रिचेल कार्सन (१९०७-१९६४)

आज दुनिया भर में पर्यावरणवादी विविध प्रश्‍नों पर आवाज उठा रहे हैं। गत तीन दशकों में नैसर्गिक साधनसंपत्ति के विकास के नाम पर विध्वंस करने की प्रक्रिया में प्रचंड पैमाने पर प्रगति हुई है। इससे पृथ्वीवासियों का जीवन खतरे से घिर गया है, परन्तु स्वार्थसिद्धि हेतु किसी भी हद तक गिरनेवाले लोगों को इस बात की कोई चिंता ही नहीं है। विकास के नाम पर प्रकृति पर किया जानेवाला अत्याचार बेमुरौवत चल ही रहा है। ऐसे में इन स्वार्थांधों पर लगाम कसने वाली, सर्वसामान्य लोगों को इस संबंध में जागृत करनेवाली, पर्यावरणवादी क्रांति यही एकमात्र आशा की किरण सर्वसामान्य मानवों के लिए उपलब्ध है। इन परिस्थितियों में इस पर्यावरण के विकल्प से मानवी जीवन की प्रकृति के साथ सुसंगत जीवन का मार्ग सूचित करने वाली यह पर्यावरणवादी विचारसरणी की गंगोत्री माने जानेवाली रिचेल कार्सन के कार्यों का, संघर्ष का और संशोधन का महत्त्व मोटे अक्षरों में रेखांकित किया जा सकता है।

Rachel-Carson - रिचेल कार्सन

मानवजाति के उपकारकर्ताओं में रिचेल कार्सन का नाम अग्रगण्य माना जाता है, इस में कोई शक नहीं है।

‘‘पृथ्वी को बचाने के लिए मेरी ओर से किये जाने वाले प्रयत्नों के पीछे अलौकिक प्रकृति का प्रभाव तो था ही। परन्तु इसके अलावा मनुष्य के द्वारा पृथ्वी पर किए जानेवाले अत्याचार के कारण उठनेवाला क्षोभ भी मन में था ही। ऐसा होने पर भी कुछ न कुछ कार्य करना यह मेरा नैतिक कर्तव्य था। और ऐसा प्रयत्न यदि मैं अपनी ओर से न कर पाती तो मैं प्रकृति के ऋण से कभी भी मुक्त न हो पाती।’’

एक सीधा-सादा सा पत्र, उस में लिखे गए कुछ शब्दों के द्वारा शुरू की गई विचारों की श्रृखंला। इन में से जन्म हुआ रिचेल कार्सन द्वारा रचित ‘सायलेंट स्प्रिंग’। अमेरिका के केमिकल उत्पादकों के लिए ‘ब्लॅकबुक’ होने वाली यह किताब आधुनिक युग में पर्यावरण की सुरक्षा हेतु आवाज़ उठाने वाली संघर्ष गाथा के रूप में जानी-पहचानी जाने लगी।

रिचेल कार्सन ने अमेरिका के पिटसबर्ग शहर के एक किसान के परिवार में १९०७   में जन्म लिया था। रिचेल की माँ साहित्य एवं प्रकृति की प्रेमी थी और यही रुचि अपनी लाडली बेटी में भी उत्पन्न हो इसी उद्देश्य से रिचेल को उन्होंने बंधनमुक्त रखा था। पशु, पक्षी, कीड़े एवं इन सब के प्रति रिचेल के मन में काफी लगाव था। रिचेल ने अपनी इस रुचि को बनाये रखने के लिए कोशिश भी की, परन्तु भावी जीवन में उनकी इच्छा लेखिका बनने की थी।

स्कूली शिक्षा पूरी होने के पश्‍चात् रिचेल ने विशेष तौर पर पेनसिल्व्हेनिया के महिला कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया। अंग्रेजी में विशेष पदवी प्राप्त रिचेल ने एक रुचि के रुप में जीवशास्त्र का छोटासा कोर्स पूरा किया। यह कोर्स रिचेल के लिए काफी फायदेमंद रहा। कोर्स के दौरान सीखी हुई बातों एवं शिक्षकों द्वारा प्रकृति के प्रति दिया जाने वाला नया दृष्टिकोन इन सब का रिचेल के जीवन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। कोर्स पूरा हो जाने पर रिचेल ने मॅसेच्युएट्स प्रांत के मरीन बॉयोलॉजिकल प्रयोगशाला में प्रवेश प्राप्त किया।

लेखन कार्य के माध्यम से ही अपना करिअर बनाने का उद्देश्य रखनेवाली रिचेल वॉशिंग्टन के ‘ब्युरो ऑफ फिशरीज ’ में जैवशास्त्रज्ञ के रूप में १९३६  में कार्यरत हो गयी। काम का ही एक हिस्सा मानकर रिचेल ने ‘अंडर सी’ नामक एक लेख प्रकाशित किया था। इस लेख से प्रभावित होकर रिचेल के सहकर्मियों ने उन्हें इसी प्रकार की रचना करने के लिए उत्तेजित किया। लेखन की सुप्त आकांक्षा मन में रखनेवाली रिचेल के लिए यह एक सुवर्ण अवसर ही साबित हुआ। रिचेल द्वारा सीधी-साधी भाषा में लिखे गए लेख इतने अधिक मशहूर हुए कि बिलकुल चार वर्षों में यानी १९४१  में ही इन लेखों को मिलाकर ‘अंडर द सी वाईंड’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई।

