नेताजी- १०२

सुभाषबाबू को अपने साथ लेकर शोभायात्रा हरिपुरा में बसायी गयी ‘विठ्ठलभाई पटेल नगरी’ में आ गयी। परिपाटी के अनुसार वहाँ पर ध्वजवन्दन का समारोह हुआ। उस समय भूतपूर्व अध्यक्ष जवाहरलालजी ने अध्यक्षपद के सूत्र सुभाषबाबू को सौंप दिये। उसके बाद सुभाषबाबू ने विश्राम किया। उस दिन देर रात तक रेल्वे द्वारा मुहैया कराये गये डिस्काऊंट टिकट खरीदकर लोगों के झुण्ड का़फ़ी संख्या में अधिवेशनस्थल पर दाखिल हो रहे थे। लेकिन सरदार पटेलजी का नियोजन इतना अचूक था कि किसी को भी किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं हुई।

यहाँ पर सारे पदार्थ निरामिष (व्हेजिटेरियन) रहनेवाले थे। सुभाषबाबू को तो सामिष भोजन बहुत ही प्रिय था, इसलिए कम से कम नाश्ते के लिए तो अण्डों का इन्तज़ाम करना चाहिए, इस सोच से उनके भतीजे अशोकनाथ ने पास ही के किसी गाँव में जाकर अण्डों का इन्तज़ाम किया। यह ज्ञात होते ही सुभाषबाबू ने उसे खरी खरी सुनायी। ‘हम जहाँ जाते हैं, वहीं का भोजन करना हमें आना चाहिए। व्हेन यू आर इन रोम, बिहेव्ह लाईक अ रोमन!’ यह चेतावनी देकर उसे फ़िज़ूल उत्साह से परावृत्त किया। इस बात का पता चलते ही सरोजिनीदेवी नायडूजी ने ‘यह आदमी किसी भी मामले में भला इतना चरमसीमा तक क्यों जाता है?’ यह टिप्पणी कौतुकपूर्वक की।

१९ फ़रवरी १९३८ की शाम। लोगों की भीड़ से हरिपुरा खचाखच भर गया था। सभी के उत्सुक कदम अधिवेशनमण्डप की दिशा में पड़ रहे थे। कहीं से भी बड़ी आसानी से दिखायी दे, इस तरह की रचना किये गये मंच के बगल में ही संवाददाता-फ़ोटोग्राफ़र एवं विदेशी प्रतिनिधियों की आसनव्यवस्था थी।

मंच पर के दृश्य को लोग जी भरकर देख रहे थे। मंच पर गाँधीजी, सरदार पटेल, भूतपूर्व अध्यक्ष जवाहरलालजी और नवनियुक्त अध्यक्ष सुभाषबाबू विराजमान थे। उनमें से हर एक के सपने के रंग भले ही अलग अलग क्यों न हों, लेकिन उन सभी के सपनों का मूल कॅनव्हास तो ‘भारतमाता की आज़ादी’ यही था। सुभाषबाबू की ७० साल की बूढ़ी माँ भी अपने पति की यादों के साथ, अपने पुत्र को सर्वोच्च स्थान पर विराजमान हुआ देख रही थीं। सारे भारत का प्रतिनिधित्व करनेवाला विशाल जनसागर देखकर सुभाषबाबू कुछ समय के लिए अपने ही विचारों में खो गये थे। उन्हें याद आ रहा था वह हर सैनिक, जिसने स्वतन्त्रता की वेदी पर अपने प्राण निछावर कर दिये।

आख़िर सभी लोग जिसका बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे, उस अध्यक्षीय भाषण की शुरुआत सुभाषबाबू ने की। लोग कानों में मानो प्राण ही ले आकर सुभाषबाबू की वाणी सुन रहे थे। सुभाषबाबू ने अस्खलित हिन्दी में भाषण किया। कई प्रस्थापित धारणाओं की नींव हिला देनेवाले उनके भाषण का आशय कुछ इस प्रकार था –

‘इतिहास में इस बात के कइ उदाहरण मिलते हैं कि हुकूमतें आती हैं, उनका विस्तार होता है और बाद में अस्त भी। तो फ़िर अँग्रेज़ साम्राज्य भी इसके लिए अपवाद कैसे हो सकता है? फ़िलहाल जागतिक रंगमंच पर हो रही घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि आज का अँग्रेज़ साम्राज्य, निर्माण और विस्तार इन दो पड़ावों को पार कर तीसरे पड़ाव की दहलीज़ पर आ खड़ा है। ‘डिव्हाईड अँड रुल’ इस कुटिलनीति का दुनियाभर में इस्तेमाल कर अनियन्त्रित साम्राज्यविस्तार कर चुके इंग्लैंड़ ने यदि समय की बदलती हुई करवटों को नहीं पहचाना, तो इतिहास के उन वैभवशाली साम्राज्यों की जो हालत हुई, वही एक दिन उसकी भी होगी। अपने ही बोझ के तले इंग्लैंड़ का साम्राज्य धाराशायी हो जायेगा। इसीलिए एक ना एक दिन तो उन्हें भारत छोड़कर जाना ही पड़ेगा, लेकिन जाने से पहले उन्होंने ही भारत में बोये हुए विभाजन के बीज अंकुरित अवश्य होंगे।

