क्रान्तिगाथा-६०

कित्तूर यह बहुत बड़ा राज्य नहीं था, मगर फिर भी वैभवशाली राज्य था। कहा जाता है कि वहाँ हिरे, जवाहरातों का व्यापार चलता था। तो ऐसे इस वैभवशाली राज्य पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर नहीं पडती, तो ही आश्‍चर्य की बात थी। जिन अँग्रेज़ों को इस भारत पर अपना एकच्छत्र अमल कायम करना था, उनके लिए तो कित्तूर जैसे वैभवशाली राज्य, फिर वे कितने ही छोटे क्यों न हो, उनपर अपना अमल स्थापित होना, यह बात अँग्रेज़ों के लिए महत्त्वपूर्ण थी।

कित्तूर की रानी द्वारा राज्य के वारिस के रूप में गोद लिये गये पुत्र को ‘कित्तूर राज्य के वारिस’ के रूप में अँग्रेज़ों ने नामंजूर कर दिया था। इसी बीच राजा मल्लसर्जा का भी देहांत हो गया। इसी कारण अब अकेली रानी चेन्नम्मा को ही इस परिस्थिती का सामना करना था। लेकिन अत्यंत शूर और दृढनिश्‍चयी रानी ने इस चुनौती का सामना किया।

यह कित्तूर की रानी अँग्रेज़ों के खिलाफ़ अपने हक़ के लिए तो लड़ रही थी, लेकिन साथही अँग्रेज़ सरकार के ज़ुल्म और दमनचक्र का विरोध करनेवाले हर एक भारतीय के प्रतीक के रूप में भी लड़ रही थी।

दुर्भाग्यवश रानी के द्वारा उसके पुत्र की मृत्यु के पश्‍चात् राज्य के वारिस के रूप में गोद लिये गये पुत्र को अँग्रेज सरकारने नामंजूर कर दिया। क्योंकि अँग्रेज़ों को कित्तूर का राज्य और वहाँ की संपत्ति को हडपना था। लेकिन अकेली रानी ने अँग्रेज़ों के इस निर्णय को चुनौती दी और जंग छिड गयी।

उस समय कित्तूर राज्य के पास हिरे, जवाहरात और तिजोरी का धन मिलाकर १५ लाख के आसपास संपत्ति थी। १९वीं सदी के पूर्वार्ध में इस संपत्ति की किमत तो कई गुना अधिक ही थी।

अँग्रेज़ों ने २०० सैनिकों और ४ तोपों के साथ ४ अक्तूबर १८२४ के दिन कित्तूर पर पहला हमला किया। इस पहले ही हमले में अँग्रेज़ों का कलेक्टर तथा पॉलिटिकल एजंट कित्तूर की फौज द्वारा मारा गया। इस हमले में अँग्रे़ज़ों के कई सैनिक भी मारे गये। साथ ही अँग्रज़ों के दो अफसर भी कित्तूर की फौज की गिरफ्त में आ गये। भारत में स्थित कित्तूर जैसे एक छोटेसे राज्य से पराजित होना यह अँग्रेज़ों के लिए अपमानजनक बात थी और उन्होंने मैसूर और सोलापुर से और सेना को बुलाया और इस सेना की मदद से कित्तूर को फिर से घेर लिया।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़दरअसल कित्तूर पर हुए पहले हमले के वक्त कित्तूर की सेना द्वारा पकडे गये दो ब्रिटिश अफसरों को यदि छोडा जाता है, तो जंग रोकने का आश्‍वासन अँग्रेज़ों ने कित्तूर की रानी को पहले ही दिया था। उसके अनुसार रानी ने उन दो ब्रिटिश अफसरों को छोड दिया था। लेकिन अँग्रेज़ों ने विश्‍वासघात किया। उन्होंने जंग जारी ही रखी।

लगभग १२ दिनों तक रानी लड़ रही थी और कित्तूर को बचाने की कोशिश कर रहीं थीं।

लेकिन दुर्भाग्यवश इस समय रानी को जीत नहीं मिली। अँग्रेज़ों ने कित्तूर की रानी चेन्नम्मा को बंदी बनाकर ‘बैलहोंगल’ के क़िलें में कैद करके रखा। इस रणवीर रानी का इसी कैद में २१ फरवरी १८२९ में देहान्त हो गया। आगे चलकर उसके द्वारा गोद लिये गये उसके बेटे को भी अँग्रेज़ों ने मार दिया और कित्तूर पर कब्ज़ा कर लिया।

