कृष्णमेघ कुंटे भाग – २

‘मदुमलाई जाने से पहले १९९४ के जून महीने में हम मित्रों के बीच एक निजी सभा हुई। इस सभा में सभी नौजवान ही उपस्थित थे। कोई वृक्षों से संबंधित, कोई पर्यावरण से, तो कोई सर्प-बिच्छू- सूक्ष्म जीव-जन्तुओं से, तो कोई तितलियों से संबंधित, कोई वन्यजीवों के प्रति अध्ययन करनेवाला तो कोई केवल निरीक्षण करनेवाला। सभी लोगों की अपनी एक अलग ही दिशा थी। कुछ विशेष करने की चाह थी। इसी दिवानगी के शिकार हममें से काफी लोग कॉलेज़ की कुछ परीक्षाओं में हारे हुए ग्रेस मार्क लेकर संभल निकलनेवाले भी थे। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस सभा में यह निर्णय लिया गया कि हम लोग जो कुछ भी करने जा रहें है वह कुछ अलग ही है। यह आवश्यक तो है ही साथ ही यह हमारी इच्छानुरूप है। अपने इस स्वप्न के साथ, विचारों के साथ तिलमात्र भी विद्रोह नहीं करना है। अपने जीवन को लकीर का फकीर बनकर नहीं बल्कि एक अनोखे प्रकार से समृद्ध रूप में जीने का सन्तोष प्राप्त होना चाहिए। ऐसा कुछ पुरुषार्थ करके दिखाना है, लोगों के प्रति अपना एक आदर्श प्रस्तुत करना है।’ इस तरह से सत्य एवं अर्थपूर्ण शब्दों में अपने स्वयं के जीवन की घटना कृष्णमेघ कुंटे ने अपनी शोधयात्रा में दर्ज़ की है।

मदुमलाई के एक वर्ष पश्चात इस प्रकार की अनोखी राह पकड़ने वाले कृष्णमेघ कुंटे के जीवन को एक नई अनोखी दिशा प्राप्त हुई। एक अखंड ऐसे जंगल में उन्हें उनकी उड़ान (कल्पना) का साक्षात्कार हुआ। उनके वैज्ञानिक जीवन का लेखा-जोखा आगे बढ़्ता ही चला गया। १९९७ में ‘वाइल्डलाइफ इन्स्टिट्युट ऑफ इंडिया’ देहरादून से वाइल्ड लाइफ सायन्स इस विषय में स्नाकोत्तर शिक्षा प्राप्ति पश्चात कृष्णमेघ ने ऑस्टीन, अमरीका के टेक्सास महाविद्यालय से २००२-२००८ में पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त की। विशिष्ट प्रकार की तितलियों से संबंधित इस संशोधन का विषय था – ‘इवोल्युशन ऑफ सेक्स-लिमिटेड मिमिक्री इन स्वॅलोटेल बटरफ्लाइज़’।

१९९९ से २००० तक कृष्णमेघ ने बंगलौर के ‘इंडियन ऍकॅडमी ऑफ सायन्स’ एवं ‘इंडियन इंस्टिट्युट ऑफ सायन्स इकोलॉजिकल सेंटर’ में संशोधक का काम किया। १९९४-१९९६ के दरमियान ‘पेनेनस्युलर इंडियन बटरफ्लाइज’ नामक विषय पर लिखने के लिए उनकी नियुक्ति की गई। २०००-२००२ इस दौरान पूना के ‘आबासाहेब गरवारे कॉलेज़ एवं लाइफ रिसर्च फाऊंडेशन’ यहां पर भी इन्हें संशोधन हेतु सदस्यत्व प्राप्त हुआ। २००२-२००३ इन वर्षों में ‘वर्ल्ड हेरिटेज बायोडायवर्सिटी’ नामक इस उपक्रम के सलाहगार के रूप में भी कृष्णमेघ की नियुक्ति हुई थी। डॉक्टरेट की उपाधि के पश्चात के संशोधन हेतु कृष्णमेघ को हार्वर्ड महाविद्यालय से (अमरीका) सदस्यत्व प्राप्त हुआ है। टेक्सास महाविद्यालय में विकसनशील जीवशास्त्र, उत्पत्तिशास्त्र एवं निसर्गशास्त्र आदि विषयों के अध्यापन का अवसर भी कृष्णमेघ को प्राप्त हुआ। सबसे भिन्न विषय के इस संशोधनकर्ता को प्राप्त होने वाले पुरस्कार, बक्षीस एवं फेलोशिप इनके नाम भी हमेशा की अपेक्षा भिन्न हैं। भारतीय तितलियों के संशोधन कार्य के प्रति २००० में ‘श्री जयंतराव तिलक’ पुरस्कार, २००६-२००७ में ‘हर्टमन मेरिट फेलोशिप’ कृष्णमेघ कुंटे को ऑस्टिन के टेक्सास महाविद्यालय की ओर से प्राप्त हुआ है। इसके साथ ही २००६ में ‘लेपिडॉप्टेरा रिसर्च फाऊंडेशन’ की ओर से होवॅनिट्झ मेमोरियल पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हुआ।

‘द हैंडिकॅप प्रिंसिपल -अ मिसिंग पीस ऑफ डार्विन्स पझल’ एवं ‘मेजरिंग बायॉलॉजिकल डायवर्सिटी’ इन पुस्तकों की न्यूयॉर्क के करंट सायन्स नामक इस मासिक पत्रिका में परीक्षण लिखने का सुअवसर भी कृष्णमेघ को प्राप्त हुआ है।

एशियन मेनिलेड्स स्वॅलोटेल बटरफ्लाईज़ की उत्पत्ति एवं विकास आदि विषयों पर फिलहाल कृष्णमेघ का संशोधन कार्य चल रहा है।

निर्भयता, साहसिक एवं समर्पित वृत्ति इन गुणों के कारण, अपनी राह स्वयं बनाने की महत्त्वाकांक्षा के कारण असफलता पर भी विजय प्राप्त कर, एक सामान्य मनुष्य के रोजमर्रा के जीवन की अपेक्षा एक अनोखा शौक रखने वाले डॉ. कृष्णमेघ कुंटे की यह शोधयात्रा वन जीवन की जानकारी हासिल करने की दिवानगी रखने वाले दिवानों को स्फूर्ति देती रहेगी।

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