कृष्णमेघ कुंटे भाग – १

वास्तविक तौर पर मेरा समय व्यतीत हो रहा था, परन्तु दिमाग में कुछ चल रहा था। आस-पास कुछ कर दिखाने योग्य नज़र नहीं आ रहा था, फिर भी मन में होने वाले विश्वास की पकड़ ढीली नहीं पड़ी थी। दसवी में गणित एवं बारहवी में रसायनशास्त्र इन विषयों में मैं केवल बोर्ड की कृपा से पास हो गया। कॉलेज़ में अधूरी पढा़ई के कारण रसायनशास्त्र में प्रथम वर्ष में फेल हो गया। हमारी अपेक्षा कॉलेज़ एवं शिक्षकों को हमारे पास होने की चिंता अधिक है ऐसा लगता था; पर उन्होंने भी अंगूठा दिखा दिया। उनके पास मेरे समान शरारती एवं हाथ से निकल चुके विद्यार्थी को सही मार्ग पर लाने के लिए वही उपाय था। उस वक्त शिक्षा का एक वर्ष यूं ही बर्बाद हो गया। इसके पश्चात शिविरों में शैक्षणिक शास्त्रीय लेक्चर देने वाले डॉं. मिलिंद वाटवे सर ने एक फेल होनेवाले विद्यार्थी को जंगल में भेज दिया। डॉ. वाटवे को सस्तन प्राणी एवं उन प्राणियों में होनेवाले परजीवी जंतुओं पर अध्ययन कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई थी। फिर भी जंगली हाथी एवं जंगली कुत्तों के पेट में होनेवाले जंतुओं एवं उनके इन जंगली हाथियों तथा जंगली कुत्तों पर होनेवाले परिणामों का अध्ययन कर भली-भांति जानकारी हासिल करने के लिए उन्हें इसी प्रकार के सिरफिरे व्यक्ति की आवश्यकता थी और मुझे भी एक वर्ष व्यर्थ गवाने की बजाय उसे उपयोग में लाना था। यह पूरा वर्ष मैं अपने प्रिय जंगल में अपने प्रिय प्राणियों के बीच बितानेवाला था। संक्षेप में कहें तो मुझे अपने नियोजित किए हुए भविष्य की योजना का अनुभव लेना था। सही मायने में देखा जाए तो एक सिरफिरे लड़के के जीवन का नैसर्गिक चित्र हमारे समक्ष शब्दांकित किया है, डॉ. कृष्णमेघ कुंटे ने।

तितलयों के संशोधन में व्यस्त रहनेवाले कृष्णमेघ कुंटे का प्रवास काफी अनोखा है। ‘फ्रेंड्स ऑफ ऍनिमल्स’ संस्था के माध्यम से अंदमान में पहली बार ही एक नैसर्गिक शिविर के लिए जानेवाला यह शहरी विद्यार्थी छ्ठी कक्षा में पढ़ रहा था। पिता देर रात घर आते या अधिकतर परदेश में ही रहा करते थे। मां और दादी एक बड़े मंदिर के काम में सुबह से शाम तक लगी रहती थीं। बच्चे पर ध्यान रखने वाला वैसे विशेष कोई भी नहीं था। फिर यह लड़का अपने मित्रों के साथ सारे गांव में कुछ न कुछ करामात किया करता था, जैसे पेड़ों से फल तोड़ना, मरे हुए जानवरों को देखने जाना और यदि कुछ काम न हो तो सायकिल के टायर को लकडी़ से भगाने का खेल खेलना। पूना के घर के आस-पास तितलियां पकड़ते फिरना, टिड्डों को पकड़कर उन्हें माचिस के डिब्बे में रखना, साथ ही घर के पिछ्वाड़े के लताओं-पौधों आदि पर बैठी तितलियों एवं मख्खियों आदि का निरीक्षण करना इस प्रकार के कार्य में जुटे रहना। कुछ नैसर्गिक शिविरों में जाने के बाद कृष्णमेघ को ऐसा प्रतीत हुआ कि निसर्ग के बिना अपने जीवन के कोई मायने नहीं और उन्होंने वहीं से निश्चय कर लिया कि अब केवल निसर्ग के सान्निध्य में रहकर ही पशु-पक्षियों के संबंध में काम करना है।