रानी के साथ हर बार जी जान से लड़नेवाला उसका सेनापति इसके बाद भी अँग्रज़ोंसे लड़ रहा था। १८३० के आसपास उसे भी बंदी बनाने में अँग्रेज़ कामयाब रहे और आखिरकार उसे भी अँग्रेज़ों ने फाँसी दे दी।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के एक खास पहलू पर अब एक नज़र डालते हैं। इस स्वतन्त्रतासंग्राम में जो लड़े, जो शहीद हो गये, वे सारे के सारे इस भारतीय समाज का ही एक हिस्सा थे। उनमें पुरुष तो थे ही, लेकिन महिलाएँ भी थीं और बड़ी संख्या में युवकों तथा युवतियों का भी समावेश था।

देश को आज़ादी दिलाने के लिए ये सब जब मैदान में उतरे थे, तब आम नागरिकों की तरह उनका भी अपना एक परिवार था, अनेकों के साथ वे विभिन्न रिश्तों से जुड़े हुए थे, उनपर कई ज़िम्मेदारियाँ थीं। लेकिन इनमें से कोई भी बात उनके पैरों को जकड़नेवाली या उन्हें कार्य से परावृत्त करनेवाली ज़ंजीर नहीं बनी थी। इसमें जितना योगदान आज़ादी की जंग के मैदान में उतरनेवालें क्रांतिवीरों का था, उतना ही, दरअसल उससे कुछ अधिक योगदान उस हर एक क्रांतिवीर के परिवार का था। क्योंकि यदि मैं अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण अर्पण कर देता हूँ, तो मेरे बाद मेरे परिजनों का क्या होगा यह विचार आज़ादी के लिए लडनेवालों की दृष्टि में गौण था और यदि मेरा सपूत-सुकन्या देश के लिए बलिदान करते है, तो आगे क्या होगा यह विचार भी मातृभूमि के प्यार के सामने गौण साबित हुआ।

अत एव निरपेक्ष बुद्धि से आज़ादी की जंग लड़नेवाले और निःस्वार्थ मन से जूझनेवाले इन अनगिनत क्रांतिवीरों के जितना ही बहुमूल्य योगदान उनके परिजनों एवं आप्तजनों का भी है।

उसके पुत्र की मृत्यु के पश्‍चात् उसके द्वारा गोद लिये गये उसके बेटे को अँग्रेज़ों ने उस राजगद्दी वारिस मानने से इन्कार कर दिया। कारण एक ही था अँग्रेज़ कित्तूर की राजगद्दी को ओर वहाँ की संपत्ति को हथियाना चाहते थे। लेकिन अकेली रानी ने अँग्रेज़ों के इस फैसले के खिलाफ़ आवाज उठायी और जंग छीड गयी।

अँग्रेज़ों द्वारा किये गये पहले ही हमले में उनका कलेक्टर तथा पॉलिटिकल एजंट कित्तूर की सेना द्वारा मारा गया। अँग्रेज़ों के दो ऑफिसर्स कित्तूर की सेना की गिरफ्त में गये। लेकिन इन दो अफसरों को छोडा जाता है तो युद्ध को रोकने का आश्‍वासन अँग्रेज़ों द्वारा दिया गया। उसके अनुसार रानी ने उन अफसरों को छोड भी दिया, लेकिन अँग्रेज़ों ने विश्‍वासघात किया। उन्होंने युद्ध को जारी रखा।

उस समय रानी उनसे प्रबलता से जूझ रहीं थी। लेकिन दुर्भाग्यवश इस समय रानी को जीत हासिल नहीं हुई। अँग्रेज़ों ने उसे बंदी बनाकर ‘बैलहोंगल’ के क़िले में कैद करके रखा। इस कैद में ही इस वीर रानी का २१ फरवरी १८२९ में अंत हो गया। आगे चलकर उसके गोद लिये गये बेटे को भी अँग्रेज़ों ने मार दिया और आखिर कित्तूर को कब्जे में कर लिया।

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