क्रान्तिगाथा- १४

भारतीयों को ग़ुलाम बनानेवाले अँग्रेज़ों को शायद लग रहा था कि भारतीयों के रगों में बहनेवाली बहादुरी अब खत्म हो गयी है। लेकिन १८५७ के इस स्वतन्त्रतासंग्राम ने अँग्रेज़ों की इस सोच की धज्जियाँ उडा दी। क्योंकि १८५७ के इस स्वतन्त्रता यज्ञ में एक आम आदमी से लेकर राजा-महाराजाओं तक कई भारतवासी दास्यमुक्त होने के लिए तथा अपने देशवासियों को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में से आज़ाद करने के लिए एक साथ युध्द के मैदान में उतर गये थे और अपनी जान को दाँव पर लगाकर लड रहे थे । भारतीयों की इस अपूर्व ताकद को अँग्रेज़ों ने इसी संग्राम में देखा । १८५७ के इस स्वतन्त्रतासंग्राम में केवल पुरुषों ने ही हिस्सा नहीं लिया था, बल्कि महिलाएँ भी जान की बाज़ी लगाकर लड रही थीं, क्रान्ति को प्रत्यक्ष रूप में उतारने के लिए हर स्तर पर सहयोग दे रही थीं और का़फ़ी सक्रिय रही थीं। इनमें गाँव-देहातों की आम महिलाओं के साथ साथ सिर पर ताज पहनी हुईं राजस्त्रियाएँ भी थीं ।

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इन्हीं स्त्रियों में एक थी, अवध की रानी, जिन्हें ‘अवध की बेगम’ कहा जाता था। उत्तरी भारत को नोंच नोंच कर निगलनेवाले अँग्रेज़ों ने कई इलाक़ों पर कब्ज़ा कर लिया था। इन्हीं में से कुछ इलाक़ों/राज्यों के राजाओं को गद्दी पर बिठाये रखकर उनके अधिकारों को सीमित कर दिया था। लेकिन अँग्रेज़ों ने इन राज्यों के आसपास के प्रदेश कब्ज़े में लेकर वहाँ पर अपना अधिकार और खौ़फ़ इस क़दर स्थापित किया था कि उन राज्यों को वे बडी आसानी से कभी भी निगल सकते थे।

‘अयोध्या’ प्रदेश के साथ भी अँग्रेज़ों ने कुछ ऐसा ही किया था। उसे ‘अवध प्रोव्हिन्स’ यह लुभावना नाम देकर नोंच नोंच कर निगल लिया था। मग़र अवध के नवाब के छोटेसे राज्य को बरक़रार रखा था। यहाँ की दौलत देखकर अँग्रेज़ों का लालच बढता ही जा रहा था और यहाँ के खज़ाने को निगलने की तरक़ीबों के बारे में अब वे सोच रहे थे।

१८५६ में तो अँग्रेज़ खज़ाने को चटक लेने के लिए बेसब्र हो गये थे। जिस राज्य का खज़ाना इतना खचाखच भरा हुआ है, वह पूरी तरह से हमारे कब्ज़े में होना ही चाहिए यह उन्होंने ठान लिया था। १८०१ में अवध प्रदेश के साथ किये गये किसी समझौते कि आड में उन्होंने अवध पर अपना प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित कर दिया। वहाँ के नवाब को बरख़्वास्त करके एकान्त स्थल में कलकत्ता भेज दिया। अब यहाँ पर थीं अवध की रानी और उनका बेटा, जो बहुत ही छोटा था। लेकिन ये अवध की रानी ‘बेगम हजरत महल’ही आगे चलकर अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने के लिए स्वतन्त्रतायुध्द में शामिल हो गयीं और उन्होंने अँग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया।

