७२. भविष्य में इस्रायल की ‘पहचान’ बने प्रयोगः ‘मोशाव्ह’; ‘टॉवर अँड स्टॉकेड’

पॅलेस्टाईन में बड़े पैमाने पर स्थलांतरित होनेवाले ज्यूधर्मियों के पास कुछ ख़ास पैसा न होने के कारण अलग-अलग, स्वतंत्र ख़ेती करना उनके लिए मुमक़िन नहीं था। साथ ही, यहाँ के स्थानिक अरब भी उनके विरोध में थे। इस कारण एकसाथ ही रहना और पेट पालने के लिए एकसाथ ही कुछ व्यवसाय करना उनके लिए आवश्यक था। ज्यूधर्मीय बतौर एक समाज रहें इसलिए ही ‘किब्बुत्झ’ यह आदर्शवादी संकल्पना सामने आयी थी।

लेकिन यह संकल्पना हमेशा ही प्रत्यक्ष रूप में सफल हुई ऐसा नहीं। किब्बुत्झ के सदस्यों के पास पैसे ही न होने के कारण सबका निवेश शून्य था, अर्थात् ‘समान’ थी, यह सच था; मग़र मेहनत तो अपनी अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार कम-ज़्यादा होती ही थी। लेकिन ‘किये हुए काम के अनुपात में वेतन’ यह तत्त्व यहाँ नहीं था; दरअसल किये हुए काम का वेतन पैसों में मिलता ही नहीं था, बल्कि सदस्यों की तथा उनके परिजनों की रोटी-कपड़ा आदि सभी आवश्यक ज़रूरतों की आपूर्ति किब्बुत्झ में से ही की जाती थी।

‘मैं ज़्यादा मेहनत करता हहूँ, वह कम मेहनत करता है, मग़र फिर भी दोनों को समान फल; यह मुझपर अन्याय है’ ऐसे ‘कॅपिटलिस्ट’ माने गये सन्देह धीरे धीरे कइयों के मन में आने लगे। उसपर कुछ समय बाद हल निकला ‘मोशाव्ह’ का; जिसमें पूँजीवादी तथा समाजवादी ऐसी दोनों विचारधाराओं के सुवर्णमध्य को साध्य करने का प्रयास किया गया था।

यानी ‘मोशाव्ह’ यह भी अधिकांश रूप में किब्बुत्झ जैसी ही संकल्पना थी – केवल फ़र्क़ इतना ही था कि मोशाव्ह में समायिक ज़मीन जोतनी न होकर, प्रत्येक सदस्य के हिस्से समान आकार का ज़मीन का टुकड़ा आता था, जिसपर और उसमें उगे अनाज पर उस उस सदस्य की मालिक़ियत मानी जाती थी, फिर चाहे वह उसे अपने परिवार के लिए रखें या बाहर बेचकर पैसा कमाये; वह उसका व्यक्तिगत प्रश्‍न था। लेकिन संसाधन केवल समायिक होकर, सभी सदस्य समान रूप में उनका इस्तेमाल करते थे। मोशाव्ह का नियंत्रण उनमें से चुने सदस्यों की केंद्रीय समिती के पास होता था, जिसके फैसलें सभी के लिए बंधनकारक होते थे। लेकिन मोशाव्ह के प्रशासकीय एवं अन्य खर्चों की आपूर्ति करने के लिए सदस्यों को कुछ कर केंद्रीय समिती के पास जमा करने पड़ते थे। आगे चलकर इस्रायल स्वतंत्र होने के बाद ज्यूधर्मियों के जो रेले इस्रायल में स्थलांतरित होने लगे, वे बहुत ही अलग माहौल से आये थे और उन्हें ‘कम्युनिटी लिव्हिंग’ का कुछ भी अनुभव नहीं था। अतः ‘किब्बुत्झ’ में छोटी छोटी बातों को लेकर एक-दूसरे के साथ समझौता करना उनके लिए बहुत ही मुश्किल साबित होता। लेकिन तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार और उपलब्ध संसाधनों के अनुसार ‘कम्युनिटी लिव्हिंग’ के अलावा उनके पास और कोई चारा ही नहीं था। इस कारण ऐसे लोगों में ‘सेमी-कम्युनिटी लिव्हिंग’ ऐसा ‘मोशाव्ह’ का विकल्प लोकप्रिय साबित हुआ।

जॅझरेल घाटीस्थित ‘नाहालाल’ में सन १९२१ में शुरू किया गया पहला मोशाव्ह

पहला मोशाव्ह जॅझरेल घाटीस्थित ‘नाहालाल’ मेें सन १९२१ में ही शुरू हुआ था। साढ़ेआठ वर्ग किलोमीटर की व्याप्ति की ज़मीन पर निर्माण किये गये इस मोशाव्ह की रचना दूरदृष्टि से की गयी होकर, वह वर्तुलाकार थी। उसमें केंद्रस्थान में गोलाकार की परिघी पर सभी सदस्यों के घर और अन्य प्रशासकीय ईमारतें एक-दूसरी से सटी हुईं ऐसीं बाँधीं गयीं थीं, जिन्हें ‘गोलमेज़’ (‘राऊंड टेबल’) के तत्त्व पर बाँधा गया था – अर्थात् सभी सदस्यों को समान महत्त्व – ना कोई बड़ा, ना कोई छोटा।

