नेताजी-३९

१७  नवम्बर को युवराज के भारत के आगमन के उपलक्ष्य में भारत भर में कड़ी हरताल की गयी। कोलकाला में इस हरताल की कार्यवाही स्वयंसेवक दल के माध्यम से की गयी। इस हरताल की सफलता के लिए दासबाबू के मार्गदर्शन में सुभाषबाबू के कन्धे से कन्धा मिलाकर जे. एम. सेनगुप्ता जैसे रेलमजदूर नेता के साथ ही हेमंत सरकार, किरण शंकर रॉय, गोपीनाथ साहा, जतीन दास आदि युवानेता भी दिनरात मेहनत कर रहे थे। प्रचारसमिती यन्त्रणा के माध्यम से सुभाषबाबू ने जनमत को ज़ुल्मी अँग्रे़जी हुकूमत के खिलाफ क्षुब्ध करने में सफलता प्राप्त की थी। परिणामस्वरूप कोलकाता की जनता ने भी इस हरताल को उत्स्फूर्ततापूर्वक संपूर्ण समर्थन दिया।

netaji(1)- सुभाषबाबू युवराज २४  दिसम्बर को कोलकाता आनेवाले थे। उस समय उन्हें मुंबई की तरह दृश्य न दिखायी दें, इस हेतु से सरकार ने साम, दाम, भेद आदि उपायों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। हरताल करनेवाले नेताओं को चर्चा करने के लिए आमन्त्रित किया गया था। पहले मीठीं बातों में उलझाने की कोशिश की गयी, फिर स़ख्त रवैया अपनाने की धमकी भी दी गयी; लेकिन इसके बावजूद भी नेताओं का निश्चय अटल ही है, यह देखकर ग़ुस्से से सरकार ने दण्ड का मार्ग अपनाकर स्वयंसेवक दल पर पाबंदी लगा दी। इस पाबंदी के कारण खौल उठे सुभाषबाबू ने इस बंदीहुक़्म को तोड़ने के लिए स्वयंसेवक भेजने की अनुमति दासबाबू से माँगी।

लेकिन सुभाषबाबू से अनुभव में बुज़ुर्ग रहनेवाले दासबाबू को जल्दबा़जी में कोई फैसला  करना  पसन्द नहीं था। इसीलिए इस आन्दोलन को शुरू करने से पहले उन्होंने प्रोटोकॉल के अनुसार काँग्रेस की अखिल भारतीय कार्यकारिणी से अनुमति प्राप्त की। साथ ही, यदि इस आन्दोलन को छेड़ना हो, तो काफी बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों की आवश्यकता थी। कहीं ऐसा हास्यास्पद चित्र न दिखायी दे कि आन्दोलन तो शुरू कर दिया, लेकिन स्वयंसेवक ही नहीं है। इसीलिए उन्होंने काँग्रेस से अनुमति प्राप्त होने पर जिला समितियों के सामने इस बंदीहुक़्म को तोड़ने के आन्दोलन का प्रस्ताव रखा। उसे एकमुख से समर्थन मिलने के बाद ही दासबाबू ने इस आन्दोलन को शुरू करने के लिए सुभाषबाबू को अनुमति दी। इस तरह हर एक मामले में सुभाषबाबू अपने गुरु से कुछ न कुछ सीख ही रहे थे। व्यवहार्यता के संपुट में तत्त्वज्ञान का निखार बढ़ता ही जा रहा था।
दासबाबू से आन्दोलन शुरू करने की अनुमति प्राप्त होने के बाद सुभाषबाबू ने बंदीहुक़्म को तोड़ने का आन्दोलन शुरू कर दिया। अपने इस आन्दोलन की आँच कॉलेज पर न आये, इसलिए उन्होंने प्राचार्यपद से पहले ही इस्तीफा  दे दिया था। पाँच पाँच स्वयंसेवकों के गुट कोलकाता की हर गली-कूचे में घूमते हुए हाथगाडी पर से खद्दर (खादी का कपड़ा) रखकर बेचते थे। साथ ही बहिष्कार का प्रचार भी करने का तय हुआ था। सुभाषबाबू और अन्य नेता गली-गली में जाकर बहिष्कार के आन्दोलन में शामिल होने की गुज़ारिश लोगों से करते थे। प्रारंभिक दौर में स्वयंसेवकों की संख्या काफी कम थी। इसीलिए फिर  दासबाबू ने अपने बेटे चिररंजन को प्रत्यक्ष आन्दोलन में उतारा। उसे सरकार ने गिऱफ़्तार कर लिया। उसका थोड़ासा फायदा  भी हुआ। स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ गयी। मग़र आन्दोलन उस ते़जी के साथ नहीं बढ़ रहा था, जैसा कि दासबाबू चाहते थे। दासबाबू इस आन्दोलन को घर घर में पहुँचाना चाहते थे। लेकिन अब भी स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के अलावा कोलकाता की आम जनता आन्दोलन में सम्मीलित नहीं हो रही थी। युवराज के कोलकाता आने में अब भी लगभग एक महीना बाक़ी था और कुछ भी करके आन्दोलन को तब तक जारी रखना आवश्यक था। आन्दोलन के नेताओं की हररो़ज मीटिंग्ज हो रही थीं। स्वयंसेवकों की संख्या को किस तरह बढ़ाया जा सकता है, इसपर चर्चा होती थी। आन्दोलन को हमारे नेता जैसा चाहते हैं, उस ते़जी के साथ संचालित करने में कामयाबी नहीं मिल रही है, यह सोचकर सुभाषबाबू चिन्तित हो जाते थे।