एक दिशाहीन दौर भी कृष्णमेघ कुंटे के जीवन में आ गया। कॉलेज़ में तो उसमें और भी अधिक गति आ गई। कॉलेज़ और वहां का अध्ययन ये सभी बातें कृष्णमेघ के लिए गौण ही रहीं। स्वाभाविक है कि ‘परीक्षा में यदि ३४-४० प्रतिशत अंक भी मिल जाते हैं तो कोई बात नहीं, परन्तु तुम्हें अपना स्वयं का एक अलग प्रकार का अस्तित्त्व स्थापित करना है’ ऐसा कृष्णमेघ के पिता का कहना था और साथ ही प्रोत्साहन भी हुआ करता था। बच्चों की दसवी-बारहवी की परीक्षा मानों उनके जीवन-मरण का प्रश्न रहता है, इस दौरान उनका घूमना-फिरना, हंसना-खेलना आदि सब बंद कर दिया जाता था। खास तौर पर डॉक्टर-इंजीनियर बनाने की इच्छा रखनेवाले अभिभावकों की तरह वे नहीं थे। जो चाहे, जब चाहे, जहां चाहे करने की स्वतंत्रता देने वाली मां थी। तंबू, दूरबीन, केमेरा आदि वस्तुएं देकर अकेले ही उन्हें जंगल में खतरनाक स्थान पर भेजनेवाले अभिभावक भी दुनिया से कुछ अलग ही थे इसमें कोई शक नहीं। कृष्णमेघ कुंटे का स्वयं ही ऐसा कहना है कि मेरे अंदर निसर्ग प्रेम की जो ज्वाला थी उसे यदि आंच न मिली होती तो शायद आज मैं किसी क्लर्क आदि के रूप में कहीं नौकरी कर रहा होता परन्तु उसमें मेरा मन नहीं रमता।

‘फ्रेंडस ऑफ ऍनिमल्स’, ‘वाइल्ड लाइफ इंडिया’, ‘विश्व प्रकृति निधि’ इस प्रकार की अनेक संस्थाओं के साथ कृष्णमेघ ने संपर्क रखा। इस प्रवास में मिलनेवाले अनेक दिग्गजों की ओर से समय-समय पर एकलव्य के समान प्रेरणा लेते हुए मागई के जंगल में कृष्णमेघ दाखिल हुए। अब वे एक संशोधक के रूप में थे, साथ ही उस जंगल के अद्‍भुत ऐसे वातावरण में विविध प्रकार के जंगली जानवर, पथिक आदिवासी, निरीक्षक, प्राणियों का पीछा करनेवाले, वनस्पतियां, जंगली कुत्ते, गांधीलमख्खियां, पक्षी, मेंढ़क एवं रेंगने वाले प्राणियों का संशोधन करनेवालों का समूह, रसोइया, हर काम करने वाला सहायक ऐसे लोगों के साथ काम करने का एक अखंड ऋतुचक्र (९४-९५) जंगल में घर बनाकर रहने का सुअवसर कृष्णमेघ के पास स्वयं ही चलकर आया था।

विल्यम हॅमिल्टन नामक इस जीवशास्त्रज्ञ ने एक सिद्धांत प्रस्तुत किया था कि परजीवों से लड़ने की क्षमता हर एक प्राणियों की भिन्न-भिन्न होती है तथा यह रोगप्रतिकारक क्षमता गुणसूत्रों से संबंधित होने के कारण कुछ प्राणी जन्मजात तौर पर रोगों का प्रतिकार करने में सक्षम होते हैं और जो इस मामले में अकार्यक्षम होते हैं उन्हें परजीवियों से सतत बाधा होती है इससे वे बीमार पड़ते रहते हैं। अब हाथी की रोगप्रतिकार शक्ति की जांच करने के लिए उसके मल (विष्ठा) को मसलना ज़रूरी होता है। हाथी के लीद के आधार पर ही उनके पेट में होनेवाले जंतुओं एवं परजीवियों के अंडे बाहर निकलते हैं। हाथियों की ताजी विष्ठा एवं सूंड की जांच करने का काम कृष्णमेघ का था। हाथी की सूंड की लम्बाई को नापने और ताजी विष्ठा प्राप्त करने हेतु वे हाथी के पीछे जाते थे। इस कार्य हेतु उन्हें इंतजार करना ज़रूरी था। गिरे हुए मल में से थोडे से भाग की जांच करने हेतु उसे सूक्ष्मदर्शक के नीचे देखने पर उनमें होनेवाले परजीवी अंडे दिखाई देते और उनके प्रमाण के बारे में जांच की जाती थी। अपना यह काम पूरे विश्वास के साथ करने के कारण ही उनके सर डॉ. वाटणे का अंदाजा सही साबित हुआ और इस कार्य के संबंध में लेख बंगलुरु के ‘करंट सायन्स’ में प्रकाशित हुआ, साथ ही ‘सायन्स’ नाम की विश्वविश्यात मासिक पत्रिका में भी हॅमिल्टन द्वारा इनकी प्रशंसा की गई।

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