे लोग रामकृष्णजी के दिव्यत्व को पूर्णतः जानते हुए और मानते हुए, ‘उनकी मानवी स्तर पर हम कितनी अधिक से अधिक सेवा कर सकते हैं, उन्हें अधिक से अधिक आराम कैसे पहुँचा सकते हैं’ इसी के बारे में सोचते हैं इसलिए।’

साथ ही, कई बार ऐसा दिखायी देता था कि कोई – अपने बाद वहाँ पर आया मनुष्य हमें हालाँकि ‘नया’ प्रतीत हो रहा है, मग़र फिर भी रामकृष्णजी उसका, अपने किसी पुरानी पहचानवाले इन्सान की मुलाक़ात हुई है इस तरह स्वागत करते थे। यह रामकृष्णजी का इस तरह उसका स्वागत करना, यह उन नये से आये इन्सान की भौतिक पहचान पर निर्भर न होकर, उस इन्सान की पहले की भक्ति कितनी है और ईश्‍वर के बारे में उसे होनेवाली लगन कितनी सच्ची है, तीव्र है उसपर निर्भर करता था, यह कुछ समय बाद (प्रायः रामकृष्णजी के समझाने के बाद ही) उनकी समझ में आता था;

….और फिर धीरे धीरे यह ‘सादा’ प्रतीत होनेवाला इन्सान कब उनके दिलों में घुसकर उनके मन पर राज करने लगता था, यह उनकी भी समझ में नहीं आता था और इसे दृढ़तापूर्वक पकड़े रहें तो यक़ीनन ही ईश्‍वरप्राप्ति हो सकेगी, ऐसा दृढ़विश्‍वास अपने आप ही उनके मन में जागने लगता था!

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