क्रान्तिगाथा – ४

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हालात काफ़ी मुश्किल बन गये थे। अब भारत में एक भी राज्य ऐसा नहीं था, जिस पर अँग्रेज़ों का कब्ज़ा नहीं था। कुछ जगह अँग्रेज़ों का प्रत्यक्ष राज था, वहीं कुछ पर वे अप्रत्यक्ष रूप से शासन कर रहे थे। अब इन हालातों को न चाहते हुए भी जनता को स्वीकार तो करना ही पड़ रहा था। कुछ लोग ऐसे थे, जो पूरी तरह अँग्रेज़ों के अंकित बन गये थे; वहीं कुछ लोगों के मन में ‘यह सब अनुचित हो रहा है’ इस क्रोध की आग धधक रही थी। लेकिन उस क्रोध को राह दिखायी नहीं दे रही थी।

भारत में कई पीढ़ियों से कुछ रूढ़ियों एवं परंपराओं का पालन समाज के द्वारा किया जा रहा था। उनमें से कुछ श्रद्धा का विषय थीं, वहीं कुछ को समाज के द्वारा प्रस्थापित किया गया था। आधुनिकता का स्पर्श न हुए इस समाज के लिए मुंबई से ठाणे तक सन १८५३ में चली पहली रेलगाड़ी यह एक आश्चर्य का विषय बन गयी थी और इसी दौरान टेलिग्राफ मशीन की खड़खड़ाहट भी शुरू हो गयी। सारांश, अब संपर्क के साधनों का विकास हो रहा था। अँग्रेज़ों के द्वारा किये गये यह सुधार भारतीय समाज को अचंभित कर रहे थे। लेकिन ये सुधार अँग्रेज़ों ने भारतीय जनता के हित का विचार करके नहीं किये थे, बल्कि उनकी नज़र ख़ुद के फ़ायदे पर ही थी। अँग्रेज़ों के साथ उनके धर्म का प्रचार-प्रसार करनेवालें भी यहाँ आये थे और उन्होंने यहाँ पर अपना कार्य शुरू भी कर दिया था। परंपरावादी एवं रूढ़ीप्रिय भारतीय समाज को अब धर्मपरिवर्तन का एक नया डर सताने लगा था।

भारत के कुछ राज्यों को अँग्रेज़ों ने जीत लिया, वहीं कुछ राज्यों को ‘रियासतों’ के रूप में आज़ाद रखने का दिखावा भी किया और अब अँग्रेज़ों ने अपने असली दाँत बाहर निकाले। लॉर्ड डलहौसी नाम के अँग्रेज़ अफ़सर ने इन रियासतों को निगलने के लिए एक नया कानून बनाया – ‘दत्तक (गोद) विधान नामँज़ूर करना’। दर असल भारत में राजगद्दी के वारिस के रूप में गोद लेने की परिपाटी पुराने समय से चली आ रही थी। यदि किसी राजा की मृत्यु हो जाती है और उसकी अपनी संतान नहीं है, ऐसी परिस्थिति में उसकी रानी किसी अन्य बच्चे को गोद ले लेती थी और उसे अगले राजा के रूप में गद्दी पर बिठाया जाता था। लेकिन अब इस क़ानून के कारण ‘यह ‘दत्तक संतान’ राज्य का वारिस नहीं बन सकती थी और वह रियासत सीधे अँग्रेज़ों के कब्ज़े में चली जानेवाली थी’। लॉर्ड डलहौसी ने इसी क़ानून के तहत सन १८४८ में सातारा, १८४९ में संबलपूर, जयपूर, १८५४ में झाँसी, नागपूर, १८५५ में अर्काट, तंजावर और १८५६ में अवध और उदयपूर इस तरह रियासतों को बरख़ास्त कर दिया और इस क़ानून का सहारा लेकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लाखों रुपये चटक लिये।