आख़िर संपूर्ण सोचविचार के बाद दासबाबू ने उनके ‘ब्रह्मास्त्र’ का उपयोग करना तय किया।
उन्होंने अपनी धर्मपत्नी वासंतीदेवी को ही आन्दोलन में उतारने का निश्चित कर लिया।
‘आंदोलन में….सड़क पर….महिलाएँ? नहीं….हरगी़ज नहीं।’ इससे पहले किसी ने भी कभी भी न सुनी हुई ऐसी यह बात थी।
‘आन्दोलन में सड़क पर हमारी माँ-बहनों को….और उसमें भी ‘माँ’ को सड़क पर उतारने की नौबत आयी है? पुरुषों ने क्या हाथों में चूड़ियाँ भर रखी हैं? नहीं नहीं….कदापि नहीं।’

उस बैठक में सभी ने दासबाबू का कड़ा विरोध किया। उन्हें हर तरह समझाते हुए कहा कि जान की बा़जी लगाकर कोशिशें करेंगे, लेकिन हमारी माँ-बहनों को आन्दोलन में सड़क पर उतारने की नौबत नहीं आने देंगे। सुभाषबाबू की आँखों से निकल रही आसुओं की धारा तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। लेकिन अब दासबाबू फैसला  कर चुके थे और सबसे अहम बात यह थी कि बैठक में उपस्थित वासंतीदेवी ने किसी भी विरोध की परवाह न करते हुए मुझे मेरे पति की….नहीं, बल्कि मेरे नेता की आज्ञा सिर आँखों पर है, यह भी स्पष्ट रूप से कहा।

पति के देशकार्य को सति का व्रत माननेवाली वासंतीदेवी ने असहकार आन्दोलन में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लेनेवालीं पहली महिलाओं में सम्मान का स्थान प्राप्त किया…इतिहास में अपना नाम हमेशा के लिए अंकित कर दिया। बाद के स्वतन्त्रतासंग्राम में महिलाओं ने पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर हिस्सा लिया। लेकिन जिस जमाने में महिलाएँ विवाह आदि समारोहों के अलावा घर के बाहर कदम तक नहीं रखती थी, उस जमाने में एक सामान्य घर की महिला का स्वतन्त्रता आन्दोलन में सड़क पर उतरना, यह ‘अजूबा’ भी पहली ही बार होनेवाला था।

वासंतीदेवी का वज्रनिर्धार सुनकर बैठक का नूर ही बदल गया। इकट्ठा हुए सभी ने, हमारे घर की महिलाएँ भी आन्दोलन में सम्मीलित होंगी, यह जाहिर कर दिया।

दूसरे दिन सुबह वासंतीदेवी और दासबाबू की बहन उर्मिलादेवी निदर्शन करने सड़क पर उतरीं और उन्होंने ज़ुल्मी अँग्रे़ज सरकार के खिलाफ नारे लगाते हुए निदर्शन करना शुरू कर दिया। सारे शहर में यह ख़बर ते़जी से फ़ैल गयी। दासबाबू से बेहद प्यार करनेवाले कोलकातावासीयों मे खलबली मच गयी। ‘दासबाबू का परिवार और सड़क पर….? फिर  हम भला पीछे कैसे रह सकते हैं?’ इस तरह इसमें शामिल होने की बात शहर की महिलाएँ भी करने लगीं।

उसी समय हक्काबक्का हो चुकी सरकार ने वासंतीदेवी को गिऱफ़्तार कर लिया।
….और कोलकाता भड़क उठा।

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