कई लोगों का कहना है कि आज़ादी मिलने के बाद काँग्रेस का विसर्जन कर देना चाहिए, वरना अन्य पक्षों का अस्तित्व केवल नाममात्र रहकर यहाँ पर एकपक्षीय सत्ता प्रस्थापित होगी। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूँ। क्योंकि जिस पक्ष ने भारत को आज़ादी दिलवायी, उसे ही भारत को सतानेवाली समस्याओं की भली-भाँति जानकारी रहने के कारण भारत के स्वतन्त्रतापश्चात् के विकास की ज़िम्मेदारी भी उसे ही उठानी चाहिए।

स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए बाहर से, विशेषतः जर्मनी, रशिया और इटली जैसे एकाधिकारशाही रहनेवाले राष्ट्रों से सहायता प्राप्त करने हेतु चल रहे प्रयासों से कइयों को ऐतराज़ है। लेकिन यहाँ पर सोव्हिएट रशिया का उदाहरण आँखों के सामने रखना चाहिए। वहाँ पर भले ही श्रमिकों की कम्युनिस्ट सरकार हो, लेकिन उन्होंने बग़ैर कम्युनिस्ट देशों से सहायता लेने से कभी भी इन्कार नहीं किया। वैसे ही भारत की आज़ादी के प्रति हमदर्दी रहनेवाले अनगिनत लोग विदेश में हैं। उनसे सहायता लेने से हमें इन्कार नहीं करना चाहिए। अपने स्वत्व के साथ समझौता न करते हुए भी हम ऐसी सहायता निश्चित ही प्राप्त कर सकते हैं।

भारत को सबसे अधिक सतानेवाली ग़रिबी इस भीषण समस्या का मुक़ाबला करने के लिए हमें स़ख्त कदम उठाने पड़ेंगे। जमीनदारी को नष्ट करना होगा, सहकार को गले लगाना होगा। औद्योगिक विकास के लिए सरकारी कारखानों का निर्माण करना होगा। लेकिन उसीके साथ शहर और गाँव इनके बीच सन्तुलन बनाये रखने के लिए ग्रामोद्योग को भी प्रोत्साहन देना पड़ेगा। कल आ़जाद भारत को विदेशी निवेश की भी ज़रूरत महसूस होगी। उस वक़्त क़ारोबार की आड़ में अपने स्वार्थ को साधना चाहनेवाले कई लोग यहाँ आयेंगे। हमें इतिहास के पन्नों से सबक सीखना ही चाहिए। अँग्रेज़ भी क़ारोबार की आड़ में ही यहाँ आये थे। इसलिए स्वतन्त्र भारत की विदेशनीति यह स्वाभिमानी होने के साथ साथ व्यवहारी भी रहनी चाहिए।

भारत में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं और अपनी अपनी भाषा का गर्व हर एक को रहता ही है। लेकिन कई बार यह दुरभिमान पूरे देश की एकसमान भाषा होने के आड़े आता है। इसलिए एक भाषा ना सही, लेकिन सबके द्वारा स्वीकृत ऐसी एक लिपी का उपयोग शुरू कर देने में कोई आपत्ति नहीं रहनी चाहिए और इस मामले में जागतिक दर्जे की रोमन लिपी का उपयोग करना ठीक रहेगा ऐसी मेरी राय है।

दरिद्रता, निरक्षरता और बीमारी इनके निर्मूलन के लिए हमें नियोजन के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। इसके लिए विशिष्ट कालावधि के बाद गत वर्षों का लेखाजोखा ध्यान में रखकर अगली योजना बनाने के लिए स्वतन्त्र नियोजनमण्डल की स्थापना करनी चाहिए। लेकिन फ़िलहाल तेज़ी से बढ़ रही आबादी को यदि क़ाबू में नहीं किया गया, तो किसी भी प्रकार का नियोजन क़ामयाब नहीं होगा, यह भी मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।

सबसे अहम बात यह है कि इन योजनाओं को समाज के पिछड़े वर्ग तक पहुँचाने के लिए, अँग्रेज़ों द्वारा बनायी गयी ब्युरोक्रसी की फ़ौलादी चौखट की असंवेदनशील मानसिकता को बदलना ज़रूरी है।

अन्त में उन परमेश्वर से यही प्रार्थना है – हमें गाँधीजी का सान्निध्य और आशीर्वाद भविष्य में कई वर्षों तक प्राप्त होता रहे। हम केवल भारत की आज़ादी के लिए नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि अखण्ड मानवता की स्वतन्त्रता के लिए जूँझ रहे हैं। इस कार्य में उन महात्मा के आशीर्वाद के कवच का हमारे पास होना बड़ा ही ज़रूरी है। वंदे मातरम्!’

इन क्रान्तिकारी विचारों से भरा यह भाषण दरअसल किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र की नीति कैसी होनी चाहिए, इस बारे में मानो त्रिकालाबाधित ‘गाईडलाईन’ ही है। आगामी समय की कसौटी पर खरा उतरा, लेकिन उस समय पूरी तरह नये विचारों को प्रस्तुत करनेवाला अपना यह भाषण समाप्त करके सुभाषबाबू जब अपने आसन पर विराजमान हो गये, तब तालियों की कड़कड़ाहट और जयकार के नारे बहुत देर तक रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

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