अँग्रेज़ों के भारत आने से पहले और उसके बाद भी भारत में हज़ारो गाँव थे। इन सब छोटे बड़े गाँवों में रहनेवाले अधिकांश लोगों का और अधिकांश भारतीय नागरिकों का गुज़ारा होता था, खेती से। इन खेतों में काम करनेवाले लोगों का एक वर्ग और खेतों के मालिकों का एक वर्ग । ये मालिक भारत में अधिकतर इलाक़ों में ‘ज़मीनदार’ के रूप में जाने जाते थे। अँग्रेज़ों के भारत आने के बाद जो परिवर्तन हुए थे, उनमें इन ज़मीनदारों के जीवन में भी कई बदलाव आ चुके थे। इस वजह से ये ज़मीनदार भी अँग्रेज़ों की कार्यप्रणाली और नियमों से पूरी तरह परेशान हो गये थे। १८५७ का स्वतन्त्रता यज्ञ जैसे जैसे फ़ैलते गया, वैसे वैसे कुछ ज़मीनदार भी अँग्रेज़ों के खिलाफ़ युध्द करने मैदान में उतर गये ।

इस १८५७ के स्वतन्त्रतासंग्राम की ख़ासियत यह थी कि इस जंग में युध्द कर रहा हर शख़्स देशप्रेम से भारित था, उसके मन में अँग्रेज़ों के खिलाफ़ गुस्से और चीढ की भावना थी और इस भावना ने ही अँग्रेज़ों के खिलाफ़ की गयी इस क्रान्ति में उन्हें शामिल किया। वहीं दुर्भाग्यवश कुछ ऐसे भी लोग थे, जिन्हें अँग्रेज़ों का राज जन्नत जैसा लग रहा था। इसी वजह से ऐसे लोगों ने कई जगह अँग्रेज़ों की सहायता की और उन्हें राज़ की बातें बतायी।

जून के पहले ह़फ़्ते में इस स्वतन्त्रता युध्द ने जब विशाल एवं व्यापक रूप धारण कर लिया था, तब उत्तरी भारत के आसमान में कुछ काले बादल मँडराने लगे थे। इन्हींमें से कुछ काले बादलों ने एकाद दो जगह भारतीयों के मन पर गहरी खरोचें बनायीं ।

बनारस का उबलता पानी तेज़ी से शान्त हो गया, लेकिन इस भूमि के निवासियों तथा भारतीयों के मन पर यहाँ की एक घटना ने का़फ़ी गहरा ज़ख़्म कर दिया। मद्रास के सैनिकों के साथ बनारस आकर दाख़िल हुए जनरल नील ने अमानुषता का क़हर ढाया। बनारस के आसपास के छोटे बडे गाँवों में उसके अँग्रेज़ सैनिक घरों को आग लगाते हुए घूम रहे थे। वे कहीं पर भी जाते थे, वहाँ किसी भी बेगुनाह भारतीय को पकडकर मार डालते थे या अधमरा करके छोड देते थे। कुछ लोगों को पेडों पर फाँसी देकर लटका देते थे और यह सब चल रहा था तब उन बेगुनाहों की चीखें सुनकर और वह सारा नज़ारा देखकर नील और उसके अँग्रेज़ सैनिक बडे ही खुश हो रहे थे ।

बनारस के आसपास के इला़के में क्रूरता का क़हर बरसाकर और खौ़फ़ का अँधेरा फ़ैलाकर जनरल नील इलाहाबाद की ओर आगे बढ गया।

अब दिल्ली की सीमा पर भी हलचल होने लगी थी। दिल्ली के पश्‍चिम में कुछ ही दूरी पर स्थित ’बदली/बुंदेल की सराय’ में अँग्रेज़ों का पहला मोरचा और क्रान्तिकारियों के बीच भिडंत हो गयी। यहाँ पर क्रान्तिकारियों को पिछे दिल्ली तक हटाने में अँग्रेज़ी सेना को क़ामयाबी मिली और एक महत्त्वपूर्ण जगह पर अँग्रेज़ो ने कब्ज़ा कर लिया । कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यहाँ पर ३०,००० क्रान्तिकारी थे, वहीं कुछ की राय में क्रान्तिकारियों की संख्या केवल ४००० ही थी। अधिकतर इतिहासकारों का मानना है कि क्रान्तिकारियों की संख्या बस ४००० के आसपास ही थी।

बिठूर की वह तेजस्वी ज्वाला अब का़फ़ी बडी हो चुकी थी और वही कडकडाती हुई बिजली अब अँग्रेज़ों पर बरसनेवाली थी।

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