प्रथम पुस्तक के साथ-साथ रिचेल पर एक नयी ज़िम्मेदारी आन पड़ी और वह थी ‘फिश  अ‍ॅण्ड वाईल्डलाइफ सर्व्हिस’ द्वारा चलाये जानेवाले सभी प्रकाशनों का संपादन करने की ज़िम्मेदारी। अपनी रुचि एवं करिअर ये दोनों ही बातें साध्य होने के कारण रिचेल ने बड़े ही आनंदपूर्वक इस कार्य का स्वीकार किया। ‘अंडर द सी वाईंड’ के पश्‍चात् रिचेल ने सागरी जीवन पर आधारित ‘द सी अराऊंड अस’ एवं ‘द एज ऑफ द सी’ ये दो किताबें लिखीं। लेखिका बनने की जिद रखनेवाली एवं जैवशास्त्रज्ञ के रुप में कार्यरत होने वाली रिचेल ने प्रसिद्धी प्राप्त की, एक वैज्ञानिक लेखिका के रुप में।

एक वैज्ञानिक लेखिका के रुप में कार्यरत रिचेल का संबंध पर्यावरण के साथ तो जुड़ ही चुका था। सहकारी संशोधकों की ओर से रिचेल को कीटकनाशक एवं उसके परिणामों से संबंधित जानकारी मिल चुकी थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए रिचेल ने मशहूर नियतकालिक ‘रीडर्स डायजेस्ट’ को एक लेख भी भेजा था। परन्तु उन्हें उसे प्रकाशित करने से मना कर दिया गया। इस बात से दुखी हुई रिचेल ने उस ओर आगे चलकर ध्यान नहीं दिया। परन्तु इस विषय से संबंधित अध्ययन उन्होंने जारी ही रखा था।

इसके पश्‍चात् १९५८  के दौरान रिचेल को न्यू इंग्लड प्रांत के ओल्गा हकिन्स नामक सहेली का पत्र प्राप्त हुआ। इस पत्र में ओल्गा ने अपने खुद की पक्षियों के नर्सरी में किये गये ‘डी.डी.टी.’ के हवाई फव्वारे से नष्ट होने वाली कुछ बातों का उल्लेख किया था। इस पत्र के कारण रिचेल में नयी उम्मीद ने जन्म लिया। इससे पूर्व किए गए संशोधन को एक नई दिशा प्रदान करते हुए रिचेल ने इस मुद्दे को पुन: उठाने का निर्णय लिया। मूलत: शांत एवं आत्ममग्न स्वभाव से पहचानी जाने वाली रिचेल ने कीटकनाशकों के उत्पादकों से लेकर सभी सामान्य नागरिकों तक से मुलाकात की। अपने द्वारा शुरु किया गया यह संशोधन कोई सामान्य न होकर उसका विस्तार व्यापक है, इस बात का उन्हें अहसास हुआऔर उसी क्षण उन्होंने इससे संबंधित एक पुस्तक प्रसिद्ध करने का निर्णय ले लिया।

अपना काम इतना आसान नहीं हैं, इस बात का अहसास रिचेल को उसी समय हो चुका था। रिचेल  क्या कर रही है, इस बात का पता अमेरिका के रसायन उत्पादकों को चल चुका था। उन लोगों ने रिचेल को डराने के लिए धमकी देना, झूठे मुकदमें दायर करना, उस पर प्रचार प्रसार माध्यमों के जरिए आरोप लगाना आदि शुरु कर दिया था। परन्तु रिचेल ने हार न मानते हुए अपनी लड़ाई शुरु रखी और रिचेल के सभी संशोधन एवं निष्कर्ष प्रस्तुत करनेवाली ‘सायलेंट स्प्रिंग’ नामक पुस्तक १९६२ में प्रसिद्ध हुई।

रसायन फव्वारे वाली खेती के प्रकृति एवं मानवी जीवन पर होनेवाले घातक परिणामों की सच्चाई रिचेल कार्सन ने ‘सायलेंट स्प्रिंग’ नामक पुस्तक में खुलेआम प्रस्तुत की। रिचेल की इस पुस्तक ने रसायन एवं कृषि उद्योग में काफी खलबली मचा दी। इसी खलबली ने अमेरिका के पर्यावरण संग्राम की बुनियाद डाल दी। प्रचार एवं प्रसार माध्यमों, संशोधकों एवं उद्योगपतियों की ओर से होनेवाले आरोपों के बावजूद भी रिचेल अपने निष्कर्ष के प्रति दृढ़ बनी रही। रिचेल की पुस्तक ने अमेरिका के लाखों नागरिकों को जागृत किया और आखिरकार इस दबाब के कारण अमेरिकन सरकार को झुकना ही पड़ा। रिचेल की किताब में प्रस्तुत किए गए निष्कर्ष का अध्ययन करने के लिए सरकार ने एक समिति स्थापित की। कुछ समय पश्‍चात् इस समिति ने रिचेल द्वारा ‘सायलेंट स्प्रिंग’ में प्रस्तुत किये गए निष्कर्ष सही हैं, यह साबित कर दिया और ‘डी.डी.टी.’ एवं उसके समान घातक रसायनों पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गयी। अन्य देशों ने भी अमेरिका का अनुसरण किया। इससे पर्यावरण का होने वाला र्‍हास तो रुक गया, पर यह देखने का रिचेल के नसीब में नहीं था। स्तन के कर्करोग के कारण उनका इससे पहले ही निधन हो गयाथा। परन्तु पर्यावरण क्रांति की बुनियाद मज़बूत करने का काम रिचेल के ही हाथों से आरंभ हो चुका था।

Leave a Reply

Your email address will not be published.