भारत पर राज करनेवाले अँग्रेज़ों ने अब कई क़ानून बनाये थे, लेकिन क्या वे क़ानून सब के लिए एक समान थे? एक आम उदाहरण ही देखिए, अब भारत पर राज करनेवाले अँग्रेजों ने जो सेना बनायी थी उस सेना में रहनेवाले अँग्रेज़ सिपाही और भारतीय सैनिकों की तऩख्वाह में, उन्हें मिलनेवाली सहूलियतों में, उनसे करवायी जानेवाली मेहनत में और दोनों के साथ किये जानेवाले बर्ताव में तथा इन्साफ़ में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। ग़ुलाम बन गये भारतीयों की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही थीं और उनके साथ नाइन्साफ़ी ही हो रही थी।

रियासतों को बरख़ास्त करके राजगद्दियाँ छीनने के बाद भी अँग्रेज़ों की भूख बढ़ ही रही थी। उन्होंने राजाओं के खज़ाने लूट लिये, कई राजघरानों एवं राज्यों की संपत्ति को खुले आम नीलाम कर दिया।

सारांश, प्रत्येक भारतीय को अपमानित, असहाय करना और अपनी मनमानी करना यह अँग्रेज़ों का मानो अधिकार ही बन गया था।

उस समय के कई इतिहासकार भारत की अँग्रेज़ी हु़कूमत का वर्णन ‘पाशवीय’ (जानवर की तरह रहनेवाली) इस शब्द में करते हैं।

भारत के गाँव स्वयंपूर्ण थे और अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किसी ग्रामवासी को शायद ही कभी बड़े शहरों में जाना पड़ता था। कृषि (खेती) यह यहाँ की अर्थव्यवस्था की नींव थी। अँग्रेज़ों ने भारतीयों की इस नींव पर ही प्रहार किया। इंग्लैंड़ में बनी वस्तुओं से यहाँ के बाज़ार भर जाने लगे और भारतीय माल तो गायब ही हो गया। इससे भारत का आम आदमी बेरोज़गार हो गया। कुछ इलाकों में तो किसानों से ज़बरदस्ती से ज्यूट, कॉफी, नील, चाय की ही खेती करायी जाती थी। भारतीय अर्थव्यवस्था को धराशायी करके अँग्रेज़ों ने उस पर भी कब्ज़ा कर लिया।

रियासतें बरख़ास्त करके वहाँ के राजा-महाराजाओं को राजपद पर से हटा दिया गया और वहाँ के सैनिकों को बेरोज़गार कर दिया गया।

शोषण, अत्याचार ये शब्द हम सुनते हैं। आज भी कई इन्हें अनुभव करते हैं; लेकिन उस दौर में प्रतिदिन हर भारतवासी इन्हें झेल रहा था।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की भारतीय फ़ौज में मुठ्ठी भर अँग्रेज़ और बाक़ी सारे भारतीय ही थे। सारांश, अँग्रेज़ों ने भारतीयों को ही एक-दूसरे के खिलाफ़ लड़ने के लिए खड़ा कर दिया था। अपने ही देशवासियों पर गोलियाँ चलाने का प्रशिक्षण इन सैनिकों को दिया जाता था। लेकिन जिनसे ये गोलियाँ चलायी जाती थीं, वे रायफलें और उनके कारतूस कुछ ऐसा क़हर ढ़ायेंगे यह किसी ने सोचा तक नहीं था।

अब इन सैनिकों को नयी रायफलें दी गयी थीं-एनफिल्ड रायफलें। इनके कारतूसों को मुँह से खोलकर फिर उनमें रहनेवाली गन पाऊडर को रायफल में भर दिया जाता था। ये कारतूस पानी से ख़राब न हों, इस हेतु से उनपर चरबी का एक स्तर चढ़ाया गया था। गाय और सूअर की चरबी का इस्तेमाल इस काम में किया गया है, यह ज्ञात हुआ था। अब धीरे धीरे यह ख़बर सैनिकों में फैलने लगी। अँग्रेज़ सिपाहियों को इससे कुछ फ़र्क पड़नेवाला नहीं था, लेकिन भारतीय सैनिकों को अवश्य ही इससे फ़र्क पड़ रहा था और वह पड़ ही गया।

क्रान्तिगाथा

भाग १, भाग २, भाग ३

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