नेताजी- १२५

सुभाषबाबू के खिलाफ़ दायर किये गये मुकदमों में न्यायमूर्ति ने २७ जनवरी, १९४१ यह आख़िरी तारीख़ दे दी थी और इसीलिए सुभाषबाबू के लिए एक महीने के भीतर निर्धारित योजना की कार्यवाही करना ज़रूरी बन गया था। वैसे तो उनके कहीं जाने-आने पर किसी प्रकार की पाबन्दी तो नहीं लगायी गयी थी, लेकिन घर से निकलते ही सरकार के गुप्तचर मुझपर नज़र रखते हुए मेरा पीछा करते रहेंगे, इस बात को वे भली-भाँति जानते थे। इसीलिए घर में से दिनदहाड़े बाहर निकलकर रेल, बोट, हवाई जहाज़ इन जैसे साधनों से देश के बाहर जाना तो उनके लिए मुमक़िन नहीं था। इसी वजह से उनके दिमाग में शिवाजी महाराज के ‘आग्रा से रिहाई’ इस प्रसंग जैसी योजना आकार ले रही थी। इसीलिए उन्होंने उस प्रकार के माहौल का निर्माण करने के लिए धीरे धीरे घर से बाहर निकलना, लोगों से – अपने समर्थकों से भी मिलना कम कर दिया था। इसी वजह से उनके बीमार होने का यक़ीन होकर सरकार द्वारा उनपर कसा गया फ़ौलादी शिकंजा धीरे धीरे शिथिल हो चुका था, उनपर दिनरात कड़ी नज़र रख रहे गुप्तचरों के कार्य में भी ढिलाई आ चुकी थी और यह बात सुभाषबाबू के ध्यान में आ चुकी थी।

आख़िर प्रत्यक्ष कार्यवाही शुरू करने का वक़्त आ गया। सबसे पहले उन्होंने अपने छोटे भतीजे शिशिरकुमार को मिलने बुलाया। उनका बड़ा भतीजा अशोकनाथ उस समय बराड़ी में बसा था। उसे भी उन्होंने आ मिलने का सन्देश भेजा।

रात को खाने के बाद इस तरह अचानक सन्देश भेजकर बुलाया गया शिशिर थोड़ेबहुत डर के साथ ही सुभाषबाबू से मिलने आया। ‘रंगाकाकाबाबू’ का मेरे पास क्या काम हो सकता है, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, इतिहास, नेताजी, क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता, भारत, आन्दोलन‘क्या तुम ड्रायव्हिंग जानते हो? क्या तुमने ‘लाँग-डिस्टन्स’ ड्रायव्हिंग किया है?’ यह सुभाषबाबू ने उससे पूछा। वैसे तो शिशिर ड्रायव्हिंग जानता था, लेकिन तब तक उसने लाँग-डिस्टन्स ड्रायव्हिंग नहीं किया था। सुभाषबाबू ने उसे उस बात का अभ्यास करने के लिए कहा। लेकिन यह क्यों, किसलिए यह बात उसकी समझ में नहीं आ रहा था। साथ ही, इस मामले में पूरी तरह गुप्तता बरतने की सूचना भी सुभाषबाबू ने उसे दी थी, जिससे कि वह और भी उलझन में पड़ गया था। काम तो बड़ा आसान था। ह़फ़्ते भर में लाँग-ड्राईव्ह का अभ्यास करना, टायर बदलना, इंजिन की रचना एवं कार्यपद्धति जानने के साथ साथ मोटर मेकॅनिक का छोटा-मोटा रिपेअरिंग का काम सीखना और सुभाषबाबू जब जहाँ छोड़ने के लिए कहेंगे, वहाँ उन्हें बिना किसी को बताये छोड़ आना, बस इतना ‘सादा-सा’ वह काम था!

शरदबाबू के पास दो गाड़ियाँ थीं – एक थी बड़ी – स्टुडबेकर और दूसरी छोटी – वाँडरर। हालाँकि लाँग ड्राईव्ह के लिए स्टुडबेकर ही उपयोगी साबित होती थी। लेकिन शरदबाबू हमेशा स्टुडबेकर का उपयोग करते थे और इसीलिए सारे कोलकाता में वह ‘शरदबाबू की गाड़ी’ के रूप में मशहूर थी, यह जाननेवाले सुभाषबाबू ने उसे न चुनते हुए वाँडरर को ही चुना। साथ ही, शिशिर को महायुद्ध के, विशेषतः रशिया के सन्दर्भ में मिलनेवालीं ख़बरो पर नज़र रखने के लिए कहा। शिशिर को बोस परिवार में मितभाषी कहा जाता था और मुख्य रूप से वह अब भी पढ़ रहा था, इसलिए पुलीस-रेकॉर्ड में कहीं पर भी उसका नाम दर्ज नहीं किया गया था। अत एव सुभाषबाबू ने उसे चुना था और ‘इन्सान की सही सही परख करनेवाले’ सुभाषबाबू ने उसकी सुप्त क्षमता और विश्‍वसनीयता को जानकर उसपर जताये हुए भरोसे के कारण उस एक रात में वह छोटे से बड़ा बन गया। फिर चन्द दिनों बाद सुभाषबाबू ने जब उसे अपनी पूरी योजना के बारे में बताया, तब वह अचम्भित होकर उनकी ओर देखता ही रहा था। एक बड़े ही महत्त्वपूर्ण काम में मुझे गिलहरी का योगदान देने का मौक़ा मिल रहा है, यह जानकर वह बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ वह पेश आने लगा।

