नेताजी-८०

आँखों से ओझल हो रहे भारत के किनारे को देखते समय सुभाषबाबू का मन विचारों के सैलाब से घिर चुका था। अपने प्रियजनों के, विशेषतः अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि के वियोग के दुख की पहली लहर की तीव्रता के कुछ कम होते ही उनका मन आगे की सोचने लगा।

पिछली मर्तबा आयसीएस परीक्षा देने के लिए जब सुभाषबाबू ने भारत के किनारे को छोड़ा था, उस समय के और अब के हालात में का़फ़ी फ़र्क पड़ चुका था। बीच के समय में पुल के नीचे से का़फ़ी पानी बह चुका था। स्वयं युरोप भी एक महायुद्ध के गहरे ज़ख्मों के घावों के साथ का़फ़ी परेशान था और सन १९२९ में अमरीकी कंपनियों के शेअर्स के गिरने के साथ साथ शुरू हुए ‘ग्रेट डिप्रेशन’ के अंजाम भुगत रहा था। सन १९१७ में रशिया में राज्यक्रान्ति कर श्रमजीवियों की सरकार की स्थापना करनेवाले लेनिन भी सन १९२४ में दुनिया छोड़ चुके थे और उसके एक ही वर्ष बाद किसी समय उनका विश्‍वसनीय सहकर्मी रह चुका स्टॅलिन रशिया का सर्वेसर्वा बन गया था। उसके बाद के गत आठ वर्ष उसे सत्तासंघर्ष में बिताने पड़े। इन आठ वर्षों में उसने ट्रॉट्स्की जैसे अपने पक्षान्तर्गत कई विरोधकों को रास्ते से हटाकर अपना सत्तास्थान सुरक्षित किया था।

वहीं, फ़्रान्स में जनतन्त्र के प्रयोग मह़ज एक नौटंकी बनकर रह चुके थे। एक के बाद एक करके मन्त्रिमण्डल गिर रहे थे और साधारणतः बाक़ी के चेहरें वही रहनेवाले, स़िर्फ़ प्रधानमन्त्रि बदल चुके ऐसे नये नये मन्त्रिमण्डल ‘चार दिन की चाँदनी’ इस कहावत की तरह आ-जा रहे थे। इटली में बेनिटो मुसोलिनी, वहीं जर्मनी में अ‍ॅडॉल्फ़ हिटलर ये अपने देश की जनता के मन में खौलते हुए असन्तोष की लहर का फ़ायदा उठाकर, हु़कूमत पर कब़्जा कर बैठे थे। पहले विश्‍वयुद्ध के विजेता दोस्तराष्ट्रों ने हारी हुई जर्मनी को बहुत ही अपमानकारक शर्तों की जंजीरों में जकड़कर उसके स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। चौदह वर्ष इस विटंबना की अन्धेरी रात में गुज़ारने के बाद जर्मन जनता को हिटलर में नयी सुबह ऩजर आ रही थी।

रशिया में निरंकुश सत्ता स्थापित करने में कई वर्ष बिताने के बाद स्टॅलिन को भी थोड़ाबहुत सु़कून से रहने की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। इसलिए वह भी, उसी के जैसी कार्यपद्धति का अवलंबन कर जर्मनी में सत्ता हासिल कर चुके हिटलर के साथ अच्छे समीकरण बनाने की कोशिशों में था।

युरोप की मुख्य भूमि से दूर रहने के कारण इंग्लैंड़ इस घटनाक्रम को त्रयस्थता की दृष्टि से, मग़र फ़िर भी होशियारी तथा कुछ हद तक अस्वस्थतापूर्वक देख रहा था।

यह जानकारी रखनेवाले सुभाषबाबू इस घटनाक्रम का भारत की स्वतन्त्रता के लिए किस तरह लाभ उठाया जा सकता है, इस सन्दर्भ में विभिन्न समीकरण जुटाने में मग्न ही थे कि बोट ने युरोप में प्रवेश किया। सुभाषबाबू के कदम युरोप की सरज़मीन पर पड़ने से पहले ही उनके वहाँ आने की ख़बर युरोप में पहुँच चुकी थी। वे व्हेनिस में उतरनेवाले थे, लेकिन उससे पहले बोट पर ही रोम स्थित ‘हिंदुस्थान असोसिएशन’ का स्वागतपर टेलिग्राम उन्हें मिला।

