आधुनिक वैद्यकशिक्षा के प्रणेता सर विल्यम ऑस्लर (१८४९-१९१९ )

‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’ चार वर्ष पूर्व भारत में प्रदर्शित हुई इस फिल्म ने वैद्यकीय व्यवसाय से संबंधित घटनाओं का हास्यात्मक (कॉमेडी) रूप से चित्रण करके लाखों लोगों को खूब हँसाया। उसी समय भारत के वैद्यकीय व्यवसायिकों ने उस पर नाराज़गी व्यक्त की थी। भारत के अस्पताल और डॉक्टरों का गलत चित्रण उसमें किया गया है, ऐसा उनका आरोप था। किंतु सर्वसाधारण दर्शक को उसमें कुछ अलग नहीं लग रहा था। इतना ही नहीं बल्कि वैद्यकीय व्यवसाय के कुछ ज्येष्ठ तज्ञों ने इस चित्रपट के अंत में दिए गए संदेश की प्रशंसा की थी।

sir-william-osler- विल्यम ऑस्लरडेढ़ सौ वर्ष पहले की परिस्थिति इससे अलग थी। वैद्यकीय शिक्षा लेनेवालों को व्याख्यान और पुस्तकीय ज्ञान के अलावा अध्ययन करने के लिए दूसरा कोई पर्याय नहीं था। किंतु उन्नीसवी सदी (शतक) में जन्में विल्यम ऑस्लर इस वैद्यकीय तज्ञ ने इस परिस्थिति में क्रांति लाकर वैद्यकीय शिक्षा को एक नयी दिशा दी।

कनाडा के टोरेंटो के पास के ‘बॉन्ड हेड’ के गाँव में १२ जुलाई, १८४९ में विल्यम ऑस्लर का जन्म हुआ। एक होशियार विद्यार्थी और एक उत्कृष्ट खिलाड़ी के रूप में मशहूर विल्यम के पिता स्वयं मिशनरी थे। उन्होंने अपने बेटे को भी धर्मोपदेशक बनाकर चर्च की सेवा के लिए भेजने का निश्‍चय किया था। किंतु ‘रिलीजिओ मेडिसी’ यह पुस्तक पढ़ने के बाद उन्होंने अपना विचार बदल दिया।

टोरँटो मेडिकल स्कूल में ज्येष्ठ वैद्यकीय तज्ञ सर थॉमस के द्वारा ऑस्लर को महत्वपूर्ण मार्गदर्शन मिला। मनुष्यों के प्रति आस्था और आत्मीयता, स्वयंनियंत्रण और ईमानदारी से काम करने का निश्‍चय इन गुणों की अमानत ब्राऊन के द्वारा स्वीकार करके विल्यम उम्र के २३ वें वर्ष में वैद्यकीय पदवीधर बने। उसके बाद यूरोप और ब्रिटन की वैद्यकीय संस्था में प्रवेश पाने के बाद विल्यम ने अधिकांश समय लंडन के जॉर्ज बर्डन सेंडरमन इस शरीर क्रिया विज्ञान (फिजिओलॉजी) प्रयोग शाला में संधोधन करने में बिताया।

इस दरम्यान विल्यम ने रक्तपरीक्षण के अध्ययन की शुरुआत की। रक्त में लाल व सफेद ये  दो ही प्रकार के रक्तकण होते हैं, यह उस समय  तक माना जाता था। इन दोनों के अलावा तीसरे प्रकार की भी एक पेशी रक्त में होती है, यह भी विल्यम ने अपने संशोधन द्वारा खोज निकाला। इन पेशियों को ही आगे चलकर प्लेटलेट्स (बिंबिका) ऐसा नाम दिया गया। ‘ऑस्लर नोड्स’ और ‘रेन्डु ऑस्लर वेबर डिसिज’ इन रोगों की खोज भी ऑस्लर ने की।

सिर्फ २५ वर्ष की उम्र में मॅकगिल विद्यापीठ में वैद्यकीय विभाग के प्रमुख के रूप में ऑस्लर की नियुक्ति हुई। उसी के साथ-साथ माँट्रियल जनरल हॉस्पिटल में पॅथालॉजिस्ट और फिजिशियन के रूप में भी उन्होंने काम किया। फिलाडेल्फिया में कार्यरत काल में उन्होंने ‘असोसिएशन ऑफ अमेरिकन फिजिशियन’ नाम की संस्था की स्थापना की। बाल्टिमोर के ‘जॉन हॉपकिन्स मेडिकल स्कूल’ की संस्था को प्रसिद्धि और आकार देने में उनका बहुत बड़ा योगदान था।

