क्रान्तिगाथा-७६

‘स्वराज्य पार्टी’ के स्थापनाकर्ताओं में एक और महत्त्वपूर्ण नाम था – मोतीलाल नेहरू का। मई १८६१ में उनका जन्म हुआ। कानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद उन्होंने वकालत करना शुरू कर दिया और वे एक मशहूर वकील बन गये।

शुरुआती समय में इंडियन नॅशनल काँग्रेस के माध्यम से कार्य करते हुए दो सालों तक वे इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे।

चौरी चौरा में हुई घटना से स्थगित किये गये असहकार आंदोलन से भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन में एक नया ही मोड़ आ गया। उसके बाद घटित हुई घटनाओं में से एक महत्त्वपूर्ण घटना थी- स्वराज्य पार्टी की स्थापना।

१९२८ में नेहरू रिपोर्ट नाम की एक रिपोर्ट अँग्रेज़ों के सामने रखी गयी। ‘भारतीय अपने देश का कारोबार नहीं चला सकते’, यह अँग्रेज़ों की धारणा थी और कहा जाता है कि यह रिपोर्ट यानी अँग्रेज़ों की उस धारणा को दिया गया जवाब ही था।

केवल भारतीय सदस्यों ने ही इस रिपोर्ट की रूपरेखा बनायी थी और इसके लिए बनाये गये कमिशन के अध्यक्ष थे मोतीलाल नेहरू।

फरवरी १९३१ में उनका निधन हो गया, लेकिन तब तक उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू भी भारत को आज़ादी दिलाने के लिए कोशिशें करनेवाले व्यक्तित्वों में से एक बन चुके थे।

आंदोलन की राह पर से भारतीय स्वतन्त्रता का संग्राम आगे बढ़ रहा था। लेकिन भारत के युवा वर्ग का खून खौल रहा था। ज़ुल्मी अँग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए अधिकांश युवाओं को क्रान्ति का मार्ग पसंद आ रहा था।

१९२३ में ‘स्वराज्य पार्टी’ की स्थापना हो जाने के बाद कुछ युवकों के मन के क्रान्तिकारी विचारों की ज्वालाएँ भड़क उठी थीं और लाला हरदयालजी के मार्गदर्शन में रामप्रसाद बिस्मिल ने शचीन्द्रनाथ संन्याल और डॉ. यदुगोपाल मुखर्जी के साथ एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। इस क्रान्तिकारी संगठन का नाम रखा गया था-‘हिंदुस्थान रिपब्लिकन असोसिएशन (एच.आर.ए)’। इस संगठन के संविधान को पीले रंग के कागज़ पर छापा गया और उसे यलो पेपर कॉन्स्टिट्यूशन के नाम से संबोधित किया गया।

अक्तूबर १९२४ में कानपुर में इस संगठन के सदस्यों की पहली मीटिंग हुई। इसके बाद संन्याल और मुखर्जी इस पार्टी का विस्तार करने के लिए बंगाल लौट आये। फिर कानपुर, बनारस, आग्रा, अलाहाबाद, सराहनपुर, लखनौ, शाहजहानपुर में इस संगठन की शाखाएँ शुरू हो गयीं।

कोलकाता के दक्षिणेश्‍वर और शोवा बज़ार में एवं बिहार के देवघर में बम बनाने के कारखाने शुरू किये गये। दुर्भाग्यवश पुलीस को इस बारे में १९२५ और १९२७ में क्रमशः पता चल गया और जाहिर है कि यह कार्य बंद किया गया।

१९२४-१९२५ के दौरान बड़ी संख्या में भारतीय युवक इस संगठन में शामिल हो गये। इनमें थे चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंग, सुखदेव जैसे क्रान्तिकारी।

संगठन के कार्य के लिए यानी भारत पर रहनेवाली अँग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए ज़रूरी रहनेवाली धनराशि इकट्ठा करने की योजना कार्यान्वित की गयी। लेकिन भारतीयों का धन अँग्रेज़ों की तिजोरी में बंद था। उसे प्राप्त करने के लिए अँग्रेज़ सरकार के खज़ाने पर कब्ज़ा कर लेने के प्रयास किये गये। लेकिन इन कोशिशों में कुछ क्रान्तिकारी पकड़ गये, तो कुछ शहीद हो गये। इस वजह से संगठन का स्वरूप कुछ विश्रृंखलित सा हो गया। फिर संगठन की सुव्यवस्थित रूप से रचना करने काम हाथ में लिया गया।

१९२८ में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में भगतसिंग, सुखदेव और चन्द्रशेखर आज़ाद ने इस क्रान्तिकारी संगठन को पुनः एक बार सुव्यस्थित रूप दिया और अब यह संगठन ‘हिंदुस्थान सोशालिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन (एच.एस.आर.ए)’ इस नाम से जाना जाने लगा। १९२८ से १९३१ तक की अवधि में इस क्रान्तिकारी संगठन ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को तेज़ी से आगे ले जाने का कार्य किया।

जनवरी १९२५ में एच.आर.ए. ने एक घोषणापत्र प्रकाशित किया। उसका नाम था – ‘द रिव्होल्यूशनरी’। यह चार पन्नों वाला घोषणापत्र जान बूझकर अँग्रेज़ी में छापकर भारत के प्रमुख शहरों में जगह जगह बाँटा गया।

इसी घोषणापत्र में विजयकुमार नाम के व्यक्ति द्वारा इस संगठन का उद्देश जाहिर रूप से बताया गया था और अँग्रेज़ी में छापने के कारण वह अँग्रेज़ों को भी पता चलने वाला था। इस घोषणापत्र में छापा गया इस क्रान्तिकारी संगठन का मुख्य उद्देश था, ‘इस देश में रहनेवाले ब्रिटिश सरकार को उखाड फेंकना’। अँग्रेज़ी में होने के कारण क्रान्तिवीरों के हेतु के बारे में अँग्रेज़ सरकार जान ही गयी थी। इसी घोषणापत्र के द्वारा भारत के युवकों को देश को आज़ाद करने के लिए कार्यकारी होने का आवाहन किया गया था।

Leave a Reply

Your email address will not be published.