६ मार्च १९३३ को सुभाषबाबू की बोट ऑस्ट्रिया के व्हेनिस इस बंदरगाह में दाखिल हुई। सुभाषबाबू ने युरोप की भूमि में कदम रखा। नियति भी तब शायद मुस्कुरायी होगी, क्योंकि उसका एक और फाँसा पड़ चुका था। सुभाषबाबू का युरोप का वास्तव्य यह भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित होनेवाला था। यहीं से उनके भावी कार्य की नींव रखी जानेवाली थी। सुभाषबाबू सर्वोच्च स्तर के लोकनेता तो थे ही, लेकिन अब उनके इस युरोप के वास्तव्य में, देशहित को पलभर के लिए भी ऩजरअन्दा़ज न करते हुए बड़े बड़े विश्‍वस्तरीय नेताओं के साथ सहजता से बराबरी के द़र्जे से चर्चा करनेवाला उनका धुरन्धर राजनैतिकत्व भी दुनिया के सामने आनेवाला था। उनका व्यक्तित्व अब एक परिपूर्ण नेता के रूप में ढल रहा था।

हालाँकि भारत में अँग्रे़ज सरकार उनके सर्वनाश के लिए हरसंभव कोशिश कर रही थी, मग़र विदेश में उनका अच्छा-ख़ासा नाम हो चुका था। इसीलिए बन्दरगाह में बोट के दाखिल होते ही, बोट का स्वामित्व जिस कंपनी के पास था, उस ‘लॉईड ट्रिस्टिनो’ का व्यवस्थापक स्वयं उनके स्वागत के लिए हा़जिर था। उसे ‘ऊपर से’ वैसे आदेश प्राप्त हुए थे।

व्हेनिस बन्दरगाह में उन्हें ले जाने के लिए उनका, वहाँ इंजिनियरिंग की शिक्षा प्राप्त कर रहा बड़ा भतीजा अशोकनाथ आया था। इतने दिनों बाद अपने ‘रंगाकाकाबाबू’ को देखकर वह खुशी से झूम उठा। व्हेनिस में एक दिन रहकर वे ८ तारीख़ को व्हिएन्ना के लिए रवाना होनेवाले थे। व्हेनिस में ‘रॉयल डॅनियेलो’ होटल में उनका निवास था। होटल में जाकर उन्होंने देखा तो क्या, कई इटालियन अख़बारों के रिपोर्टर और भारतीय छात्र उनकी राह देख रहे थे। लेकिन इतने दिनों के स़फ़र के बाद सुभाषबाबू का बीमार शरीर का़फ़ी थक चुका था और इसीलिए उन्होंने सभी को बाद में प्रदीर्घ इन्टरव्ह्यू का आश्‍वासन देकर वापस भेज दिया।

किसी जमाने में पौर्वात्य एवं पश्चिमी जगत् को जोड़नेवाली महत्त्वपूर्ण नगरी के रूप में इटली का व्हेनिस यह शहर मशहूर था। पौराणिक कथाओं में जँचने लायक व्हेनिस यह एक जलनगरी थी। यानि उसे पानी में ही बसाया गया था। यहाँ के रास्ते भी नहर ही थे और उन्हीं में से व्हेनिस की मशहूर ‘गंडोला’ नामक छोटी कश्तियों में से और दूर के स़फ़र के लिए मोटरबोट में से सैरसपाटा किया जाता था।

दूसरे दिन सुभाषबाबू ने अशोकनाथ के साथ गंडोला तथा मोटरबोट से यथेच्छ जलविहार करके व्हेनिस शहर को देख लिया। उस समय एक और श़ख्स उनके साथ था। दरअसल भारत से प्रस्थान करते समय से ही वह उनके साथ था। व्यवसाय से वक़ील रहनेवाले इस भारतीय ने स्वयं होकर सुभाषबाबू से परिचय करा लिया था। बोट पर सुभाषबाबू की गपशप की मह़िफ़लों में भी वह शामिल होता था। वह ठहरा भी था उसी ‘रॉयल डॅनियेलो’ होटल में और ८ तारीख़ को सुभाषबाबू जब व्हिएन्ना जाने निकले, तब भी वह उनके साथ निकला था। तब जाकर सुभाषबाबू की समझ में आया कि यह अँग्रे़ज सरकार द्वारा मेरा पीछा करने के लिए भेजा हुआ ‘गद्दार भारतीय’ गुप्तचर है। उन्होंने उसे इस बारे में खरी खरी सुनाकर वहाँ से खदेड़ दिया और वे अशोकनाथ के साथ व्हिएन्ना रवाना हुए।

किसी समय वैभव के शिखर पर रहनेवाली ऑस्ट्रिया की राजधानी व्हिएन्ना का गतवैभव एवं उसकी शान पहले विश्‍वयुद्ध में नष्ट हो चुकी थी। लेकिन ‘प्रगत वैद्यकीय उपचारकेन्द्र’ यह उसकी ख्याति आज भी बरक़रार थी। इसीलिए सुभाषबाबू ने इलाज के लिए उसे चुना था।
अब सुभाषबाबू का पहला लक्ष्य था – स्वयं की बिगड़ी हुई सेहत को दुरुस्त करना।

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