उस वक़्त सेहत की समस्या के कारण शरदबाबू हवाबदली के लिए कॅलिपाँग गये थे; वहीं विभाभाभी कुछ दिनों के लिए अशोकनाथ के यहाँ बराड़ी गयी थीं। इसलिए स्वाभाविक रूप से शिशिर का काम और भी आसान हो गया था। उसके बारे में किसी के भी मन में शक़ पैदा होने की कोई गुँजाईश ही नहीं थी।

लेकिन इस बात को शरदबाबू से भी नहीं कहना है, यह सुनने के बाद वह हैरान रह गया। लेकिन जब सुभाषबाबू ने उसे समझाया कि ‘मेरे जीवन के हर पड़ाव पर मेरी छत्रछाया बनकर मेरा साथ देनेवाले शरदबाबू को, मेरे जीवन की इस महत्त्वपूर्ण योजना के बारे में किसी और से पता चला, तो उनके मन को ठेंस पहुँचेगी और यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए उनके लौटते ही मैं स्वयं उनसे सबकुछ साफ़ साफ़ कह दूँगा। आजतक उन्होंने मेरी किसी भी बात को ‘ना’ नहीं कहा है और इसीलिए मेरी इस योजना को भी उनका आशीर्वाद ही रहेगा, इसका मुझे यक़ीन है’, तब शिशिर को तसल्ली मिली और वह जोश के साथ अपने काम में जुट गया।

इसी दौरान सुभाषबाबू द्वारा सन्देश भेजकर बुलाया गया अशोकनाथ भी बराड़ी से आकर उनसे मिला। उसे भी राज़दार बनाकर सुभाषबाबू ने योजना के बारे में बताया। मैं पेशावर के रास्ते देश के बाहर जाना चाहता हूँ। लेकिन यदि दिन में खुले आम बाहर निकलता हूँ, तो सरकार मुझे अवश्य ही गिऱफ़्तार कर लेगी। इसीलिए मौक़ा मिलते ही घर से बाहर निकलकर गुप्त रूप में बराड़ी आऊँगा और वहाँ के किसी नज़दीकी स्टेशन से गाड़ी पकड़कर आगे बढ़ूँगा, यह सुभाषबाबू उससे कहा। वह सुनते ही वह रोमांचित होकर लौट गया और अगले काम में जुट गया – अर्थात् इस मामले में उसकी पत्नी को भी कानोकान ख़बर नहीं लगनी चाहिए, इस सुभाषबाबू की सूचना को ध्यान में रखकर ही!

इस योजना में रहनेवाले खतरों को ध्यान में रखकर, उसकी कार्यवाही करते हुए सभी स्तरों पर सर्वोच्च सतह के एहतियात बरतना आवश्यक था। इसीलिए हर पड़ाव को उन्होंने छोटे छोटे उद्दिष्टों में विभाजित किया था और हर पड़ाव पर किसकी क्या भूमिका रहेगी, यह भी तफ़सील के साथ उन्होंने तय किया था। इस योजना में शामिल होनेवालों को अपने आसपास के इलाक़े का निरन्तर निरीक्षण करने के लिए भी उन्होंने कहा था-सुभाषबाबू के एक भाई के पालतू अल्सेशियन कुत्ते का भी इस तफ़सील में समावेश किया गया था। वह कब सोता है, कब जागता है इसकी भी ख़बर रखने के लिए सम्बन्धित व्यक्तियों से कहा गया था। इस योजना में उन्होंने जिन्हें शामिल किया था, वे सभी उनपर जान निछावर करनेवाले, साथ ही उनकी इस योजना की महानता को जाननेवाले उनके रिश्तेदार, सहकर्मी थे। क्योंकि सरकार के पास उनकी जो गुप्त फाईल थी, उसमें उन्हीं के एकाद-दो क़रिबी रिश्तेदारों के नाम ‘इन्फर्मर’ के रूप में दर्ज़ किये गये थे और इसीलिए घर के गिनेचुने चार-पाँच व्यक्तियों के अलावा अन्य किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता था। अँग्रेज़ों द्वारा उनके घर में ही ‘प्लान्ट’ किया गया एजन्ट – घर का भेदी कौन होगा, इसे यक़ीनन नहीं कहा जा सकता था और इसीलिए इस योजना के बारे में काफ़ी कम लोग जानते थे और उन्हें शामिल कराते हुए भी, एकदम से सारी की सारी योजना के बारे में उन्हें न बताते हुए उनके लिए निर्धारित किये गये कामों की व्याप्ति को धीरे धीरे बढ़ाकर उनकी मनोभूमिका जब इस योजना के लिए तैयार हुई, तब ही उन्हें सम्पूर्ण योजना की जानकारी दी गयी।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के सर्वोच्च देदीप्यमान एवं रोमहर्षक अध्याय की शुरुआत होने जा रही थी।

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