क्रान्तिगाथा-७०

१९२० का अगस्त महीना शुरू हो चुका था। अगस्त महीने की १ तारीख थी और उस दिन एक बहुत ही दुखद घटना हुई। इस घटना से सारा भारत शोक में डूब गया।

हुआ भी वैसा ही था। १ अगस्त १९२० को ‘लोकमान्य’ इस उपाधि से गौरवान्वित बाळ गंगाधर टिळकजी का स्वर्गवास हो गया। ‘स्वराज्य यह मेरा जन्मसिद्ध हक़ है’ यह अँग्रेज़ सरकार से निर्धारपूर्वक कहनेवाला ‘लोकमान्य’ व्यक्तित्व ईश्‍वर को प्यारा हो गया। भारत को आज़ादी दिलाने के लिए टिळकजी के द्वारा किये गये अपरंपार प्रयास, ख़ास कर ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकडे हुए भारतीय समाज को जागृत करने के लिए उनके द्वारा शुरू किये गये केसरी, मराठा जैसे समाचारपत्र, भारतीय समाज में सामूहिकता का भाव जगाने के लिए शुरू किये गये गणेश-उत्सव एवं शिवजयंती जैसे उत्सव; स्वतन्त्रता के लिए उन्होंने भुगता हुआ कारावास, भारत के आम नागरिक तक पहुँचने के लिए उनके द्वारा शुरू किया गया होमरूल जैसा आंदोलन और इस व्यापक कार्य के दौरान टिळकजी की चल रही ज्ञानसाधना, जो ‘गीतारहस्य’ एवं ‘आर्क्टिक्ट होम ऑफ वेदाज्’ जैसी उनकी ग्रन्थसंपदा से प्रकट हुई थी।

ऐसा यह लोकमान्य एवं लोकोत्तर व्यक्तित्व १ अगस्त १९२० को अपनी मातृभूमि को मुक्त करने का सपना हृदय में लेकर हमेशा के लिए सो गया, भारतीयों से विदा लेकर चला गया।

इसी १ अगस्त १९२० को एक और घटना घटित हुई, जिस घटना ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को एक नयी दिशा दी।

गाँधीजी का नाम अब सबकी जुबान पर था। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में उन्होंने अब महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना शुरू कर दिया था।

१ अगस्त १९२० को घोषणा की गयी, एक अनोखे आंदोलन की। ‘असहकार आंदोलन’-नॉन को-ऑपरेटिव्ह मूव्हमेंट।

रौलेट अ‍ॅक्ट, जालियाँवाला बाग़ जैसी घटनाओं से यह साबित कर दिया था कि अँग्रेज़ खूँख़ारपन की सारी हदें पार कर चुके हैं। भारतीयों के एकजुटता के सामर्थ्य का एहसास कुछ न कुछ करके अँग्रेज़ों को करना ज़रूरी बन गया था। इसीसे जन्म हुआ ‘असहकार आन्दोलन’ का।

‘असहकार’ इस शब्द में ही इस आन्दोलन का अर्थ छिपा हुआ है। अँग्रेज़ सरकार की किसी भी प्रकार से सहायता नहीं करनी है यानी ‘असहकार’।

हालाँकि सरकार अँग्रेज़ों की थी, म़ग़र तब भी सरकार चलाने के लिए जो कुछ करना पड़ता है, वह करनेवाले लोग तो भारत के ही थे। इसलिए भारतीय अब अँग्रेज़ सरकार का कोई भी काम नहीं करेंगे ऐसा इस आंदोलन का स्वरूप था। प्रशासन, यहाँ के क़ायदे-कानून तो अँग्रेज़ों के थे, मग़र प्रशासन चलानेवाले यानी प्रशासकीय कार्य करनेवाले भारतीय ही थे। न्यायसंस्था (कोर्ट) अँग्रेज़ों के कानून (लॉ) के आधार से चलती थी, मग़र कोर्ट में काम करनेवाले अनेक वकील, जज आदि तो भारतीय ही थे। अँग्रेज़ों की शिक्षाप्रणालि भारत में लागू हो चुकी थी, मग़र अनेक अध्यापक और ख़ास कर पढ़नेवाले बच्चे तो भारतीय ही थे।

अँग्रेज़ों की सेना ऐसा भले ही भारत में कहा जाता था, मग़र उसमें भी अँग्रेज़ सैनिकों की अपेक्षा भारतीय सैनिक अधिक थे। भारतीय नागरिकों की बुद्धिमानी, होशियारी देखकर अँग्रेज़ों ने कुछ भारतीयों को कुछ उपाधियाँ, कुछ सम्मान बहाल किये थे। अनेक भारतीय उन सम्मानों को अपने नाम के सामने उपाधियों की (डिग्रीज़ की) तरह लगाते थे, मग़र चाहे जो भी हो वे तो अँग्रेज़ों के द्वारा दिये गये सम्मान थे।

सारांश, राज्य अँग्रेज़ों का होने के बावजूद भी उसे चलानेवाले भारतीय ही थे।

भारत के रूप में अँग्रेज़ों को अपना माल बेचने के लिए बाज़ार ही मिल गया था। ब्रिटन में बननेवाले कपड़ों से लेकर कई चीज़ें भारत के बाज़ारों में अँग्रेज़ बेचा करते थे।

भारत में अँग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय स्वयंपूर्ण जीवन जी ही रहे थे। भारत के दूर देहात के निवासी की भी रोटी-कपड़ा और मकान ये प्रमुख ज़रूरतें पूरी हो ही रही थीं। लेकिन अँग्रेज़ों के एवं उनके माल के आने के कारण भारतीयों की इस स्वयंपूर्ण व्यवस्था पर बहुत बड़ा आघात हुआ था।

भारत के छोटे छोटे उद्योग इससे बंद पड़ गये। अँग्रेज़ों के माल के आने से भारत के गृहउद्योग, लघुउद्योग बंद पड़ गये। इस वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह ढह गयी और अँग्रेज़ों की तिजोरी भरने लगी।

भारत के छोटे-बड़े राज्य खालसा करके अँग्रेज़ वहाँ की बेतहाशा धनदौलत इससे पहले ही नोंच चुके थे।

असहकार-अँग्रेज़ों से असहकार करना यानी किसी भी प्रक्रिया में, फिर चाहे वह प्रशासकीय कामकाज़ हो या न्यायदान का काम हो, या फिर पढ़ने पढ़ाने का काम हो, किसी भी काम में सम्मिलित न होना।

इस तरह असहकार आंदोलन छेड़ देने के कारण अँग्रेज़ यह समझ जायेंगे कि उनकी सारी दारोंमदार दर असल उनके द्वारा ग़ुलाम बनाये गये यहाँ के भारतीयों पर ही है।

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