इसके अलावा विल्यम ऑल्सर ने वैद्यकीय शास्त्र को दो महत्त्वपूर्ण योगदान दिए। उसमें पहला है- १८९२ में प्रसिद्ध उनकी पुस्तक ‘प्रिन्सिपल अ‍ॅन्ड प्रॅक्टिस ऑफ मेडिसीन’। शास्त्रीय ज्ञान को साहित्य की गहराई देकर सिखी गई पुस्तक को दुनियाभर के वैद्यकीय शिक्षण का अभ्यास करनेवाले विद्यार्थियों ने बेहद पसंद किया। आज एक शतक बीतने के बाद भी वैद्यकीय शिक्षण लेनेवाले लाखों विद्यार्थी बड़े प्यार से इस पुस्तक का उपयोग करते हैं।

इस पुस्तक के साथ ही डॉ. ऑल्सर ने वैद्यकीय शिक्षण को दिया हुआ महत्त्वपूर्ण योगदान है, शिक्षण के स्वरूप में किया गया आमूलाग्र परिवर्तन। पहले के समय वैद्यकीय शिक्षण वर्ग में ही चलता था। सिर्फ वर्ग में बैठकर नोट्स लेना और उपदेशात्मक व्याख्यान सुनना इतनी मर्यादा में ही यह शिक्षण चलता था, जिसके कारण रोग के बारे में रहने वाला ज्ञान बस पुस्तकीय होने तक सीमित हो जाने का धोखा जानकर हल्काफुल्का माहौल निर्माण करके ऑस्लर छात्रों को रुग्ण कक्ष में ले गए। उन्होंने पुस्तकीय ज्ञान को व्यवसाय से जोड़कर वैद्यकीय विद्यार्थियों को तज्ञ के रूप में आगे के जीवन के लिए तैयार किया। आज सामान्य अस्पताल में ‘रेसिडंट डॉक्टर’ के रूप में पहचाने जानेवाली संकल्पना की नींव डॉ. ऑस्लर ने डाली। इसीलिए अस्पताल के साथ ही वैद्यकीय तज्ञों की और पर्याय से शास्त्र की प्रगति करने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स और ब्रिटन के ऑक्सफर्ड विद्यापीठ में वैद्यकीय विभाग के प्रमुख के रूप में काम करते हुए ऑस्लर द्वारा सिखायी हुई और कही हुई बातें आगे चलकर जैसे विद्यार्थियों के लिए ब्रह्मवाक्य साबित हुई। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण बातें अर्थात –

१) वैद्यकीय शास्त्र यह विज्ञान होते हुए भी वैद्यकीय व्यवसाय यह इस शास्त्र पर आधारित कला है।
२) आनेवाला प्रत्येक रोगी यह सिर्फ रोगी न होकर उस रोग से त्रस्त मनुष्य है, यह नहीं भूलना चाहिए।
३) मनुष्यता ही वैद्यकीय व्यवसाय की नींव है।
४) हमेशा ज्ञान ग्रहण की रुचि रखना।
५) जो काम करे उसे अचूकता से करने का प्रयत्न करें।

ऑक्सफर्ड में सन् १९०५ में ‘रेगिस चेयर ऑफ मेडिसीन’ इस सर्वोच्च पद के सूत्र उनकों सौंपे गए। उनका वहाँ का निवास घर यह विद्या का मायका बन गया। जग के कोने-कोने से विद्यार्थी, शास्त्रज्ञ उनके यहाँ ज्ञानार्जन के लिए आते थे। विद्यार्थी ही उनके केन्द्रबिन्दु थे। उन्हें सन् १९११ में सम्मान से ‘सर’ की उपाधि दी गई।

जीवन के अंतिम समय में कुछ वर्ष ऑस्लर ने ऑक्सफर्ड में बिताए। ब्रिटन में वैद्यकीय तंज्ञों की संघटना की स्थापना करने के लिए उन्होंने अगुआई की। सर विल्यम ऑस्लर का दिनांक २९ दिसम्बर सन् १९१९ के दिन न्युमोनिया की बीमारी से निधन हो गया।

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