उस परिघी के बाहर इन सभी सदस्यों को खेती करने के लिए बाँटे हुए ज़मीन के टुकड़ें आरेखित किये गये थे। उनकी रचना केंद्रस्थान में से चारों ओर बाहर फेंके जानेवाले किरणों की तरह की गयी थी। इस कारण, ऊपर से देखने पर इस मोशाव्ह का आकार किसी ‘तीलियाँ होनेवाले पहिये जैसा’ (‘स्पोक्ड व्हील’ जैसा) दिखायी देता था।

‘टॉवर अँड स्टॉकेड’ प्रकार की बस्तियों की साधारण संरचना

किब्बुत्झ और मोशाव्ह में शुरू शुरू में हालाँकि केवल ‘ख़ेती’ इस उपजीविका-साधन को केंद्रीभूत मानकर उनका गठन किया गया था, मग़र फिर भी उनमें समय के अनुसार ख़ेती के अलावा अन्य उद्योगधंधों को भी बढ़ावा दिया गया था।

आगे चलकर जब स्वतंत्र इस्रायल राष्ट्र का जन्म हुआ, तब उसमें भी इन किब्बुत्झ एवं मोशाव्ह को अहम स्थान था….आज भी है! स्वतंत्र इस्रायल की स्थापना के समय इस नये राष्ट्र की सीमारेखाओं को सुनिश्‍चित करने के लिए प्रायः इन किब्बुत्झ एवं मोशाव्ह का ही आधार लिया गया था, क्योंकि ज्यूधर्मियों की अखंड बस्ती इन दो प्रकारों में ही पायी जाती थी। आज के दौर में भी इस्रायल में लगभग २६५ से भी अधिक किब्बुत्झ और ४४५ से भी अधिक मोशाव्ह अस्तित्व में हैं।

सन १९३६-३९ के दौरान अरब दंगों के समय इन बस्तियों ने एक और नया रूप धारण किया – ‘टॉवर अँड स्टॉकेड’ अथवा ‘वॉल अँड टॉवर’ बस्तियाँ!

जब इन दंगों के समय अरब दंगेखोरों द्वारा किब्बुत्झ-मोशाव्ह के निवासियों पर हमले किये जाने लगे, तब उसके लिए फ़ौरन कुछ ठोस करना आवश्यक प्रतीत होने लगा। उसपर फिर इस ‘टॉवर अँड स्टॉकेड’ का उपाय खोजा गया। इसमें इन बस्तियों में एक ‘टोह मनोरा’ (‘वॉच टॉवर’) और बस्तियों की चहुँ और चहारदीवारी का निर्माण किया गया। उस दौर में हालाँकि ब्रिटिशों की नीति ‘अरब-परस्त’ थी और उस कारण ज्युईश स्थलांतरण पर कड़ी पाबंदियाँ थीं, फिर भी अरब दंगेखोरों से ज्यूधर्मियों की रक्षा हों, इस हेतु से ब्रिटीश प्रशासन ने इन निर्माणकार्यों को अनदेखा कर दिया। मज़े की बात यह है कि यह नज़रअन्दाज़ी करने के लिए, पूर्व के ऑटोमन साम्राज्य के एक पुराने क़ानून का आधार लिया गया था, जिसमें – ‘कोई निर्माणकार्य हालाँकि ग़ैरकानूनी भी हो, मग़र फिर भी यदि उसके निर्माण की प्रगति छत डालने तक हुई हो, तो उसे गिराया न जायें’ ऐसा प्रावधान था।

अरब दंगों से ज्यूधर्मियों की रक्षा करने हेतु, ब्रिटिशों द्वारा निर्माण किया गया ज्यूधर्मियों का पुलीसदल ‘नॉट्रिम’

प्री-फॅब्रिकेटेड लकड़ी के मोल्ड्स का इस्तेमाल कर तेज़ी से चहारदीवारी खड़ी की जाती थी और उनमें कंकर-रेती आदि भरी जाकर उनकी चहुँ ओर ‘वायर फेन्सिंग’ किया जाता था। इसी प्रकार टोह मनोरा बाँधा जाता था। ऐसी प्रत्येक बस्ती से थोड़ी ही दूरी पर अगली बस्ती का निर्माण किया जाता था। अखंडित व्याप्ति होनेवालीं अधिक से अधिक ज्यू-बस्तियाँ बनने में इस नीति की सहायता हुई। सन १९३६ से १९३९ इस कालावधि में ऐसीं लगभग ५७ ‘टॉवर अँड स्टॉकेड’ बस्तियों का निर्माण किया गया।

इस उपाययोजना के साथ ही, अरब दंगों से ज्यूधर्मियों की रक्षा करने हेतु ब्रिटिशों ने ‘नॉट्रिम’ इस ज्यूधर्मियों के पुलीसदल का निर्माण किया था, जिसमें अधिकांश सदस्य ज्यूइश स्व-रक्षा दल ‘हॅगाना’ से चुने गये थे। इन्हें शुरुआती दौर में, ब्रिटिशों के लिए कुछ ख़ास उपयोग न होनेवालें पुराने शस्त्र दिये गये थे। लेकिन बाद के समय में दंगों का ज़ोर बढ़ने के बाद उन्हें आधुनिक शस्त्रास्त्र देने ही पड़े, जो आनेवाले कठिन समय में उनके काम आये।

इस प्रकार ये सारे घटनाक्रम उसके बाद के कुछ सालों में ही इस्रायल को स्वतन्त्रता प्रदान करने में अपनी अपनी भूमिका अदा करनेवाले थे…(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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