क्रान्तिगाथा-६५

भारतीयों के द्वारा ‘रौलेट अ‍ॅक्ट’ को ‘काला कानून’ इस नाम से संबोधित किया गया। इसे ‘काला कानून’ इसलिए कहा गया था, क्योंकि वह भारतीयों का सभी प्रकार से अहित करनेवाला था।

दरअसल प्रथम विश्‍वयुद्ध के समय लागू किये गये ‘डिफेन्स ऑफ इंडिया अ‍ॅक्ट’ की मियाद इस महायुद्ध के बाद के छः महीने तक ही थी। इसलिए भारतीयों के स्वतन्त्रतासंग्राम को कुचल डालने के लिए अँग्रेज़ों को फिर एक बार एक नये कानून की ज़रुरत महसूस हो रही थी और ‘रौलेट अ‍ॅक्ट’ का जन्म हुआ।

इस ‘रौलेट अ‍ॅक्ट’ के अंतर्गत मुद्दों के अनुसार ब्रिटिश सरकार के मॅजिस्ट्रेट को कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हुए।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़इन अधिकारों के अनुसार जो भारतीय अँग्रेज़ों को संदेहास्पद कार्य करनेवाला प्रतीत होगा यानी की अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ कार्य करनेवाला और भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए कार्य करनेवाला प्रतीत होगा, तो ऐसे व्यक्ति को २ साल की सजा सुनायी जा सकती थी और महत्त्वपूर्ण बात यह थी की उस व्यक्ति के खिलाफ कोई भी मुकदमा दायर किये बिना ही अर्थात उसकी किसी भी तरह से पूछताछ किये बिना ही उसे जेल में रखा जा सकता था और इसके खिलाफ कही भी अपील करने की छूट उसे नहीं थी।

इसका अर्थ यह है कि किसी भी भारतीय को ब्रिटिश अपनी मर्जी के अनुसार देशद्रोही करार देकर, उसे पकडकर उस पर कोई भी मुकदमा दायर किये बिना ही उसका गुनाह साबित करके उसे सजा सुना सकते थे। कोई भी निर्दोष भारतीय इसके तहत पकडा जा सकता था। इसी कानून के आधार पर अँग्रेज़ सरकार प्रेस पर सेन्सॉरशिप बिठा सकती थी, इसी कानून के तहत लोगों को बिना वॉरंट के अँग्रेज़ सरकार गिरफ्तार कर सकती थी।

भारतीयों पर फिर एक बार अँग्रेज़ों के जुल्म की कुल्हाडी कानून के रूप में टूट पडी थी। भारतीय और भारतीय स्वतंत्रतासंग्राम के अग्रणी इस कानून के विरोध में भड़क उठे और उन्होंने ‘काला कानून’ कहकर इस कानून का विरोध किया और इतनाही करके वे रूके नहीं तो रौलेट अ‍ॅक्ट के विरोध में भड़क उठा जनमत अब सरकार का निषेध करने के लिए सुसज्जित हो गया था। इसके लिए शस्त्र चुना गया – हड़ताल का।

भारतीयों ने अपने सारे व्यवहार बंद रखे और अँगे्रज़ सरकार के द्वारा बनाये गये इस कानून के विरोध में अनशन भी शुरू कर दिया। यही ‘हड़ताल’ का स्वरूप था। इस हड़ताल का अँग्रेज़ सरकार पर अच्छा खासा असर हो रहा है, यह दिखायी दे रहा था। अब फिर एक बार अँग्रेज़ों की समझ में यह आ गया कि बिना शस्त्र लड़नेवाले भारतीयों की ताकत कम नहीं है।

१० मार्च १९१९ में लागू हुए इस कानून का सारे भारतवर्ष में तीव्रता से निषेध किया जा रहा था, मग़र फिर भी पंजाब में यह विरोध बहुत बड़े पैमाने पर किया जा रहा था।

तभी १० अप्रैल को इंडियन नॅशनल काँग्रेस के दो नेताओं को अँग्रेज़ों ने गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें अज्ञात स्थल भेजा गया।

इतिहास कहता है कि भारत के किसी भी इलाके में अँग्रेज़ों के खिलाफ हो रही किसी भी कृति को किसी न किसी मार्ग से अँग्रेज़ कुचल डालते थे। मग़र इसमें भी ग्रामीण इलाक़ों में, ख़ास कर गाँव-देहातों में अँग्रेज़ों के खिलाफ हो रही बग़ावत को रौंद देने के लिए, मसल ड़ालने के लिए अहमियत देते थे।

क्योंकि १८५७ के स्वतन्त्रतासंग्राम के दौर से शायद अँग्रेज़ सबक सीख ही चुके थे। साथ ही भारत के गाँव-देहातों में रहनेवाले लोगों के द्वारा स्वतन्त्रतासंग्राम में दिये गये योगदान को ध्यान में रखकर पहले ग्रामवासी भारतीयों की क्रान्ति का विरोध करने की अँग्रेज़ों ने ठान ली थी।

दरअसल अँग्रेज़ भारत का शोषण कर रहे थे। हालाँकि प्रथम विश्‍वयुद्ध से किसी भी प्रकार से संबंधित न होते हुए भी विश्‍वयुद्ध में इंग्लैंड के शामिल होने के कारण भारत के भारतीय सैनिकों को अँग्रेज़ों के पक्ष में विश्‍वयुद्ध में लड़ना पड़ रहा था और यह मदद महज़ फौज तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि भारतीयों को लेबर-कर्मचारियों के रूप में भी विभिन्न कामों के लिए अँग्रेज़ों ने इस्तेमाल किया था। १३ लाख भारतीय सैनिक और कर्मचारी प्रथम विश्‍वयुद्ध में अँग्रेज़ों के पक्ष में युरोप, आफ्रीका तथा मध्यपूर्व में खून-पसीना बहा रहे थे। ४३,००० भारतीय सैनिक इस प्रथम विश्‍वयुद्ध में मारे गये थे। भारत के रियासतदारों ने अँग्रेज़ों को धनदौलत, अनाज एवं शस्त्र-अस्त्रों की भरपूर मदद की थी। इसी कारण भारतीयों को अँग्रेज़ सरकार से नर्म रवैय्या की अपेक्षा (एक्स्पेक्टेशन) थी। लेकिन वह बेकार गयी। अँग्रेज़ों द्वारा मॉण्टेग्यू-चेम्सफर्ड द्वारा सुझाये गये सुधारों को लागू किया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश इससे भारतीयों की स्थिति में कोई भी बदलाव नहीं हुआ।

अँग्रेज़ हर एक भारतीय को पैरों तले रौंदना चाहते थे, दरअसल यह अपना काम ही है ऐसा उन्हें लग रहा था।

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